शरद जोशी अपने समय के अनूठे व्यंग्यकार थे. उनका जन्म 21 मई, 1931 को उज्जैन में हुआ था. अपने दौर की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर उनकी पैनी निगाह थी, और शब्द मारक. लिहाजा बड़ी साफगोई से उन्होंने अपने शब्दों से उसे कुरेदना शुरू किया. कहते हैं, शरद जोशी पहले व्यंग्य नहीं लिखते थे, लेकिन आलोचना ने उन्हें व्यंग्यकार बना दिया. साल 1968 की बात थी, जब मुंबई में 'चकल्लस' के मंच पर उन्होंने गद्य के रूप में व्यंग्य पढ़ा और किसी कवि से अधिक लोकप्रिय हुए. परसाई के व्यंग्य की कड़वाहट से अलग शरद जोशी के व्यंग्य में हास्य, मनोविनोद और चुटीलापन दिखाई देता है, जो उन्हें जनप्रिय बनाता है.
शरद जोशी के व्यंग्य परिस्थितिजन्य और सामाजिक सरोकार से भरपूर थे. एक बार उन्होंने खुद लिखा था, 'अब जीवन का विश्लेषण करना मुझे अजीब लगता है. बढ़-चढ़ कर यह कहना कि जीवन संघषर्मय रहा. लेखक होने के कारण मैंने दुखी जीवन जीया, कहना फिजूल है. जीवन होता ही संघषर्मय है. किसका नहीं होता? लिखनेवाले का होता है तो क्या अजब होता है.'
शरद जोशी ने 25 साल तक कविता के मंच से गद्य पाठ किया, लेकिन देहरादून के एक कवि सम्मेलन में किसी मसखरे ने कह दिया, ‘शरद तू भांड बन गया है.’ इसके बाद उन्होंने कवि सम्मेलनों में व्यंग्य पाठ करना छोड़ दिया. हालांकि लेखन से उनका नाता ताउम्र बना रहा. उन्होंने लिखा था, ‘'लिखना मेरे लिए जीवन जीने की तरकीब है. इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो, इतने बरस जी लिया. यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है. लेखन मेरा निजी उद्देश्य है.'
शरद जोशी ने टेलीविजन के लिए ‘ये जो है जिंदगी’, 'विक्रम बेताल', 'सिंहासन बत्तीसी', 'वाह जनाब', 'देवी जी', 'प्याले में तूफान', 'दाने अनार के' और 'ये दुनिया गजब की' धारावाहिक लिखे. यही नहीं उन्होंने 'क्षितिज’, 'गोधूलि’, 'उत्सव’, 'उड़ान’, 'चोरनी’, 'साँच को आँच नहीं’, और 'दिल है कि मानता नहीं’ जैसी फिल्मों के संवाद भी लिखे. शरद जोशी की या उनपर दर्जनों पुस्तकें छपीं, जिनमें 'परिक्रमा’; 'किसी बहाने’; 'रहा किनारे बैठ’; 'दूसरी सतह’; 'मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ’; 'यथासम्भव’; 'यत्र-तत्र-सर्वत्र’; 'यथासमय’; 'हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’; प्रतिदिन 3 भागों में; 'नावक के तीर’; 'मुद्रिका रहस्य’; 'झरता नीम शाश्वत थीम’; 'मैं, मैं और केवल मैं’; 'शरद जोशी एक यात्रा’, 'और शरद जोशी', 'जादू की सरकार’; 'पिछले दिनों’; 'दो व्यंग्य नाटक’; 'राग भोपाली’; 'नदी में खड़ा कवि’; 'घाव करे गम्भीर’ शामिल है. उनके दो व्यंग्य नाटक 'अन्धों का हाथी’ और 'एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ’ आज तक चर्चित हैं. 5 सितंबर, 1991 को मुंबई में देश के इस ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार का निधन हुआ.
