कहानी - एक तवायफ़ का ख़त
कृष्ण चंदर
मुझे उम्मीद है कि इससे पहले आपको किसी तवाइफ़ का ख़त नहीं मिला होगा। ये भी उम्मीद करती हूँ कि कि आज तक आपने मेरी या मेरी तरह की दूसरी औरतों की सूरत भी नहीं देखी होगी। ये भी जानती हूँ कि आपको मेरा ये ख़त लिखना किस क़दर नापसंद होगा और वो भी ऐसा खुला ख़त मगर क्या करूँ हालात कुछ ऐसे हैं कि मैं ये ख़त लिखे बग़ैर नहीं रह सकती। ये ख़त मैं नहीं लिख रही हूँ, ये ख़त मुझसे बेला और बतूल लिखवा रही हैं। मैं अपने दिल के सदके में आपसे माफ़ी चाहती हूँ, अगर मेरे ख़त में कोई फ़िक़रा आपको बुरा लगे तो उसे मेरी मजबूरी समझिएगा। (बाकी कहानी नीचे पढ़ें )
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बेला और बतूल मुझसे ये ख़त क्यों लिखवा रही हैं। ये दोनों लड़कियां कौन हैं और वो क्यों ये ख़त लिखवाना चाहती हैं - ये सब बताने से पहले मैं आपको अपने मुताल्लिक कुछ बताना चाहती हूँ, घबराइए नहीं। मैं आपको अपनी घिनवनी ज़िंदगी की इतिहास से आगाह नहीं करना चाहती। मैं ये भी नहीं बताऊंगी कि मैं कब और किन हालात में तवाइफ़ बनी। मैं किसी शरीफ़ाना जज़्बे का सहारा लेकर आपसे किसी झूटे रहम की दरख़्वास्त करने नहीं आई हूँ। मैं आपके दर्द मंद दिल को पहचान कर अपनी सफ़ाई में झूठी कहानी नहीं घड़ना चाहती। इस ख़त के लिखने का मतलब ये नहीं है कि आपको तवाइफ़ीयत के की ज़िंदगी से आगाह करूँ, मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कहना है। मैं तो सिर्फ़ अपने मुताल्लिक़ चंद ऐसी बातें बताना चाहती हूँ जिनका आगे चल कर बेला और बतूल की ज़िंदगी पर असर पड़ सकता है।
आप लोग कई बार बंबई आए होंगे जिन्ना साहिब ने तो बंबई को बहुत देखा हो मगर आपने हमारा बाज़ार काहे को देखा होगा। जिस बाज़ार में मैं रहती हूँ वो फ़ारस रोड कहलाता है। फ़ारस रोड, ग्रांट रोड और मदनपुरा के बीच में वाक़े है। ग्रांट रोड के इस पार लेमिंग्टन रोड और ओपर हाऊस और चौपाटी मैरीन ड्राईवर और फोर्ट के इलाक़े हैं जहां बंबई के शरीफ लोग रहते हैं। मदनपुरा में इस तरफ़ ग़रीबों की बस्ती है। फ़ारस रोड इन दोनों के बीच में है ताकि अमीर और ग़रीब दोनों इससे फायदा उठा सकें, मुस्तफ़ीद हो सकें। गौर फ़ारस रोड फिर भी मदनपुरा के ज़्यादा क़रीब है क्योंकि नादारी में और तवाइफ़ीयत में हमेशा बहुत कम फ़ासला रहता है। ये बाज़ार बहुत ख़ूबसूरत नहीं है, इसके रहने वाले भी ख़ूबसूरत नहीं। बाज़ार के बीचों-बीच ट्राम की गड़गड़ाहट शब-ओ-रोज़ जारी रहती है। जहां भर के आवारा कुत्ते और लौंडे और शुह्दे और बेकार और क्रिमिनल्स उसकी गलियों का तवाफ़ करते नज़र आती है। लंगड़े, लूले, लोफ़र, बीमार, कोकीन बाज़ और जेब कतरे इस बाज़ार में सीना तान कर चलते हैं। ग़लीज़ होटल, सीले हुए फ़ुटपाथ पर मैले के ढेरों पर भिनभिनाती हुई लाखों मक्खियां लकड़ियों और