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धारावाहिक 'पचपन खंभे लाल दीवारें' की लेखिका ऊषा प्रियंवदा ने खोला राज, कहा- 'हमारे समय में लिव इन...'

Sahitya AajTak 2022: दिल्ली में 18 नवंबर से शुरू हुए सुरों और अल्फाजों का महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2022' का आज तीसरा और अंतिम दिन है. साहित्य के सबसे बड़े महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2022' के तीसरे दिन शिक्षाविद और दूरदर्शन के लिए 'पचपन खंभे लाल दीवारें' जैसी धारावाहिक लिखने वाली ऊषा प्रियंवदा ने अपनी जिंदगी से जुड़े कई राज खोले.

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साहित्य आजतक के कार्यक्रम में उपन्यासकार ऊषा प्रियंवदा.
साहित्य आजतक के कार्यक्रम में उपन्यासकार ऊषा प्रियंवदा.

Sahitya AajTak 2022: साहित्य आजतक के मंच पर तीसरे और आखिरी दिन 'पचपन खंभे लाल दीवारें' सेशन में लेखिका ऊषा प्रियंवदा ने कहा कि धारावाहिक 'पचपन खंभे और लाल दीवारें' का नाम लेडी श्रीराम कॉलेज से जुड़ा है. उन्होंने कहा कि कॉलेज में हमने कभी खंभों को पूरी तरह से गिना नहीं, लेकिन धारावाहिक का नाम इसी से दिया था.

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एक सवाल का जवाब देते हुए ऊषा प्रियंवदा ने कहा कि "मैं साल 1956 में लेडी श्रीराम कॉलेज में पढ़ाती थी. शाम को मैं अपने दोस्तों के साथ बालकनी में बैठकर खंभे गिनने की कोशिश करती थी कि इस बिल्डिंग में कितने खंभे हैं और उसकी दीवारें लाल थीं."

धारावाहिक 'पचपन खंभे लाल दीवारें' की कल्पना और आज की मौजूदा स्थिति पर बात करते हुए ऊषा प्रियंवदा ने कहा कि मैंने जो कभी अपने धारावाहिक में काल्पनिक रूप दिया था, आज वो आम हो गया है. तब कोई किसी से विवाह की इच्छा को खुलकर नहीं कह पाता था या अपने से बड़ी उम्र की लड़की से प्यार करने की कल्पना कर सकता था. ये अब आम हो गया है.

'हमारे समय में लिव इन...' धारावाहिक 'पचपन खंभे लाल दीवारें' की लेखिका ऊषा ने खोला राज
साहित्य आजतक में मौजूद दर्शक.

निजी जिंदगी के बारे में भी बताया

अपनी निजी जिंदगी पर बात करते हुए ऊषा प्रियंवदा ने कहा कि जब मैं अमेरिका पढ़ने गई तो यह सोचकर गई थी कि हमें वहां एक साल पढ़ना है, फिर वापस भारत आ जाना है, लेकिन वहां मैं एक स्वीडिश व्यक्ति से मिली. मुझे पता नहीं, वो कब मेरे प्रेम में पड़ गए. उस वक्त हम पारंपरिक जीवन में रहते थे. हमारे वक्त में लिव इन का कोई नाम भी नहीं था. हम दोनों ने शादी कर ली. उन्होंने कहा कि "इस विवाह ने मेरे जीवन को समृद्ध किया. मेरे जीवन में संकुचन से खुलापन लाया."

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भारतीय और अमेरिकी छात्रों में अंतर पर की बात

ऊषा प्रियंवदा ने भारत और अमेरिका दोनों जगह शिक्षा ली है और टीचिंग भी की है. भारतीय और अमेरिकी छात्रों में अंतर पर पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि उस वक्त यहां के समाज में इतना खुलापन नहीं था, लेकिन अमेरिका में वीमेंस लिबरेशन के कारण वहां समाज खुल रहा था. उन्होंने कहा कि अब भारतीय और अमेरिकी बच्चों की मानसिकता में कोई अंतर नहीं है.

हिंदी मेरी त्वचा की तरह

एक स्वीडिश व्यक्ति से शादी और अमेरिका में इतने साल रहने के बाद हिंदी और खास तौर से हिंदी साहित्य से लगाव पर उन्होंने कहा कि जिस तरह से मैं त्वचा को नहीं बदल सकती, उसी तरह मैं अपनी भाषा हिंदी को अंग्रेजी से नहीं बदल सकती. उन्होंने कहा कि इतने वर्षों के जीवन में मैंने यही सीखा कि मैं भारत से अलग नहीं हो सकती.

उन्होंने कहा कि आज के बच्चे अमेरिका जाने के बाद भारत से बिल्कुल अलग हो गए हैं. औपनिवेशिक मानसिकता रखने वाले आज के बच्चे भारत की भाषा नहीं सीखना चाहते. उनकी एक समस्या यह भी है कि उनका रंग भारतीय है.

लेखक को समाज से जुड़े रहना चाहिए

आज के हिंदी साहित्य पर टिप्पणी करते हुए ऊषा प्रियंवदा ने कहा कि आज जो लेखक जड़ को पकड़कर बदलाव ला रहे हैं, वही पहचान बनाएंगे. आज जो लिख रहे हैं, उससे हमें आशा बंधती है. उन्होंने कहा कि स्त्रियों को बांधने की परंपरा को बेटियां ही बदलेंगी. अगर हमारी किताब पढ़कर किसी के जीवन कोई सकारात्मक बदलाव आता है तो हमारा लिखना सार्थक हो जाता है. ऊषा प्रियंवदा ने कहा कि लेखक को हमेशा समाज से जुड़े रहना चाहिए.

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