भारतीय समाज में रिश्तों को जितनी मजबूती, आत्मीयता और उर्जा हासिल रही हैं, वह विरल है! एक तरह से कहा जा सकता है कि इस देश के यथार्थ को रिश्तों की समझ के बगैर जाना-समझा नहीं जा सकता है ! माँ-पिता, भाई-बहन, दोस्त, दादी-नानी, बाबा-नाना, मामा, मौसा-मौसी, बुआ-फूफा, दादा, चाचा, दोस्ती अनगिनत संबंध हैं जो लोगों के अनुभव-संसार में जीवंत हैं और जिनसे लोगों का अनुभव-संसार बना है! इसलिए हमारे देश की विभिन्न भाषाओँ में लिखी गई कहानियों, उपन्यासों आदि में ये रिश्ते बार-बार समूची ऊष्मा, जटिलता और गहनता के साथ प्रकट हुए हैं! न केवल लेखकों, कवियों, कलाकारों बल्कि सामाजिक चिंतकों के लिए भी ये रिश्ते एक तरह से लिटमस पेपर हैं जिनसे वे अपने अध्ययन क्षेत्र के निष्कर्षों, स्थापनाओं, सिद्धांतो की जाँच कर सकते हैं!
राजकमल प्रकाशन ने 'कहानियां रिश्तों की' के तहत एक प्रेम श्रृंखला प्रकाशित की है, जिसका संपादन मनीषा कुलश्रेष्ठ ने किया है. इस श्रृंखला के संपादक अखिलेश हैं. 168 पृष्ठों वाले इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण का मूल्य 150/ रुपए है. प्रकाशक व संपादकद्वय का दावा है कि भारतीय परिवेश में ढले रिश्तों पर रची गई कहानियों की यह श्रृंखला हमारी दुनिया का अंकन होने के साथ-साथ हमारी दुनिया को पहचानने और उसकी व्याख्या करने की परियोजना के लिए सन्दर्भ कोष के रूप में भी ग्रहण की जा सकती है! बहरहाल, वेलेंटाइन डे हफ्ते में साहित्य आजतक पर पढ़िए उसी संकलन से ली गई प्रख्यात लेखक कृष्ण बलदेव वैद की कहानी 'सब कुछ नहीं'. यह कहानी अपनी विशिष्ट शैली के चलते भी पठनीय है, कि कोई कैसे बेहद संक्षिप्त संवाद से भी आदमी-औरत के मनोभावों और रिश्तों का इतना सटीक वर्णन कर सकता है.
कहानीः सब कुछ नहीं
- कृष्ण बलदेव वैद
मैंने कहा, उठो कहीं बाहर चलें.
अंधेरे में मेरी आवाज सुलग कर बुझ गई.
कमरे में. जो उस रात के आखिरीपन से अंटा हुआ था. जहाँ उसे रात को सोकर खत्म नहीं किया जा सकता था. उसने बिजली जलाकर कहा, तो उठो.
कमरा रोशनी से एकदम तन-सा गया दिखाई दिया. मुझे. जैसे कोई तीसरा हमारे सिर पर आ खड़ा हुआ हो. खामोश और अदृश्य. रोशनी में लिपटा हुआ.
उसकी आवाज तृप्त मर्द की-सी थी. तृप्त और नंगी.
मैंने उसकी आँखों को अपनी पीठ पर महसूस किया.
कपड़े पहनकर हमने, मैंने बिजली बुझा दी.
कमरा, सनसना कर रूठ गया.
कुछ देर हम खामोश अंधेरे में खड़े रहे.
धीरे-धीरे उगते हुए सफेद बिस्तर के पास. उसे घूरते हुए खामोश.
अब कहाँ?
अब कहीं भी.
कुछ पीना चाहोगी?
कहाँ?
कहीं भी.
नहीं. तुम?
नहीं.
क्या सोच रही हो?
रात बहुत गहरी है.
अच्छी है. नहीं?
हाँ. तुम क्या सोच रही हो?
सड़क बार-बार गुम हो जाती है.
हाँ. मैं चलाऊँ?
नहीं. ठीक है.
वह देखो हिरन! दिखे?
नहीं.
इस इलाके में हिरन बहुत होते हैं.
मुझे नहीं मालूम था.
नींद तो नहीं आ रही तुम्हें?
नहीं. तुम्हें?
नहीं.
बहुत खूबसूरत रात है. नहीं?
हाँ. बहुत.
इतनी रात को हम कभी बाहर नहीं आए.
हाँ.
तुम्हें रात पसन्द है या दिन?
कभी-कभी दोनों. तुम्हें?
रात.
क्यों?