कोयलों के अफ़्सुर्दा गोदाम, पेशेवर दलाल और बासी हार बेचने वाले और नंगी तस्वीरों के दुकानदार चीन हज्जाम और इस्लामी हज्जाम और लंगोटे कस कर गालियां बकने वाले पहलवान, हमारी समाजी ज़िंदगी का सारा कूड़ा करकट आपको फ़ारस रोड पर मिलता है। ज़ाहिर है आप यहां क्यों आएँगे। कोई शरीफ़ आदमी इधर का रुख नहीं करता, शरीफ़ आदमी जितने हैं वो ग्रांट रोड के उस पार रहते हैं और जो बहुत ही शरीफ़ हैं वो मालबार हिल पर रहते हैं। में एक-बार जिन्ना साहिब की कोठी के सामने से गुज़री थी और वहां मैंने झुक कर सलाम भी किया था, बतूल भी मेरे साथ थी। जिन्ना साहब, बतूल को आपसे जिस क़दर अक़ीदत, वो आपको जितना मानती है - मैं बयान भी नहीं कर सकती। ख़ुदा और रसूल के बाद दुनिया में अगर वो किसी को चाहती हो तो सिर्फ़ वो आप हैं। उसने आपको तस्वीर लॉकेट में लगा कर अपने सीने से लगा रखी हो। किसी बुरी नीयत से नहीं। बतूल की उम्र अभी ग्यारह बरस की है, छोटी सी लड़की ही तो है वो। ये और बात है कि फ़ारस रोड वाले अभी से उसके बारे में बुरे-बुरे इरादे कर रहे हैं मगर ख़ैर वो कभी भी आपको बताऊंगी। तो ये है फ़ारस रोड जहां मैं रहती हूँ, फ़ारस रोड के मग़रिबी सिरे पर जहां चीनी हज्जाम की दुकान है उसके क़रीब एक अँधेरी गली के मोड़ पर मेरी दुकान है। लोग तो उसे दुकान नहीं कहते, मगर ख़ैर आप तो सब समझते हैं आपसे क्या छुपाऊंगी। यही कहूँगी कि वहां पर मेरी दुकान है और वहां पर मैं इस तरह कारोबार करती हूँ जिस तरह कोई सब्ज़ी वाला, फल वाला, होटल वाला, मोटर वाला, सिनेमा वाला, कपड़े वाला या कोई और दूकानदार करता है और हर कारोबार में ग्राहक को ख़ुश करने के इलावा अपने फायदे की भी सोचता है। मेरा कारोबार भी इसी तरह का है, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि मैं ब्लैक मार्किट नहीं करती और मुझमें और दूसरे व्योपारियों में कोई फ़र्क़ नहीं। ये दूकान अच्छी जगह पर नहीं है। यहां रात तो रात, दिन में भी लोग ठोकर खा जाते हैं। इस अँधेरी गली में लोग अपनी जेबें ख़ाली कर के जाते हैं। शराब पी कर जाते हैं। जहां भर की गालियां बकते हैं। यहां बात बात पर छुराज़नी होती है वो एक ख़ून दूसरे तीसरे रोज़ होते रहते हैं। ग़रज़-कि हर वक़्त जान खतरे में रहती है और फिर मैं कोई अच्छी तवाइफ़ नहीं हूँ कि पवइ जा के रहूं या वर्ली पर समुंदर के किनारे एक कोठी ले सकूं। मैं एक बहुत ही मामूली दर्जे की तवाइफ़ हूँ और अगर मैंने सारा हिन्दोस्तान देखा है और घाट घाट का पानी पिया है और हर तरह के लोगों की सोहबत में बैठी हूँ लेकिन अब दस साल से इसी शहर बंबई में, इसी फ़ारस रोड पर, इसी दुकान में बैठी हूँ और अब तो मुझे इस दुकान की पगड़ी भी छः हज़ार रुपये तक मिलती है। हालाँकि ये जगह कोई इतनी अच्छी नहीं। फ़िज़ा में बदबू आती है, कीचड़ चारों तरफ़ फैली हुई है। गंदगी के