scorecardresearch
 

कहानी | बड़े भाई साहब | मुंशी प्रेमचंद | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

मैं पतंग के पीछे बेतहाशा दौड़ता चला जा रहा था कि तभी सड़क पर किसी से टकरा गया। चौंक कर देखा तो भैय्या थे। उनकी आंखों में गुस्सा था। मैं समझ गया कि अब मेरी शामत आई। - सुनिए मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी - बड़े भाई साहब 'स्टोरीबॉक्स' में जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से

Advertisement
X
Storybox with Jamshed Qamar Siddiqui
Storybox with Jamshed Qamar Siddiqui

बड़े भाई साहब 
कहानी - मुंशी प्रेमचंद 

Advertisement

मेरे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे थे, लेकिन तीन क्लास आगे थे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढना शुरू किया था जब मैने शुरू किया लेकिन तालीम जैसे अहम मामले में वह जल्दीबाजी से काम लेना पसंद नहीं करते थे। वो बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलिशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। भई बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पाएदार बने। (बाकी की कहानी नीचे पढ़ें)

इसी कहानी को जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनें। नीचे दिए गए SPOTIFY या APPLE PODCAST लिंक पर क्लिक करें

 (बाकी की कहानी यहां से पढ़ें)
मैं छोटा था, वह बडे थे। मेरी उम्र नौ साल कि, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हेंह मेरी देखरेख और निगरानी का पूरा हक था। और मेरी तमीज़ इसी में थी कि मैं उनके हुक्मख को कानून समझूँ। वह मिज़ाज से बडे प़ढ़ाकू थे। हर वक्त किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के किनारे चिडियों, कुत्तोंद, बल्लियो की तस्वीलरें बनाया करते थें। कभी-कभी एक ही नाम या शब्दो या जुमला दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार खूबसूरत लफ्ज़ों में बार-बार लिखते। कभी ऐसी लफ्ज़ लिखते, जिसमें न कोई मतलब होता, न कोई तुक! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत देखी -स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दरअसल, भाई-भाई, राघेश्याम, श्रीयुत राघेश्याम, एक घंटे तक - इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने कोशिश की‍ कि इस पहेली का कोई मतलब निकालूँ लेकिन नाकामयाब ही रहा और उसने पूछने की हिम्मत नहीं हुई। वह नवीं क्लास में थे, मैं पाँचवी में। उनके लिखे को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बडी बात थी। सच कहूं तो मेरा मन पढने में बिल्कुल नहीं लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ लगता था। मौका पाते ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियां उछालता, कभी कागज कि तितलियाँ उडाता और कहीं कोई यार-दोस्त ‍मिल गया तो पूछना ही क्या। कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे है, कभी फाटक को आगे-पीछे चलाते हुए कार के मज़े ले रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर जान सूख जाती थी। उनका पहला सवाल होता - ‘कहां थें?' हमेशा यही सवाल, इसी आवाज़ में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास सिर्फ खामोशी थी। न जाने मुंह से यह बात क्यों नहीं निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरी खामोशी कह देती थी कि मुझे अपना जुर्म कुबूल है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज नहीं था कि गुस्से में मिले हुए शब्दों से मेरा स्वागत करें।

Advertisement


‘इस तरह अंग्रेजी पढोगे, तो जिन्दगीभर पढते रहोगे और एक हर्फ न आएगा। अरे अँगरेजी पढना कोई हंसी-खेल नही है कि जो चाहे पढ ले, नही तो ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंगरेजी पढ़ डालते। यहां रात-दिन आंखे फोडनी पडती है और खून जलाना पडता है, जब कही यह तालीम आती है। और आती क्या  है, हां, कहने को आ जाती है। अरे बडे-बडे आलिम भी अच्छी अंगरेजी नही लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूं, तुम कितने घोंघा हो यार कि मुझे देखकर भी सबक नही लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूं, तुम अपनी आंखो से देखते ही हो, अगर नही देखते, जो यह तुम्हारी आंखो का कसूर है। तुम्हारे दिमाग का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, हैं.... मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है। रोज ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं तो पास भी नही फटकता। इधर देखो... हमेशा पढ़ता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पडा रहता हूं...  फिर तुम कैसे उम्मीद भी करते हो कि तुम यों ही खेल-कूद कर वक्त  गंवाकर पास हो जाओगे? हैं... कोई खेल है। बच्चू मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। समझ रहे हो... अगर तुम्हे इस तरह उम्र गंवानी है तो बेहतर है घर चले जाओ और मज़े से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रूपये क्यों बरबाद करते हो भई?’

मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगते थे। ख़ैर इसका जवाब भी क्या ही था। अपराध तो मैंने किया, गलती मेरी है तो लताड़ कोई और थोड़ी सहेगा? भाई साहब ज्ञान देने कि कला में माहिर थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति -बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकडे-टुकडे हो जाते और हिम्‍मत छूट जाती। इस तरह जान तोडकर मेहनत करने कि ताकत तो मेरे अंदर थी भी नहीं। और इस नाउम्मीदी में मैं जरा देर के लिए सोचने लगता, क्यों न घर वापस लौट जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमे हाथ डालकर क्यों अपनी जिन्दगी खराब करूं। मुझे अपना बेवकूफ रहना मंजूर था लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था। हां लेकिन घंटे–दो घंटे बाद नाउम्मीदी के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब मन लगाकर पढूंगा। फटाफट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा  बनाए, बिना कोई स्कीम तैयार की कि काम कैसे शुरूं करूं? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की मद बिलकुल हटा दी जाती। सुबह सुबह उठना, 6 बजे मुंह-हाथ धो, नाश्ता करके पढने बैठ जाना। 6 से आठ तक इंग्लिश, आठ से नौ तक मैथ्स, नौ से साढे़ नौ तक हिस्ट्री, ‍फिर खाना और स्कूल। साढे तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंण्टा आराम, चार से पांच तक जियोग्राफी, पांच से छ: तक ग्रामर, आघा घंटा होस्टल के सामने टहलना, साढे छ: से सात तक इंग्लिश कम्पोज़ीशन, फिर खाना करके आठ से नौ तक ट्रांसलेशन, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्याराह तक दूसरे सब्जेक्ट्स, फिर आराम। 
मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, और उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अनदेखी शुरू हो जाती। मैदान की वह खुशरंग हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दांव-घात, वाली-बाल की वह तेजी और फुरती मुझे... अनजानी ताकत की तरह खीच ले जाती और वहां जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आंख फोड़ किताबें, किसी की भी याद नहीं रहती और फिर... फिर तो भाई साहब को नसीहत और फजीहत दोनों का मौका मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आंखो से दूर रहने की फिक्र करता। कमरे मे इस तरह दबे पांव आता कि उन्हें खबर न हो। उनकी नजर मेरी तरफ उठी और मेरी जान सूखी। हमेशा सिर पर नंगी तलवार-सी लटकती हुई लगती। फिर भी जैसे मौत और मुसीबत के बीच मे भी आदमी मोह-माया की जकड़ में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियां खाकर भी खेल-कूद की बेअदबी नहीं कर सकता।

Advertisement

लेकिन सालाना इम्तिहान हुआ तो एक बहुत अजीब बात हुई। भाई साहब फेल हो गए और मैं.. मैं पास हो गया। और सिर्फ पास ही नहीं आया बल्कि फर्स्ट आया । मेरे और उनके बीच सिर्फ दो साल का फर्क रह गया। मन में आया कि आज भाई साहब को आडें हाथो लूँ। पूछूं कि आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गई? अरे मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और क्लास में फर्स्ट भी आया। लेकिन वह इतने उदास थे कि मुझे उनसे हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिडकने का ख्याल ही बेशर्मी वाला लगा। हां, अब मुझे अपने ऊपर कुछ फख्र हुआ और कॉनफिडेंस भी बढा। भाई साहब का वैसा रोब अब मुझ पर नहीं रहा। आजादी से खेल–कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने फिर मेरी फजीहत की तो साफ कह दूँगा। आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते क्लास में फर्स्ट भी आ गया। मेरे रंग-ढंग से साफ जाहिर होता था कि भाई साहब का अब वो आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने भी इसे भाँप लिया। एक दिन जब मै गुल्ली-डंडे खेलकर खाने के वक्त लौटा, तो भाई साइब ने मानो तलवार खीच ली और मुझ पर टूट पडे - देखता हूं, अरे इस साल पास हो गए और फस्ट् आ गए तो तुम्हारा दिमाग हो गया है। हैं। अरे भैया घमंड तो बडे-बडे का नही रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है, रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके कैरेक्टर से तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यों ही पढ़ गए? महज इम्तिहान पास कर लेना कोई चीज नहीं। असल चीज है दिमाग का विकास। अरे जो कुछ पढो, उसका मतलब तो समझो कि बस यूं ही कट गए। शैतान के बारे में जानते हो.. हैं... अरे जानते हो कि नहीं... बोलो... उसका क्या हाल हुआ। उसे यह लगता था कि उससे बढ़कर ईश्वर का कोई सच्चा बंदा है ही नहीं। आखिर में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम का नाम सुना है... सुना है? अरे कुछ जानते भी हो... शाहेरूम रोम का राजा था। उसे भी अहंकार हो गया था। आखिर में भीख मांग-मांगकर मरा। तुमने तो अभी केवल एक क्लास पास किया है और अभी से तुम्हारा सिर घूम गया? तो तुम आगे बढ चुके। और हां यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नही पास हुए। अन्धे  के हाथ बटेर लग गई है। मगर बटेर सिर्फ एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी गुल्ली-डंडे में भी अंधी चोट से निशाना सही लग जाता है। लेकिन उससे कोई बहुत बड़ा खिलाड़ी नहीं हो जाता। खिलाड़ी तो वही है... जिसका कोई निशान खाली न जाए। और सुनो... तुम मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे क्लास में आओगे तो दाँतो पसीना आएगा। जब अलजेबरा और जामेंट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और ब्रिटिश इतिहास पढ़ना पड़ेगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ तो हेनरी गुजरे है। कौन-सा कांड किस हेनरी के वक्त हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्बर गायब! सफाचट। ज़ीरो मिलगा, ज़ीरो! हो किस ख्याल में! दर्जनो तो जेम्स हुए हैं, दरजनो विलियम, कौड़ियों चार्ल्स दिमाग चक्कर खाने लगता है। और तो और इन लोगों के तो नाम भी नहीं जुडते। एक ही नाम के पीछे दोयम, तेयम, चहारम, पंचम लगाते चले गए। नाम की कमी थी जैसे.... अरे मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता।

Advertisement

 

पूरी कहानी सुनने के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक करें या फिर SPOTIFY, APPLE PODCAST, GOOGLE PODCAST, JIO-SAAVN, WYNK MUSIC में से जो भी आप के फोन में हो, उसमें सर्च करें STORYBOX WITH JAMSHED 

 

Advertisement
Advertisement