उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ (Lucknow) में शब्द-सुरों के महाकुंभ 'साहित्य आजतक लखनऊ' का आगाज हो गया है. 'नवाब, कबाब और कहानियां' सेशन में 'The Life and Times of the Nawabs of Lucknow' के लेखक रवि भट्ट, 'गुमनाम हिंदू राजा टिकैत राय' के लेखक नवल कांत सिन्हा और फूड एंटरप्रेन्योर मुदस्सर रिज़वी शामिल हुए. जब लखनऊ के नवाबों की बात होती है, तो नवाब वाजिद अली शाह का जिक्र जरूर आता है लेकिन लेखक रवि भट्ट ने कई और भी नवाबों से जुड़े क़िस्से सुनाए. उन्होंने इस दौरान लखनऊ के नवाबों के दिल्ली के रिश्तों का भी ज़िक्र किया.
दिल्ली के साथ लखनऊ के रिश्ते की बात करते हुए रवि भट्ट कहते हैं, "सफदरजंग अवध डायनेस्टी के नवाब थे. उनकी पोस्ट मीर आतिश थी. उनका टॉम्ब दिल्ली में इसलिए बना है कि जब 1748 में अहमद शाह अब्दाली ने पहली बार हिंदुस्तान पर हमला किया था, तो सफदरजंग ने मोहम्मद शाह रंगीला की तरफ से जाकर राजा जयपुर और मुगल आर्मी के साथ लड़ने के साथ लड़ने गए थे. इस दौरान राजा जयपुर लड़ाई के मैदान से भाग गए. मुगल आर्मी के चीफ कमरुद्दीन को एक गोला लग गया था और मर गया था."
उन्होंने आगे बताया कि सफदरजंग की अगुवाई में चलने वाली अवध की आर्मी ने अहमद शाह अब्दाली को हराया था. इसलिए मोहम्मद शाह अब्दाली की मौत के बाद मुगल एंपायर का वजीर बना दिया गया. सफदरजंग, लखनऊ के दूसरे नवाब होने के साथ मुगल के वजीर भी थे.
कैसे पड़ा लखनऊ के हजरतगंज का नाम?
रवि भट्ट ने बताया कि हजरतगंज, अवध के दसवें नवाब का नाम अमजद अली शाह. ज्यादातर लोग उन्हें अमजद या हजरत अमजद कहते थे. उन्हीं के नाम पर लखनऊ के हजरतगंज का नाम रखा गया.
उन्होंने कहा, "1764 में बक्सर की जंग लखनऊ, बंगाल और मुगल के बादशाह ने मिलकर लड़ी थी. लखनऊ के नवाब सुजाउद्दौला ने 1761 में मराठा और अब्दाली के बीच जंग हुई थी, तो उन्होंने अब्दाली का साथ दिया था, जबकि उनके पिता सफदरजंग ने अहमद शाह अब्दाली के साथ जंग की थी और हराया था."
रवि भट्ट ने बताया, "नवाबों के शासन के वक़्त कला, संगीत और कल्चर बात करते हुए कि मध्यकालीन युग में राजाओं का पहली प्राथमिकता होती थी कि अपनी बाउंड्रियों की हिफाजत करनी है. ये काम अंग्रेजों की सेनाएं करने लगी थीं लेकिन बक्सर की जंग हारने के बाद इन सेनाओं का खर्च यहीं के राजा देते थे. इस वक्त नवाबों के पास अच्छा वक्त और पैसे होते थे. तो ऐसे दौर में आर्ट और कल्चर का विकास तो होना ही था."
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'लखनऊ जैसा कल्चर कहीं नहीं...'
लेखक रवि भट्ट ने लखनऊ की तहज़ीब पर बात करते हुए कहा, "लखनऊ अपने सेक्युलर कल्चर के लिए जाना जाता है. दुनिया में ऐसा कल्चर कहीं नहीं मिलेगा, जो सेक्युलर कल्चर लखनऊ में मिलेगा. अगर इस बात का प्रमाण चाहिए, तो इसका प्रमाण ये है कि विभाजन के वक्त 1947 से पहले पूरे भारत में सांप्रदायिक संकट था लेकिन मुस्लिम बहुल लखनऊ सिर्फ ऐसा शहर था, जहां पर एक भी सांप्रदायिक हिंसा की घटना नहीं हुई थी."
उन्होंने उर्दू शायर मीर तक़ी मीर का एक शेर भी सुनाया, जिसमें सेक्युलर कल्चर झलकता है...
उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
क्यों याद किए जाने चाहिए टिकैत राय?