दिन से मुझे डर लगता है. ऊब से भरा हुआ डर. हो सके तो मैं दिन भर सोऊँ और रात भर जागूँ.
उल्लू!
हाँ, उल्लू.
हवा बन्द है.
शीशा नीचे कर लो.
हम कभी इस सड़क पर नहीं आए.
यह हमारी आखिरी रात है.
हाँ. आखिरी. लेकिन....
कहो.
रहने दो.
धीमे चलो.
मुझे तेज चलना पसन्द है.
क्यों?
खासतौर पर रात को. जब कहीं पहुँचने की ख्वाहिश या मजबूरी न हो. खाली और पेंचदार देहाती सड़कों पर. अँधेरे में जानते हो मेरा पति क्या कहता है?
धीमे चलो.
आज तारीख क्या है?
शायद बीस. क्यों?
यूँ ही.
तुम्हारी बीवी...?
हाँ?
रहने दो.
कैसी है देखने में?
ठीक है.
सुन्दर?
हाँ, सुन्दर.
क्यों?
वैसे ही.
कल उसका खत आया था लिखा था, वहाँ बारिश हो रही है. जोरों से. बारिश.
और?
और खास कुछ नहीं.
तुम्हें याद तो बहुत किया होगा?
किसने?
उसने. और बच्चों ने?
हाँ.
तुम पहले कभी इस तरह अलग रहे हो?
कई बार.
वह तुम्हारे साथ यहाँ आना चाहती थी?
शायद नहीं.
तुमने पूछा था?
नहीं.
क्यों?
वैसे ही.
क्यों?
धीमे चलो.
तुम्हें बच्चों की याद आती रही?
हाँ.
बहुत?
काफी. तुम्हें?
नहीं.
नहीं?
नहीं.
क्यों?
बस नहीं.
क्यों नहीं?
बस नहीं. तुम्हें यकीन नहीं आता?
नहीं.
क्यों? क्योंकि मैं औरत हूँ? माँ हूँ?
हँसों मत. धीमे चलो.
न जाने तुम कैसे इन सवालों का इतना सीधा जवाब दे जाती हो?
मैं सच बता रही हूँ.
सच?
तुम मानते क्यों नहीं.
क्या?
किसी भी बात को?
क्योंकि मैं नहीं जानता कि सच क्या है.
तुम्हें हैरानी होती है?
किस बात पर?
कि मैंने अपने बच्चों को याद नहीं किया.
हाँ. हैरानी से भी ज्यादा ईर्ष्या.
ईर्ष्या? मुझसे?
तुम्हारी आजादी से.
ओ. आजादी से!
ऐसे मत हँसो.
हँस कौन रहा है?
तुम वापस जाना नहीं चाहती?
नहीं.
क्यों?
बस नहीं. लेकिन लौटूँगी.
क्यों?
क्योंकि और कोई चारा नहीं.
अगर होता तो?
नहीं लौटती. तुम्हें यकीन क्यों नहीं आता?
क्योंकि...
बोलो.
रहने दो.
शीशा चढ़ा दो. अब हवा बहने लगी है.
हाँ.
चाँद होता तो और भी अच्छा रहता. नहीं?
हाँ.
वैसे काली स्याह रातें मुझे ज्यादा पसन्द हैं.
मुझे भी.
क्यों?
वैसे ही.
तुम यूँ ही हाँ में हाँ मिला रहे हो.
शायद.
क्या सोच रहे हो?
कुछ नहीं.
मैं नहीं मानती.
तुम क्या सोच रही हो?
सब-कुछ.
मैं नहीं मानता.
मेरा पति हर खत में लिखता रहा कि उसे भूख नहीं लगती, नींद बहुत कम आती है, काम में जी नहीं लगता. बहुत खुश्क खत लिखता है. कल तुम्हें एक-दो दिखाऊँगी. देखना चाहोगे?
नहीं. और तुम? मेरा मतलब है तुम्हारे खत कैसे होते हैं?
मैं ज्यादा लिखती नहीं.
क्यों?
समझ में नहीं आता कि क्या लिखूँ? ऊपरी बातें लिखने में कोई मजा नहीं आता. असली बात लिख नहीं सकती.
असली बात क्या होती है?
तुम हँस रहे हो?
हाँ.
वैसे हम एक बार भी इतने दिनों के लिए अलग नहीं हुए. यह पहला मौका था.
धीमे चलो. इस बार कैसे हुआ?
मैंने कहा था- मैं कुछ दिन घर से दूर अकेली रहना चाहती हूँ. जानते हो, उसका खत हर रोज आता था. मैंने तुम्हें बताया नहीं. बहुत कोफ्त होती थी. एक बार मैंने उसे मना भी किया था.
