कहानी - बिना बालकनी वाला मकान
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
उस शहर की दीवारें मेरे लिए अजनबी थीं... लोगों के बात करने का लहजा अजीब लगता था...
ए भाई ज़रा बाजू हट के खड़े होने का...
हां क्या मंगता है तेरे को... नवा आएला है क्या...
ये... ये क्या ज़बान है... ये कैसे लोग हैं... हमने तो इस शहर के बारे में जो सपने देख रखे थे... ये वो शहर नहीं लगता था। हर कोई दौड़ रहा है भाग रहा है... लोग चार-चार घंटे ट्रेन में सफर करके आ जा रहे हैं, सो ही इसलिए रहे हैं कि सुबह फिर उठना है...
मुझे मुंबई आए हुए दो हफ्ते हुए थे... अपने छोटे से शहर से निकलकर इस शहर में आना मेरे घर वालों को लगता था कि मैं तरक्की कर रहा हूं... पर ये कैसी तरक्की है जहां अपना घर, अपना शहर, वो जाने पहचाने रास्ते, वो ज़बान, वो फेवरेट रेस्टोरेंट, अपने दोस्त यार... अपनी वो बड़ी सी बालकनी जहां खड़े होकर शाम की चाय पीते हुए दूर तक दिखता था... सब छोड़कर आना पड़े। इत्तिफाक है कि मुझे अब तक हमेशा अपने शहर में ही नौकरी मिली... और अच्छी खासी उम्र वहीं गुज़ार दी... पर अब इतने सालों के बाद मुझे नौकरी मिली थी मुंबई में और दो ही हफ्तों में मेरा मन भर गया था। मैंने मम्मी को फोन किया... (बाकी की कहानी पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें। या अगर आप इसी कहानी को जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनना चाहते हैं तो ठीक नीचे दिए गए SPOTIFY या APPLE PODCAST पर क्लिक करें)
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- मम्मी,
- हां बेटा, कैसे हो... घर की फोटोज़ देखी थीं... छोटी है लेकिन अच्छा है.. अब एक आदमी को कितना बड़ा घर चाहिए... और तुम्हारी मकान मालकिन भी ठीक ही लगीं...
- हां वो सब तो ठीक है मम्मी... मगर... मगर मैं नहीं रहूंगा यहां...
- क्या... क्या हुआ बेटा... कुछ गड़बड़ हुई क्या वहां
- नहीं कोई गड़बड़ नहीं मम्मी... लेकिन मुझे... मुझे अच्छा नहीं लग रहा यहां... अजीब सा शहर है... न कोई दोस्त है.. न कोई रिश्तेदार... खाना भी पसंद नहीं आ रहा मुझे... और घर इतने छोटे-छोटे डिब्बे जैसे हैं... बालकनी भी नहीं है यहां...बस एक खिड़की में जाली लगा देते हैं... मुझे बिल्कुल नहीं अच्छा लग रहा... मैं... बोल दूंगा ऑफिस में... कि या तो लोकेशन वापस वही रखें... या मैं... छोड़ रहा हूं नौकरी... आप सब की बहुत याद आ रही है.
मां थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयीं। फिर बोलीं... देख लो बेटा... नहीं अच्छा लगता है तो कोई नहीं, चले आओ... जैसे तुम्हें अच्छा लगे। कहकर मां ने फोन रख दिया। मैंने अपने उस छोटे से कमरे को एक बार घूम कर देखा... छोटा सा कमरा... किनारे एक बिस्तर... सर से थोड़ी ऊंची छत... एक अलमारी और मेरे दो सूटकेस... जिन्हें मैंने अब तक कमरे में लगाया नहीं था। मैंने गहरी सांस ली और कमरे की एक छोटी सी खिड़की जिस पर जाली कसी थी। उन जालियों से मुंह सटा कर नीचे सड़क पर देखा... नीचे गली गुलज़ार थी... ट्रैफिक में रेंगती गाड़ियां... शोर.. दुकानें... ... मैंने सामने वाली इमारतों को देखा... इस शहर में बालकनी नहीं होती क्या... किसी भी घर में नहीं दिख रही थी... डिब्बे जैसे घर और उनके छोटे-छोटे कमरे की छोटी छोटी खिड़कियों से झांकते लोग...