आज उनकी जयंती पर राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी कृति 'और शरद जोशी' का 'समाजवाद: एक उपयोगी चिमटा' नामक अंश साहित्य आजतक पर पढ़िए. इस पुस्तक की प्रस्तावना ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखी है. पुस्तक के बारे में फ्लैप पर लिखा है, "शरद जोशी जिस समय लिख रहे थे, भारतीय राजनीति समाजवाद की आदर्श ऊँचाइयों और व्यावहारिक राजनीति की स्वार्थी आत्म-प्रेरणाओं के बीच कोई ऐसा रास्ता तलाशने में लगी थी, जिससे वह जनता की हितैषी दिखती हुई व्यवस्था और तंत्र को अपने दलगत और व्यक्तिगत हितों के लिए बिना किसी कटघरे में आए इस्तेमाल करती रह सके, लम्बे संघर्ष के बाद प्राप्त आजादी बहैसियत एक नैतिक प्रेरणा अपनी चमक खोने लगी थी, शासन, प्रशासन और नौकरशाही लोभ और लाभ की अपनी फौरी और निजी जरूरतों के सामने वृहत्तर समाज और देश की अवहेलना करने का साहस जुटाने लगी थी, सड़कें उधड़ने लगी थीं, और लोगों के घरों के सामने महँगी कारों को खड़ा करने के लिए गलियाँ घेरी जाने लगी थीं.
"शरद जोशी ने भारतीय व्यक्ति के मूल सामाजिक चरित्र के विराट को परे सरकाकर आधुनिक व्यावहारिकता के बहाने अपनी निम्नतर कुंठाओं को पालने-पोसने वाले भारतीय व्यक्ति के उद्भव की आहट काफी पहले सुन ली थी. उन्होंने देख लिया था जीप पर सवार होकर खेतों में जो नई इल्लियाँ पहुँचनेवाली हैं वे सिर्फ फसलों को नहीं समूची राष्ट्र-भूमि को खोखला करनेवाली हैं. आज जब हम राजनीतिक और सामाजिक नैतिकता की अपनी बंजर भूमि को विकास नाम के एक खोखले बाँस पर टाँगे एक भूमंडलीकृत संसार के बीचोबीच खड़े हैं, हमें इस पुस्तक में अंकित उन चेतावनियों को एक बार फिर से सुनना चाहिए जो शरद जोशी ने अपनी व्यंग्योक्तियों में व्यक्त की थीं.
पुस्तक अंशः और शरद जोशी
समाजवाद: एक उपयोगी चिमटा
मुख्यमंत्री तीन किस्म के होते हैं : चुने हुए मुख्यमंत्री, रोपे हुए मुख्यमंत्री और तीसरे वे, जो इन दोनों की लड़ाई में बन जाते हैं. चुने हुए मुख्यमंत्रियों की तीन जात होती हैं. एक तो काबिलियत से चुने जाते हैं, दूसरे वे जो गुट, जाति, रुपयों आदि के दम जीतते हैं और तीसरे वे, जो कोई विकल्प न होने की स्थिति में चुन लिये जाते हैं. जैसे एक जमाने में राजा नरेशचन्द्र सिंह हो गए थे. रोपे हुए मुख्यमंत्री दो तरह के होते हैं : एक तो जड़ें जमा लेते हैं, जैसे सिद्धार्थशंकर राय (सच्चाई भगवान जाने) और दूसरे वे, जो उखड़े-उखड़े रहते हैं. रोपे हुए मुख्यमंत्री कोई जरूरी नहीं कि श्रीमती इंदिरा गांधी के ही हों. वे कांग्रेस अध्यक्ष, राजमाता या डी. पी. मिश्रा के द्वारा रोपे गए भी हो सकते हैं. जो भी हो, वे होते रोपे हुए ही हैं. जब तक प्रदेशों की राजनीतिक मिट्टी नरम होती है, हवा आर्द्र, तब तक वे पनपते हैं. मिट्टी के सख्त होते ही, असहनीय रूखी हवा चलते ही वे बेसहारा हो जाते हैं. यह उनकी जड़ों का परीक्षाकाल होता है, दिल्ली द्वारा बुरकी गई खाद की जाँच हो जाती है. नाई, नाई, बाल कितने? समक्ष प्रस्तुत हो जाते हैं.