क्यों?
क्योंकि वह एक ही खत, बार-बार लिखता है. एक खत में मैंने चलते-चलते तुम्हारा जिक्र भी किया था.
क्यों?
बस यूँ ही.
उसने जवाब में कुछ लिखा मेरे बारे में?
हाँ. लिखा था, खबरदार रहना, खबरदार!
जानती हो तुम्हारी हँसी बहुत बेरहम है.
हाँ, जानती हूँ.
मेरा बस चले तो मैं कभी भी कोई बात न करूँ.
किससे?
किसी से भी
क्यों?
बस यूँ ही.
तुम चाहते हो खामोश हो जाऊँ?
हाँ.
क्यों? तुम्हें मेरी बातें पसन्द नहीं?
बातों से कुछ बनता नहीं.
क्या नहीं बनता.
कुछ भी नहीं.
तो?
तो क्या?
तुम बहुत अजीब हो.
मेरी बीवी भी यही कहती है.
ओ, तुम्हारी बीवी.
तुमने कभी उसे मेरे बारे में लिखा था?
नहीं.
कुछ तो लिख दिया होता.
क्यों?
वैसे ही. अच्छा रहता.
जाकर बता दूँगा.
क्या?
कुछ नहीं.
सब कुछ बता सकते हो?
किसे?
उसे.
नहीं. तुम?
किसे?
उसे.
नहीं. वह?
किसे?
तुम्हें.
नहीं. वह?
किसे?
तुम्हें.
नहीं.
तुम यहाँ क्यों आए थे?
लिखने के लिए.
लेकिन यहाँ क्यों?
एक बार पहले यहाँ आ चुका हूँ.
अकेले?
हाँ.
तो कुछ लिखा?
नहीं.
क्यों नहीं?
रहने दो.
मेरी वजह से?
नहीं.
तो?
रहने दो.
न लिख सकने का रंज है?
है.
क्यों?
रहने दो.
पहली बार लिख सके थे.
हाँ.
क्या?
कुछ नहीं.
मतलब?
बकवास.
क्यों?
रहने दो.
लिखना क्या जरूरी है?
नहीं.
तो?
तो क्या?
क्या सोच रहे हो?
कुछ नहीं. तुम?
कुछ नहीं.
एक बात पूछूँ?
पूछो.
रहने दो.
वापस चलें?
अभी नहीं.
यह हमारी आखिरी रात है.
हाँ.
मान लो कि...
क्या?
कुछ नहीं.
सब कुछ बता डालने की ख्वाहिश होती है?
किसे?
किसी को भी?
हाँ.
फिर?
फिर क्या?
बताते क्यों नहीं.
क्या?
सब कुछ.
किसे?
मुझे.
मैं उससे अलग नहीं होना चाहती.
दुबारा शुरू करना गलत लगता है.
क्यों?
दुबारा कुछ भी शुरू नहीं किया जा सकता.
क्यों?
तुमने कभी?
नहीं.
क्यों?
रहने दो.
डर?
शायद.
ख्वाहिश कभी हुई है?
नहीं.
क्यों नहीं?
बस नहीं.
बच्चे?
शायद.
दुबारा शुरू नहीं किया जा सकता कुछ भी.
शायद.
क्यों?
सभी सम्बन्धों की सम्भावनाएँ एक सी होती हैं. नहीं?
शायद. लेकिन...
लेकिन क्या?
अगर...
अगर क्या?
कुछ नहीं.
कुछ नहीं क्या?
कुछ नहीं.
वैसे कभी-कभी मैं चाहती हूँ कि उसे सब कुछ बता डालूँ.
सब कुछ?
हाँ.
सभी कुछ?
हाँ. गुस्से में नहीं. किसी दबाव में भी नहीं. बस यूँ ही.
अपना बोझ हलका करने के लिए.
शायद.
यह देखने के लिए कि वह क्या कहेगा, क्या करना चाहेगा, क्या करेगा?
शायद. लेकिन मैं बताऊँगी नहीं.
क्यों?
ख्वाहिश से डर ज्यादा है.
डर?
हाँ.
तो तुम भी आजाद नहीं.
नहीं. तुम हो?
नहीं.
तुम प्यार में विश्वास रखते हो?
कैसे प्यार में?
सच्चे प्यार में.
वह कैसा होता है, बता सकती हो?
नहीं. तुम?
नहीं.
होता भी है?
क्या?
सच्चा प्यार?
रहने दो.
कभी तुम्हें उस पर शक हुआ है?
हाँ. तुम्हें?
हाँ. उसे तुम पर?
हाँ. जलन?
हाँ. तुम्हें?
हाँ. उसे?
हाँ.
इसीलिए तो.