मैं नहीं रह पाऊंगा भाई... मैंने खुद से बुदबुदाया... और बिस्तर पर बैठ गया। फिर कुछ सोचा और एक सूटकेस खोलकर चादर निकाल कर बिस्तर पर बिछा ली। फिर नज़र सामने वाली खाली अलमारी पर पड़ी... जो पुराने किराएदार छोड़ गए थे शायद... उस कत्थई अलमारी को खोलने पर उसका एक पल्ला एक तरफ से लटक जाता था। मैंने सोचा कि अलमारी में कपड़े सजाने की ज़रुरत क्या है... जब मैं फैसला कर ही चुका हूं कि दो दिन में तो यहां से निकलना है... तो दोबारा अलमारी से कपड़े निकाल कर बैग में रखने की मेहनत क्यों करना.... मैंने अलमारी बंद कर दी...
थोड़ी देर बाद मैंने कपड़े चेंज करने के लिए सूटकेस खोला.. तो एक फाइल नीचे ज़मीन पर सरक गयी... जो मैं अपने साथ लाया था... उसमें मेरे बहुत सारे सार्टिफिकेट्स और दूसरे कागज़ात थे... नज़र गयी तो फाइल के अंदर से एक कागज़ भी सरक कर ज़मीन पर गिर गया था।
मैंने झुक कर वो कागज़ उठाया... और उस हल्की रौशनी वाले कमरे में मेरे चेहरे पर हैरानी चमकने लगी। ये कैसे आ गया.... ये तो ख़त है... शायद गलती से बाकी कागज़ों के साथ आ गया था। उस खत को मैंने हाथ में लिया तो गुज़रे वक्त की कड़वीं यादें शोर करने लगीं। ख़ाली, ख़ामोश घर और ख़ाली लगने लगा। मेरी हथेलियों में कंपन्न था। बंद लिफ़ाफ़ा खोलकर मैंने तय किया हुआ कागज़ निकाला। चार साल पुरानी खुद की लिखावट मुझे घूर रही थी। मैंने कई बार पढ़े जा चुके उस खत को फिर से पढ़ा...
हैलो अंशिका,
जब मैं ये ख़त तुम्हें लिख रहा हूं तो यकीन करो, आंखों में आंसू हैं। कभी नहीं सोचा था कि गुलाबी पन्नों पर तुम्हें बशीर बद्र की शायरी भेजने के बाद, कभी ये वक्त भी आएगा, जब ख़त लिखकर तुमसे कहूंगा कि चलो अलग हो जाते हैं। पर क्या करूं, शायद हम दोनों के लिए अब यही फ़ैसला ठीक है। सोचो, शादी को सिर्फ डेढ़ साल ही हुए और हम कहां आ गए। आज तुम्हें मेरी शक्ल से नफ़रत है और, और ईमानदारी से कहूं तो मुझे भी तुम्हारे करीब अब घुटन होती है। तुम, तुम अब वो अंशिका नहीं रही। वो मस्त-मौला, खुशमिज़ाज अंशिका, जिसके साथ मैं मेट्रो मॉल की ऊपर जाती सीढ़ियों से हंसता-खिलखिलाता नीचे उतरता था, और लोग घूरते थे। शायद मैं भी, अब वो इंसान नहीं, जो थिसिस कंप्लीट करने के बाद तुम्हारी घंटों लैपटॉप पर चलकर थक चुकी उंगलियों को, हौले-हौले चिटकाया करता था। चाय में अदरक से मुझे नफ़रत थी, लेकिन तुम्हारी वजह से अदरक वाली चाय बनाता था। वो सब खो गया है हमारे बीच अंशिका। तुम बेकार कोशिश कर रही हो। अब कोई फायदा नहीं। अब और कोशिश नहीं कर पाऊंगा मैं... यही हमारे रिश्ते का अंत है...