लेखक नवल कांत सिन्हा, टिकैत राय पर किताब लिखने की वजह पर बात करते हुए कहते हैं, "हम लखनऊ के इतिहास को हम लोगों ने एक एंटरटेनमेंट के तौर पर बांट रखा था. उसमें आसिफुद्दौला और वाजिद अली की चर्चा ज्यादा होती है. तीसरा कैरेक्टर उमराव जान का है, उनको सब जानते हैं लेकिन टिकैत राय को बहुत कम लोग जानते होंगे."
उन्होंने आगे कहा कि मैंने टिकैत राय का कैरेक्टर इसलिए चुना क्योंकि यहां पर टिकैत राय तालाब कॉलोनी एक इलाका है. वहां पर मेरे ननिहाल होने की वजह से मैं वहां बचपन से जाया करता था. मैं पूछता था कि टिकैत राय कौन हैं, मुझे बताया जाता था कि कोई बड़े आदमी थे. जब मैंने अपने पिता जी से पूछा तो उन्होंने उर्दू की तमाम किताबों से देखकर बताया कि वे तो बहुत बड़े कैरेक्टर थे.
नवल कांत सिन्हा आगे कहते हैं, "टिकैत राय को हमें इसलिए भी जानना चाहिए क्योंकि लखनऊ में एक राजा बाजार है, वो उन्हीं के नाम पर है. नक्खास की इतवार बाजार को टिकैत राय ने शुरू करवाई. चिकन को आम लोगों तक पहुंचाने वाले टिकैत राय ही थे. टिकैत राय के तालाब के पास शीतला माता मंदिर का उद्धार उन्होंने ही करवाया. टिकैत राय ने हैदरगंज मस्जिद और टिकैतगंज की छोटी मस्जिद बनवाया."
उन्होंने आगे बताया कि लखनऊ, काकोरी, बदायूं, कोलकाता और बाराबंकी टिकैतगंज और टिकैतनगर नाम के मुहल्ले हैं. बिठूर का घाट टिकैत राय ने स्थापित किया. टिकैत राय ने अयोध्या की हनुमानगढ़ी और करीब 108 शिव मंदिर बनवाई. टिकैत राय ने जितने मंदिर बनवाए वो आसिफुद्दौला के दौर में बनवाए थे. जाहिर सी बात है कि आसिफुद्दौला की सेक्योरिटी में बनवाए थे. सेक्युलरिज्म के लिए शिया मुसलमानों ने सबसे ज्यादा काम किया है.
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'मसाले कूटकर अदब के साथ बिरयानी...'
फूड एंटरप्रेन्योर मुदस्सर रिज़वी, लखनवी बिरयानी पर बात करते हुए कहते हैं, "बिरयानी ईरान का एक लफ़्ज़ है, जिसको पहले बिरयान बोला गया था. हिंदुस्तान में बिरयानी को मुग़ल लेकर आए. लखनऊ के लोगों ने इसको काफी अपडेट किया. यहां के मसालों को कूटकर, पीसकर, छानकर बड़े अदब के साथ बिरयानी बनाई जाती है."
वे आगे कहते हैं, "लखनऊ में एक इलाका है बावर्ची टोला, वहां पर जितने भी घर हैं, उसमें से एक बावर्ची हर घर से मिलेगा. इसके अलावा लखनऊ की हर गली से बावर्ची मिलेगा. हर गली से एक अजीब सी महक और टेस्ट मिलता है."
'लखनऊ का गलौटी कबाब...'
मुदस्सर रिज़वी बताते हैं कि लखनऊ का गलौटी कबाब बहुत मशहूर है. नवाब वाजिद अली खाने के बहुत शौक़ीन थे. इन्होंने बाराबंकी, फैजाबाद और गोरखपुर के खानसामाओं को बुलाया और कहा आप लोग हमें अलग-अलग तरह के कबाबा बनाकर खिलाइए. नवाबों ने तमाम कबाबों में से गौलटी कबाब को अप्रूव किया. क्योंकि ये ज़बान पर घुल जाने वाला एक टेस्ट था.
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हैदराबादी, अवधी और कोलकाता बिरयानी में फर्क बताते हुए मुदस्सर रिज़वी कहते हैं, "लखनऊ के पुलाव को यखनी पुलाव बोलते हैं. अंग्रेजों के आने के बाद 1890 में जब वाजिद अली शाह मटियाबुर्ज चले गए, तो इनकी फौज के लिए पैसों की किल्लत थी और मटन-चिकन आसानी से नहीं मिल पाता था. इसके बाद इन्होंने अपने मजदूरों के लिए पुलाव में आलू डाला, जिससे सब को बांटा जा सके. वहां से कोलकाता बिरयानी में आलू का ईजाद हुआ. वहां के लोग आज भी आलू डालकर बिरयानी दी जाती थी, इसका इन्वेंशन नवाब वाजिद अली शाह ने किया था.