हर मुख्यमंत्री दो जगह नजरें गड़ाए रहता है: एक प्रशासन पर, दूसरे संगठन पर. वह प्रशासन के सिर चढ़ संगठन पर रौब गालिब करता है ताकि संगठन के सिर पर बैठ प्रशासन में बना रहे. प्रशासन की दो किस्में होती हैं: एक चुस्त प्रशासन, एक ढीला ढाला. वास्तव में ये दोनों एक ही किस्म की होती हैं. मुख्यमंत्री जब आता है तब वह कहता है कि प्रशासन ढीला और गड़बड़ है. जब वह कुछ दिनों मुख्यमंत्री रह लेता है तब वह कहता है कि प्रशासन अब चुस्त और सक्षम है. जब वह जाने लगता है तब सब कहते हैं कि प्रशासन ढीला था, अक्षम था. प्रशासन वही होता है जो होता है, जब वह वाला होता है तब भ्रष्ट होता है. जब चुस्त होता है तब अधिक भ्रष्ट होता है. प्रशासन में चुस्ती की हवा बनाने पर पैसा खानेवाला अफसर अपने रेट बढ़ा देता है क्योंकि वह स्पष्ट कहता है कि प्रशासन चुस्त है, अतः काम कराना कठिन है. अफसर कई किस्म के होते हैं. कुछ बिलकुल नहीं खाते, कुछ बिल्कुल खाते हैं, कुछ कभी-कभी खाते हैं, कुछ स्वयं नहीं खाते, अपने भ्रष्ट मातहतों द्वारा बटोरी रिश्वत से अंश लेते हैं. शासन यही सब होता है जिसके सम्मान की रक्षा करना मुख्यमंत्री अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हैं. संगठन प्रभावित होता है. मगर जब तक होना होता है तब तक होता है. एक दिन वह होना बंद कर देता है.
संगठनवाले प्रशासन को अक्षम, अयोग्य घोषित करने लगते हैं लगते हैं और मुख्यमंत्री की टांग खींचने लगते हैं. प्रशासन तटस्थ दर्शक की मुद्रा अख्तियार कर लेता है. संगठन में कुछ समाजवादी होते हैं, कुछ उनसे ज्यादा समाजवादी होते हैं, शेष उनसे ज्यादा समाजवादी होते हैं. वह जितना ज्यादा असंतुष्ट होता है, वह उतना ज्यादा समाजवादी होता है. अतः हर टक्कर समाजवाद बनाम समाजवाद की टक्कर होती है. जनता समझती है, हमारी इसी में भलाई है. वह अख़बार पढ़ती है.
समाजवाद सबका सहारा है. वह उखड़नेवाले मुख्यमंत्री का अंतिम सहारा है, उखाड़ने की कोशिश करने वालों का वही शस्त्र है. पिछले वर्षों में पदाभिलाषी नेता कुर्सी के लिए लड़ते थे. आजकल बेहतर समाजवादी बेहतर समाजवाद के लिए लड़ते हैं. रोपा हुआ मुख्यमंत्री समाजवाद में स्थायित्व टटोलता है. उखड़ा हुआ मुख्यमंत्री समझता है कि उसके बाद समाजवाद क्यों आने लगा? समाजवाद बहुत किस्म का होता है मगर सारी किस्मों की एक विशेषता होती है कि वह निरन्तर आता रहता है. आते रहने की सूचना समाजवाद की एकमात्र पहचान है. आ रहा है. वह सिनेमा नहीं जो एक दिन वाकई शहर में लग जाए. वह आता रहता है.मुख्यमंत्री, संगठन प्रशासन उसे बुलाते रहते हैं. असली लड़ाई समाजवाद लाने की नहीं, समाजवाद को बुलाते रहने के अधिकार की लड़ाई है. दोनों पक्ष बुलाना चाहते हैं. वामन, बनिया, ठाकुर- सब समाजवाद बुला रहे हैं. कान्यकुब्ज, गैर-कान्यकुब्ज, सभी चाहते हैं कि हम उसे बुलाएँ. घनघोर सद्भावना है.
समाजवाद के कई अर्थ होते हैं: एक राजनीतिक अर्थ होता है, एक प्राइवेट और गुट का अर्थ होता है. शब्द सबका होता है, अपना होता है. यह नारा है, सहारा है, दाँवपेंच है, प्राइवेट कोशिश है. यह पोस्टर है, डंडा है, कीचड़ है. समाजवाद ब्रह्म है या किसी और ब्रह्म की महामाया है. सबसे लिपटा हुआ है. बहुत है, बहुस्वार्थी है. वही जमता है, वही उखड़ता है. वही जाता है, वही खाता है. वही आसान है, वही उखाड़ता है. ओम फटकार है. प्रान्तीय राजनीति के कनकटे जोगी चिमटा लेकर खड़े हो गए हैं. ओम हीं क्लीम समाजवाद जयते. समाजवाद को खतरा है अत: मारो समाजवाद को. वही मार जाएगा जो अमर है. वे चिमटे ले टूट पड़े हैं एक-दूसरे पर.
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पुस्तकः और शरद जोशी
लेखक: शरद जोशी
विधाः व्यंग्य
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः रुपए 250/- पेपरबैक, रुपए 595/-हार्डबाउंड
पृष्ठ संख्याः 240