दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में संगीत, सुरों और शब्दों के महाकुंभ साहित्य आजतक का आज तीसरा दिन है. इस प्रतिष्ठित मंच पर जाने-माने लेखक और गीतकार प्रसून जोशी ने शिरकत की. उन्होंने कविता, शायरी समेत कई मुद्दों पर चर्चा की. उन्होंने कहा कि जहां सबका हित है, वही साहित्य है. साथ ही कहा कि नदी के किनारे पड़े पत्थर ऐसे दिखते हैं जैसे किसी ने उन्हें तराशा है. सवाल है कि उन्हें ऐसा कौन बनाता है. वह ऊपर से लुढ़कते हैं, टूटते हैं फिर धीरे-धीरे तराशे जाते हैं. मैं भी ऐसा ही एक पत्थर हूं.
प्रसून जोशी ने कहा कि वर्तमान का युग जाहिर का युग है. आज सब कुछ जाहिर हो रहा है. कोई अपने पास कुछ नहीं रख रहा. पहले लोग रात में खत लिखते थे, और सुबह उसे दोबारा पढ़ते थे, लेकिन आज किसी के पास वक्त नहीं है, मैसेज टाइप किया और भेज दिया. इसमें हमें एक नई चीज सीखनी पड़ेगी कि जाहिर होकर कैसे जीना है.
इस दौरान उन्होंने एक कविता 'जाहिर होकर जीना होगा, कड़वा सच भी पीना होगा...' सुनाकर महफिल लूटी. उन्होंने कहा कि कविता एक दृष्टि है. जब मैं तारे जमीं पर फिल्म पर काम कर रहा था, तब मुझे अहसास हुआ कि बच्चों को पालने की जिम्मेदारी पहले समाज उठाता था, लेकिन अब हम आउटसोर्सिंग कर रहे हैं. हमें लगता है कि स्कूल बच्चों को सिखाएगा. हमें ये याद रखना होगा कि बच्चे का मूल परिवार है. जो परिवार सिखा सकता है, वो टीचर नहीं सिखा सकते.
उन्होंने कहा कि पहले बच्चे मां, दादा-दादी, नाना-नानी की छांव में बड़े होते थे, अब वही बच्चे अकेले हो पड़ हैं. जब वह अकेला पड़ता है तो मां की गोद मौत की गोद ले लेती है. जो आश्रय उसे चाहिए, वो नहीं मिलती. हमने यही बात 'तारे जमीं पर' के जरिए समझाई.