इसीलिए तो क्या?
कुछ नहीं.
क्या नहीं?
कुछ भी नहीं.
बात दरअसल यह है कि...
क्या?
कुछ नहीं.
क्यों लिखते हो?
कहाँ लिखता हूँ?
मैं कहना यह चाहता था कि
क्या?
कुछ नहीं.
तुम इतना तड़पते तिलमिलाते क्यों हो?
धीमे चलो.
आज हमारी आखिरी रात है.
हाँ.
मैं बातें करना चाहती हूँ.
मैं सुन रहा हूँ.
कुछ कहोगे नहीं?
कह तो रहा हूँ.
क्या?
मैं कहना यही चाहता हूँ कि...
बोलो...
कुछ नहीं.
क्या कुछ नहीं?
कुछ भी नहीं.
मैं नहीं मानती.
तो बताओ.
क्या?
क्या है?
तुम हो, मैं हूँ, यह रात है, कल सुबह होगी, हम यहाँ नहीं होंगे, मैं तुम्हें याद करूँगी, तुम मुझे, दर्द होगा, शुरू में तेज, फिर धीरे-धीरे धीमा होता जाएगा और एक दिन शायद मर भी जाए, हमारे मरने से पहले. और तुम क्या चाहते हो?
कुछ नहीं.
कभी तुमने आत्महत्या के बारे में सोचा है?
हाँ.
कोशिश?
एक बार. बहुत पहले.
कब?
बचपन में.
कैसे?
गले में रस्सी डालकर.
क्यों?
अब याद नहीं.
कितनी उम्र थी?
शायद दस बरस.
सच?
हाँ.
दिन को?
हाँ. सुबह-सवेरे.
वह जानती है?
नहीं.
क्यों नहीं?
मैंने कभी उसे बताया नहीं.
क्यों नहीं?
रहने दो.
कभी उसने पूछा है?
क्या?
आत्महत्या के बारे में?
नहीं.
तुमने उससे?
नहीं.
क्यों?
हम ऐसी बातें नहीं करते एक-दूसरे से. तुम?
नहीं.
तुमने कभी?
नहीं.
क्या सोच रही हो?
सब कुछ.
सब कुछ क्या होता है.
सब कुछ.
नहीं.
नहीं क्या?
हम बहुत दूर निकल आए.
यह हमारी आखिरी रात है.
कभी हम दोबारा मिलेंगे?
शायद नहीं.
क्यों?
कभी तुमने सोचा है?
क्या?
कुछ नहीं.
मेरी ख्वाहिश है.
क्या?
कुछ नहीं.
क्या तुम खुश हो?
हाँ.
क्यों?
कल हम अलग हो जाएँगे. तुम?
मैं क्या?
खुश हो?
हाँ.
जो हुआ, जितना हुआ, ठीक था.
हाँ.
वह सामने क्या है?
कहाँ?
सामने?
कुछ नहीं.
कभी तुमने किसी को सब कुछ बताया है?
नहीं.
बताना चाहा है?
सब कुछ?
हाँ.
नहीं. तुमने?
हाँ.
अगर मैं पूछूँ तो?
क्या?
कुछ नहीं.
क्या बात बताओगी?
क्या?
बताओगी?
क्या?
कुछ नहीं.
मैं कहना यह चाहती थी कि-
क्या?
कुछ नहीं.
तुमने कभी भरपूर नफरत की है?
किससे?
किसी से भी?
नहीं. तुमने?
हाँ.
तुम न जाने किस तरह कह जाती हो.
क्या?
सब कुछ.
सब कुछ नहीं.
तो?
तो क्या?
क्या सोच रहे हो?
कुछ नहीं.
क्या सोच रही हो?
सब कुछ.
क्या?
कुछ नहीं.
कहाँ?
कुछ नहीं.
कुछ नहीं?
कुछ नहीं.
क्यों?
क्या क्यों?
कुछ नहीं.
कैसे नहीं.
क्या?
सब कुछ.
नहीं?
क्या नहीं.
सब कुछ.
नहीं.
क्यों?
क्या?
क्या?
कुछ नहीं.
कुछ भी नहीं.
कुछ भी नहीं.
कहीं भी?
नहीं.
हाँ.
नहीं?
तुम?
मैं क्या?
कुछ नहीं.
मैं?
तुम क्या?
कुछ नहीं.
वह?
वह क्या?
कुछ नहीं.
वे?
वे क्या?
कुछ नहीं.
वापस?
कहाँ?
कहीं नहीं.
क्या सोच रहे हो?
कुछ नहीं.
क्या सोच रही हो?
कुछ नहीं.
क्यों नहीं?
क्या?
कुछ नहीं.