लखनऊ में साहित्य आजतक लखनऊ का आयोजन जारी है. शब्दों-सुरों के इस महाकुंभ में देश-विदेश के प्रसिद्ध साहित्यकार, कलाकार और मनोरंजन जगत के दिग्गज शिरकत कर रहे हैं. महोत्सव के 'घाव करे गंभीर' सेशन में लखनऊ और खासकर अवध के वो सितारे शामिल हुए, जिन्होंने व्यंग्य में अपना बड़ा नाम बनाया है. व्यंग्य वो विधा है, जो शब्दों और स्थिति को अपने नजरिए से पेश करता है.
'घाव करें गंभीर' में वाया फुरसतगंज और मदारपुर जंक्शन के लेखक बालेंदु द्विवेदी, सपनों की सभा और नया राजा नए किस्से के लेखक अनूप मणि त्रिपाठी, घातक कथाएं और डंके की चोट पर के लेखक अलंकार रस्तोगी ने शिरकत की और व्यंग्य कहने की विधा से परिचित कराया.
बालेंदु द्विवेदी ने कहा कि वाया फुरसतगंज, मदारपुर जंक्शन और बादशाह सलामत हाजिर हो. ये तीन व्यंग्यात्मक उपन्यास हैं. तीन की पृष्ठभूमि अलग है, विषय-वस्तु अलग है. लेकिन तीनों की शैली व्यंगात्मक है. मैं व्यंग्य कहने में खुद को काफी सक्षम पाता हूं, क्योंकि मैं जिस सिस्टम में काम करता हूं. वहां मुझे काम के दौरान काफी कमियां दिखती हैं. मुझे विषय-वस्तु वहीं से मिलती है.
फुरसतगंज, मदारपुर जैसे नाम रखने की पीछे क्या वजहें हैं
इस सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि देखिए जो उपन्यासों के नाम हैं, ये उपन्यास अपनी विषय-वस्तु का प्रतिनिधित्व करते हैं. जैसे मदारपुर उपन्यास है, वो गांव कथानक पर आधारित है और वो ग्रामीण कथानक में ग्रामीण राजनीति, जो पंचायती राज की खामियों का विस्फोट हम कह सकते हैं. वो उस में दिखाई देती है. हमारी जो जाति की राजनीति है, जिससे हम सदियों से जूझ रहे हैं. मैंने अपने उपन्यासों को चरित्रों के जरिए से एक जंक्शन बना है जो उत्तर भारत के हर गांव का प्रतिनिधित्व करता है. और वो सारे चरित्र मदारीनुमा हैं.
वहीं, वाया फुरसगंज स्थानीय समस्या के बाहने मुख्य राजनीति की पड़ताल करता है. फुरसतगंज एक गांव है जो मैंने एक कल्पना की है. मैंने इस उपन्यास में एक गांव की समस्या, कैसे राष्ट्रीय स्तर की समस्या बनती हैं. इसको दिखाने की कोशिश की है. आप वाया फुरसगंज से मुख्य धारा की राजनीति की पछताल कर सकते हैं.
इसी तरह बादशाह सलामत हाजिर हो, ये अवधों के नवाबों की पृष्ट भूमि में रचा गया उपन्यास है. ये कोई ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है. मैंने एक कल्पना की है कि एक नवाब, जिसमें न केवल अपने वक्त की, बल्कि अपने आगे-पीछे सभी नवाबों-बादशाहों को एक चरित्र में पिरो दिया जाए तो वो बादशाह कैसा होगा. अगर वो जालीमानना हरकतें करने लग जाए तो जनता का क्या हाल होगा. ये मैंने इस उपन्यास में दिखाने की कोशिश की है.
आज के दौर में कितनी बड़ी चुनौती है व्यंग्य को लोगों तक पहुंचाने की
इस सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, 'व्यंग्य साहित्य को सोशल मीडिया ने बड़ा प्लेटफार्म दिया है. इसमें किसी शक नहीं है, लेकिन हर दौर में जो होता आया है. सोशल मीडिया के दौर में ये और भी ज्यादा हो रहा है कि वास्तविक साहित्यकारों और छद्म साहित्यकारों के बीच अंतर कर पाना मुश्किल हो गया है. बहुत सारे लोग खुद के व्यंग्यकार बताते हुए सियारों की तरह शोर कर रहे हैं. मुझे लगता नहीं है कि व्यंग्य को इतने लोगों की जरूरत है. व्यंग कभी-भी लिखना आसान नहीं था, न आज न कल.'