आज सुबह जब किचन की स्लैब पर फिर से चीटियां आने की वजह से, तुम काम वाली आंटी से नमक का पोंछा लगाने को कहा रही थी, मैं सुन रहा था तुम्हें। तुमने कहा कि इस घर में छ महीने तो रहोगी ही, उसके बाद पता नही। मैं इस अनिश्चित्ता में जिंदगी नहीं गुज़ारना चाहता। एक-दूसरे के लिए दोबारा प्यार जगाने की तुम्हारी कोशिश की इज़्ज़त करता हूं लेकिन जब साढ़े तीन साल साथ रहकर, निभा नहीं पाए तो छ महीना और एक-दूसरे को देखकर कुढ़ने से क्या बदल जाएगा। हम साथ नहीं रह पाएंगे अंशिका। कोर्ट में म्यूचुअल डिवोर्स की अर्ज़ी दे रहा हूं। कागज़ात ड्राअर में हैं। साइन कर देना।
तुम्हारा....
नीचे मेरा नाम लिखा था।
उस कागज़ के टुकड़े से लिए मेरे हाथ पसीज गए, माथे पर नमी चमकने लगी। तीन साल पुराने कागज़ पर जल्दबाज़ी में लिखे हर्फों के बीच कितना दर्द, कितनी कड़वाहट थी। भूले-बिसरे आंसू मेरी आंखों के किनारों से झांकने लगे।
(फोन की घंटी बजने की आवाज़)
तभी मेरे फोन की घंटी बजी... देखा तो ... अंशिका का फोन था। ख़त वापस फाइल में रखते हुए कॉल रीसीव की... हैलो... मैंने कहा तो उसकी मुस्कुराती हुई आवाज़ थी।
- अरे क्या हो रहा है हीरो... मम्मी बता रही थीं तुम परेशान हो कुछ...
- हां बस यूं ही कुछ जम नहीं रहा
- अरे जमेगा... थोड़ा वक्त तो दो... अभी दो दिन में ही ऊब गए।
- हम्म... मैंने जवाब में बस इतना कहा... वो आगे बोली... हाह, थक तो मैं भी बहुक गई, बहुत काम था आज ऑफिस में ... तो बताओ पाव भाजी खायी... यार मुझे तो मुंबई बहुत पसंद है... शादी से पहले जब मैं दो साल मुंबई में रही... वो टाइम मेरी लाइफ का बेस्ट था... ख़ैर... यार पता है ... याद तो मुझे भी आ रही है तुम्हारी... बहुत ज़्यादा... हाह पर क्या करें... मजबूरी है... अच्छा एक मिनट कॉल आ रहा ऑफिस से करता हूं
अंशिका का फोन डिस्कनेक्ट हो गया था। पर वो पुराना खत अब तक मेरे हाथ में था। आज मैं शुक्र मना रहा था कि जब मैंने ये खत लिखा था... तो मैंने बहुत सोचने के बाद ये खत अंशिका को नहीं भेजा था। और फैसला किया था कि एक कोशिश और करूंगा... मैंने कोशिश की.... और कोशिश कामयाब हुई। आज मैं और अंशिका न सिर्फ पति-पत्नी हैं... बल्कि बहुत अच्छे दोस्त भी हैं। मैंने दिल से कोशिश की... और रिश्ते को थोड़ा वक्त दिया। आज मैं और अंशिका खुश हैं तो मुझे लगता है कि दुनिया की आधी से ज़्यादा परेशानियां सिर्फ वक्त देने से हल हो जाती हैं... हां, हमारे रिश्ते से मैंने यही सीखा।
मैंने एक गहरी सांस ली और कुछ कदम चलकर मैं कमरे की उसी खिड़की के पास आया... खिड़की से नीचे वली सड़क पर देखा... नीचे एक पाव भाजी की दुकान दिखाई दे रही थी। मैंने एक नज़र शहर को दूर तक देखा और सोचा... इस शहर के साथ अपने रिश्ते को भी थोड़ा वक्त देते हैं। रिश्ते पेड़ की तरह होते हैं.... ज़मीन से उठकर... कच्चे तने से होते हुए, मज़बूत पेड़ बनने में ... वक्त तो लगता है... रिश्तों भी वक्त मांगते हैं... चाहे रिश्ता किसी अपने के साथ हो... या फिर किसी बिना बालकनी के मकानों वाले शहर के साथ... मैंने कपड़े अलमारी में सजा दिये... और फिर मैं नीचे वाली पाव भाजी की दुकान की तरफ चल दिया।
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