अंबार लगे हुए हैं और ख़ारिश-ज़दा कुत्ते घबराए हुए ग्राहकों की तरफ़ काट खाने को लपकते हैं फिर भी मुझे इस जगह की पगड़ी छः हज़ार रुपये तक मिलती है। इस जगह मेरी दुकान एक मंज़िला मकान में है। इसके दो कमरे हैं। सामने का कमरा मेरी बैठक है। यहां मैं गाती हूँ, नाचती हूँ, ग्राहकों को रिझाती हूँ, पीछे का कमरा, बावर्चीख़ाने और ग़ुस्लख़ाने और सोने के कमरे का काम देता है। यहां एक तरफ़ नल है। एक तरफ़ हंडिया है और एक तरफ़ एक बड़ा सा पलंग है और इसके नीचे एक और छोटा सा पलंग है और इसके नीचे मेरे कपड़ों के संदूक़ हैं, बाहर वाले कमरे में बिजली की रोशनी है लेकिन अंदर वाले कमरे में बिल्कुल अंधेरा है। मालिक मकान ने बरसों से रंगाई नहीं कराई और न वो कराएगा। इतनी फ़ुर्सत किसे है। मैं तो रात-भर नाचती हूँ, गाती हूँ और दिन को वहीं गाव तकिए पर सर टेक कर सो जाती हूँ, बेला और बतूल को पीछे का कमरा दे रखा है। अक्सर ग्राहक जब उधर मुँह धोने के लिए जाते हैं तो बेला और बतूल फटी फटी निगाहों से उन्हें देखने लग जाती हैं जो कुछ उनकी निगाहें कहती हैं। मेरा ये ख़त भी वही कहता है। अगर वो मेरे पास इस वक़्त न होतीं तो ये गुनाहगार बंदी आपकी ख़िदमत में ये गुस्ताख़ी न करती, जानती हूँ दुनिया मुझ पर थू थू करेगी, शायद आप तक मेरा ये ख़त कभी पहुँचेगा भी नहीं। फिर भी मजबूर हूँ, इसलिए ये ख़त लिख के रहूंगी क्योंकि बेला और बतूल की मर्ज़ी भी यही है।
शायद आप क़यास लगा रहे हों कि बेला और बतूल मेरी लड़कियां हैं। नहीं, ये ग़लत है। मेरी कोई लड़की नहीं है। इन दोनों लड़कियों को मैंने बाज़ार से ख़रीदा है। जिन दिनों हिंदू-मुस्लिम फ़साद ज़ोरों पर था, और ग्रांट रोड, और फ़ारस रोड और मदन पुरा पर इन्सानी ख़ून पानी की तरह बहाया जा रहा था। उन दिनों मैंने बेला को एक मुसलमान दलाल से तीन सौ रुपये में ख़रीदा था। ये मुसलमान दलाल उस लड़की को दिल्ली से लाया था जहां बेला के माँ बाप रहते थे। बेला के माँ बाप रावलपिंडी में राजा बाज़ार के पुंछ हाऊस के सामने की गली में रहते थे, मुतावस्सित तबके का घराना था, मिडिल क्लास लोग थे, शराफ़त और सादगी घुट्टी में पड़ी थी। बेला अपने माँ-बाप की इकलौती बेटी थी और जब रावलपिंडी में मुसलमानों ने हिंदूओं पर ज़ु्लम करना शुरू किया उस वक़्त चौथी जमात में पढ़ती थी। ये बारह जुलाई का वाक़िया है। बेला अपने स्कूल से पढ़ कर घर आ रही थी कि उसने अपने घर के सामने और दूसरे हिंदुओं के घरों के सामने एक हुजूम देखा, लोग ही लोग थे। ये लोग हथियारबंद थे और घरों को आग लगा रहे थे और लोगों को और उनके बच्चों को और उनकी औरतों को घर से बाहर निकाल कर उन्हें क़त्ल कर रहे थे। साथ साथ अल्लाहु-अकबर का नारा भी बुलंद करते जाते थे। बेला ने अपनी आँखों से अपने बाप को क़त्ल होते हुए देखा। फिर उसने अपनी आँखों से अपनी माँ को दम तोड़ते