अनूप मणि त्रिपाठी ने कहा कि व्यंग्य जो वो एक साहस का काम है. और सांपों की सभा जो हम आज अपने आस-पास देख रहे हैं. जिन चीजों को नहीं कह पाते हैं वो प्रतीकात्मक रूप से कहीं गई बातें हैं. जम्हूरियत को लेकर इसमें कई बातें हैं. इसमें कई छोटे-बड़े व्यंग्य है. जो लोग उपेक्षित हैं जो लोग प्रताड़ित हैं तो उनकी आवाज कौन बनेगा, उन्हीं की आवाज बनने के लिए व्यंग्य जरूरी है.
वहीं, जब पूछा गया कि आप सांप किसको संबोधित कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि सांप तो कोई भी हो सकता है. जो अपना कर्तव्य नहीं निर्वाहन नहीं कर रहा है जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वही है. और राजा नए किस्से में तो आज के पॉलिटिकल और सोशल का पूरा डॉक्यूमेंट है एक प्रतीक के द्वारा.
रील के इस दौर में व्यंग्य को कहता सीमित किया जाए
इसका जवाब देते हुए अनूप मणि त्रिपाठी ने कहा, ये चुनौती तो है. आज रील और मीम्स का वक्त है, उसमें आपका गंभीर व्यंग्य. जिससे युवा जुड़ना नहीं चाहता और अब लोग पढ़ने से भी थोड़ा बचते हैं. ये चुनौती है. पर आप सच्चा, सटीक और अच्छा लिखते हैं तो पाठक और लोग आ ही जाते हैं. कई चीजें होती है जो तुरंत नहीं मिलती. पर आगे चलकर उनका मूल्यांकन होता है. हम आपने फॉर्म भी बदल सकते हैं, हम रील्स के जरिए भी व्यंग्य कह सकते हैं. तो फॉर्म बदलते रहते हैं. जब किताबें थी तो टीवी नहीं था. टीवी आया तो लगा कि पाठन खत्म हो जाएगा. चीजें वक्त-वक्त पर बदलती रहती है, अगर आप 24 कैरेट सोना रखे हुए हैं तो बैठे रहिए, लोग आ ही जाएंगे.
समाज-व्यवस्था और इस वक्त की सत्ता इस दौर पर फिट हो रही है
इस सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि अगर भारतेंदु को आज के वक्त में पढ़ेंगे तो प्रासंगिक होगा या परसाई को पढ़ रहे हैं तो प्रासंगिक होगा. व्यंग्य को आपको वर्तमान से ही जोड़कर लिखना पड़ता है. मैं आपको कितनी रचनाएं बता दूं, जिन्हें आप पढ़ेंगे तो कहेंगे कि ये आज के लिए ही लिखी गई थीं और समाज वही रहता है, परिवर्तन की गति बहुत कम रहती है. अगर हम बेरोजगारी, महंगाई पर लिखते हैं तो वो प्रवृत्ति नहीं बदलेगी. इसको बदलने में वक्त लगेगा. वर्तमान से आंख मंदूने वालों के लिए व्यंग्य नहीं है.
जातक कथाओं को आपने घातक कथा बना दिया
अलंकार रस्तोगी ने कहा, ये आज के संदर्भ में है. कहानियों आपको वही मिलेंगी. आपने सबने प्यासे कौवे की कहानी पढ़ी होगी कि कैसे कौवे ने अपनी प्यास बुझाई. आज के संदर्भों में देखो तो क्या कौवे के प्यास बुझ पाई है. पानी की तलाश जारी है.
एक दौर था जब सरकार भी साहित्य को खूब महत्व देती थी
इस सवाल का जवाब देते हुए अलंकार रस्तोगी ने कहा, कहते हैं जिनके घर में आईने नहीं होते उनको खुद का पता नहीं होता. तो व्यंगकार आईना दिखाने का काम करते हैं. और आईना इस लिए देखा जाता है कि आप अपने अंदर सुधार कर सकें. लेकिन आपके अंदर सुधार करने की प्रवृत्ति न हो तो आप आईने को दिखने की जगह ढ़कना पसंद करेंगे. मुझे लगाता है कि सत्ताएं असहिष्णु हो चुकी हैं.