हुए देखा। वह्शियों ने उसकी छातियां काट कर फेंक दी थीं। वो छातियां जिनसे एक माँ, कोई माँ, हिंदू माँ या मुसलमान माँ, ईसाई माँ या यहूदी माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती है और इन्सानों की ज़िंदगी में कायनात की वुसअत में तख़लीक़ का एक नया बाब खोलती है। वो दूध भरी छातियां अल्लाहु-अकबर के नारों के साथ काट डाली गई। किसी ने तख़्लीक़ के साथ इतना ज़ुल्म किया था। किसी ज़ालिम अंधेरे ने उनकी रूहों में ये स्याही भर दी थी। मैंने क़ुरआन पढ़ा है और मैं जानती हूँ कि रावलपिंडी में बेला के माँ-बाप के साथ जो कुछ हुआ वो इस्लाम नहीं था वो इन्सानियत न थी, वो दुश्मनी भी न थी, वो इंतिक़ाल भी न था, वो एक ऐसी सआदत, बेरहमी, बुज़दिली और शैतानियत थी जो तारीख़ के सीने से फूटती है और नूर की आख़िरी किरन को भी दाग़दार कर जाती है। बेला अब मेरे पास है। मुझसे पहले वो दाढ़ी वाले मुसलमान दलाल के पास थी, बेला की उम्र बारह साल से ज़्यादा नहीं थी, जब वो चौथी में पढ़ती थी। अपने घर में होती तो आज पाँचवीं में दाख़िल हो रही होती। फिर बड़ी होती तो उसके माँ बाप उसकी शादी किसी शरीफ़ घराने के ग़रीब से लड़के से कर देते, वो अपना छोटा सा घर बसाती, अपने शौहर से, अपने नन्हे-नन्हे बच्चों से, अपनी घरेलू ज़िंदगी की छोटी-छोटी ख़ुशियों से। लेकिन उस नाज़ुक कली को बे वक़्त ख़िज़ां आ गई, अब बेला बारह बरस की नहीं मालूम होती। उस की उम्र थोड़ी है लेकिन उसकी ज़िंदगी बहुत बड़ी है। उसकी आँखों में जो डर है, इन्सानियत की जो तल्ख़ी है या उसका जो लहू है मौत की जो प्यास है, क़ाइद-ए-आज़म साहिब शायद अगर आप उसे देख सकें तो उसका अंदाज़ा कर सकें। उन बे-आसरा आँखों की गहराइयों में उतर सकें। आप तो शरीफ़ आदमी हैं। आपने शरीफ़ घराने की मासूम लड़कियों को देखा होगा, हिंदू लड़कियों को, मुसलमान लड़कियों को, शायद आप समझ जाते कि मासूमियत का कोई मज़हब नहीं होता, वो सारी इन्सानियत की अमानत है। जो उसे मिटाता उसे दुनिया के किसी मज़हब का कोई ख़ुदा माफ़ नहीं कर सकता। बतूल और बेला सगी बहनें नहीं हैं लेकिन वो सगी बहनों की तरह मेरे पास रहती हैं। बतूल मुसलमान लड़की है। बेला ने हिंदू घर में जन्म लिया। आज दोनों फ़ारस रोड पर एक रंडी के घर में बैठी हैं।
अगर बेला रावलपिंडी से आई है तो बतूल जालंधर के एक गांव खेम करन के एक पठान की बेटी है। बतूल के बाप की सात बेटियां थीं, तीन शादीशुदा और चार कुंवारियां, बतूल का बाप खेम करन में एक मामूली किसान था। ग़रीब पठान लेकिन ग़यूर पठान जो वहां आ के बस गया था। जाटों के इस गांव में यही तीन चार घर पठानों के थे, और वो लोग वहां कैसे रहते थे शायद उसका अंदाज़ा नेहरू जी आपको इस से होगा कि मुसलमान होने पर भी उन लोगों को अपने गांव में मस्जिद बनाने की इजाज़त न थी। ये लोग घर में चुपचाप नमाज़ अदा करते, सदियों से जब से महाराजा रणजीत सिंह ने हुकूमत संभाली थी किसी मुसलमान ने उस गांव में अज़ान नहीं दी थी। बतूल अपने बाप की चहेती लड़की थी। सातों में सबसे छोटी, सबसे प्यारी, सबसे हसीन, बतूल इस क़दर हसीन है कि हाथ लगाने से मैली होती है, पंडित जी आप तो ख़ुद कश्मीरी-उल-नस्ल हैं और फ़नकार हो कर ये भी जानते हैं कि ख़ूबसूरती किसे कहते हैं। ये ख़ूबसूरती आज मेरी गंदगी के ढेर में गड-मड हो कर इस तरह पड़ी है कि इसका परख करने वाला कोई शरीफ़ आदमी अब मुश्किल से मिलेगा, इस गंदगी में गले सड़े दाढ़ी, घुन, मूंछों वाले ठेकेदार, नापाक निगाहों वाले बाज़ारी ही नज़र आते हैं। बतूल बिल्कुल अनपढ़ है। उसने सिर्फ़ जिन्ना साहिब का नाम सुना था, पाकिस्तान को एक अच्छा तमाशा समझ कर उसके नारे लगाए थे। जैसे तीन चार बरस के नन्हे बच्चे घर में 'इन्क़िलाब ज़िंदाबाद', करते फिरते हैं, ग्यारह बरस ही की तो वो है। अनपढ़ बतूल, वो चंद दिन ही हुए मेरे पास आई है। एक हिंदू दलाल उसे मेरे पास लाया था। मैंने उसे पाँच सौ रुपये में ख़रीद लिया। इससे पहले वो कहाँ थी, ये मैं नहीं कह सकती। हाँ लेडी डाक्टर ने मुझसे बहुत कुछ कहा है कि अगर आप उसे सुन लें तो शायद पागल हो जाएं। बतूल भी अब नीम पागल है। उसके बाप को जाटों ने इस बेदर्दी से मारा है कि हिंदू तहज़ीब के पिछले छः हज़ार बरस के छिलके उतर गए हैं और इन्सानी बरबरीयत अपने वहशी नंगे रूप में सब के सामने आ गई है। पहले तो जाटों ने उसकी आँखें निकाल लीं। फिर उसके मुँह में पेशाब किया, फिर उसके हलक़ को चीर कर उसकी ये आँतें तक निकाल डालीं। फिर उसकी शादीशुदा बेटीयों से ज़बरदस्ती मुँह काला किया। उसी वक़्त उनके बाप की लाश के सामने, रिहाना, गुल दरख़्शां, मरजाना, सोहन, बेगम, एक एक कर के वहशी इन्सान ने…. जिसने उन्हें ज़िंदगी अता की, जिसने उन्हें लोरियाँ सुनाई थीं, जिसने उनके सामने शर्म और इज्ज़ से और पाकीज़गी से सर झुका दिया था। उन तमाम बहनों, बहुओं और माओं के साथ ज़िना किया। धर्म ने उस दिन अपनी इज़्ज़त खोदी थी, अपनी रवादारी तबाह कर दी थी, अपनी अज़मत मिटा डाली थी, आज रिग वेद का हर मंत्र ख़ामोश था। आज ग्रंथ साहिब का हर दोहा शर्मिंदा था। आज गीता का हरा श्लोक ज़ख़्मी था। कौन है जो मेरे सामने अजंता की मुसव्विरी का नाम ले सकता है। अशोक के कत्बे सुना सकता है, एलोरा के सनमज़ादों के गुन गा सकता है। बतूल के बेबस भिंचे हुए होंटों, उसकी बाँहों पर वहशी दरिंदों के दाँतों के निशान और उसकी भरी हुई टांगों की नाहमवारी में तुम्हारी अजंता की मौत है। तुम्हारे एलोरा का जनाज़ा है। तुम्हारी तहज़ीब का कफ़न है। आओ आओ मैं तुम्हें इस ख़ूबसूरती को दिखाऊँ जो कभी बतूल थी। उस बदबू मारती लाश को दिखाऊँ जो आज बतूल है। (To be continued...)
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