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कहानी | चचाजान का कुत्ता | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद कमर सिद्दीक़ी

उनके सीज़र से इतना प्यार था कि अगर कोई दौड़ा-दौड़ा उनके घर आए और कहे कि फायर ब्रिगेड को फोन करना है तो भी वो पहले उसे अपने प्यारे कुत्ते का एल्बम दिखाएंगे उसके बाद ही फोन छूने देंगे। सुनिए मुश्ताक अहमद युसूफ़ी की किताब ज़रगुज़िश्त से एक मज़मून स्टोरीबॉक्स में

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Storybox with Jamshed Qamar Siddiqui
Storybox with Jamshed Qamar Siddiqui

कहानी - चचाजान का कुत्ता सीज़र

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ये कुत्ता जिसका वज़न खुराक और ग़ुस्सा मुझसे दोगुना था... मेरा अंग्रेज़ बॉस जाते वक्त मुझे दे गया था। इसे लेकर घर पहुंचा तो बेगम ने कहा, हाय अल्लाह.. ये हाथी कुत्ता काहे को ले आये। मैंने कहा चौकीदारी के लिए। बोली, किस चीज़ की? मैंने कहा, घर की.. बोलीं - इस घर की?  मैंने कहा, बहुत ही होशियार कुत्ता है। घर में कुछ न हो, तब भी चौकीदारी कर लेता है।

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हमें एक मुद्दत से एक कुत्ता पालने की आरज़ू थी... मगर मेरे दोस्त मिर्ज़ा कहते हैं कि अच्छी नस्ल के कुत्ते बहुत मंहगे होते हैं और दूसरा उस ज़माने में हमारा मकान इतना तंग था कि उस घर में जानवर का तनदरुस्त रहना मोहाल था। वो तो खुदा भला करे शेख खैरुद्दीन साहब का जो हमारे पड़ोसी थे, इनके पास एक कुत्ता था। ख़ालिस ग्रे हाउड जिसे वो पड़ोसियों का खून पिला-पिला कर पालते थे। दहने रसा रखता था जिस्म ततैया जैसे और मिज़ाज़ सख्त... यूं तो भौकंने के तमाम पैरामीटर्स में उस्तादाना महारत रखता था लेकिन रात के वक्त खुले आसमान के नीचे, अगर चांदनी फैली हो तो हर बार कुछ ऐसी ओरिजनल धुन में रोता कि तबियत को हर बार एक नई कोफ्त हासिल होती थी। कहने वाले कहते थे कि शेख ख़ैरुद्दीन साहब अपने खानदान के बुज़ुर्गों के बारे में भले ना जाने लेकिन अपने कुत्ते की कई पंद्रह पुश्तों के हसब नसब फर्र-फर्र सुनाते थे। औऱ उस पर इस तरह फख्र करते जैसे उनका खालिस खून उस कुत्ते की नसों में दौड़ रहा हो। मोहल्ले में मशहूर था कि खौरुद्दीन साहब के यहां कोई घबराया घबराया फायर ब्रिगेड को फोन करने भी चला जाए तो वो उसे अपने गुज़र चुके कुत्तों की एल्बम दिखाए बगैर फोन को हाथ नहीं लगाने देते थे। ड्राइंगरूम में खैरुद्दीन साहब की एक बड़ी सी तस्वीर भी टंगी थी जिसमें उन्होंने अपने कुत्ते के जीते हुए कप और ट्राफियों के साथ खड़े होकर औऱ कुत्ते के तमगे अपने कोट पर लगाकर फोटो खिचवाए थे। एक रोज़ जब हम उनके घर उनकी तबियत पूछने चले गए तो उन्होंने इधर उधर की बातें की और फिर अपने कुत्ते के मरहूम वालिद की आवाज़ जो उन्होने रिकॉर्ड कर रखी थी, वो मुझे सुनाने लगे। कहने लगे देखिए, आवाज़ काफी मिलती है कि नहीं। मैं कमरे में गूंजती भौकने की आवाज़ सुन रहा था और उनकी आंखों से आंसू गिर रहे थे... हमें भी उनकी हालत देखकर रोना आ ही गया। कुत्ता पालने की हसरत का इज़हार हमनें अपने दोस्त मिर्ज़ा के सामने किया लेकिन वो कुत्ते का नाम आते ही काटने को दौड़ते हैं। कहते हैं हटाओ भी, वाहियात जानवर है, बिल्कुल बेमसरफ। कहने लगे कि कुत्ते दुनिया में सिर्फ इसलिए आए ताकि पतरस बुखारी उन पर एक लजावाब मज़मून लिख सके। और ये मकसद तो एक अर्सा पहले पूरा हो गया। अब इस नस्ल को ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं है। 

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हमारे अंगेज़ अफसर ने जाने से पहले हमसे पूछा कि तुम चाहो तो मेरा कुत्ता बातौर यादगार रख लो। इमपोर्टेड अलसेशियन है, तेरह महीने का। सीज़र कहकर पुकारो तो दुम हिलाता हुआ आता है। आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि उस अंग्रेज़ अफसर के पास यूं तो मेरे जैसे आम आदमी के हिसाब से ललचाहट के क्या क्या सामान थे लेकिन बतौर ए यादगार कुत्ता ही सबसे सही तोहफा था... इससे बेहतर कोई यादगार नहीं हो सकती थी क्योंकि जब भी वो भौंकेगा अफसर की याद ताज़ा हो जाएगी। फिर ये कि एलसेशियन है, इम्पोरटेड भी - तो कभी हम उसको कभी अपने घर को देखते हैं। अफसर की मेहरबानी से हमें इतनी खुशी हुई कि अगर मेरी दुम होती तो फिर ऐसी हिलती कि फिर न थमती। हमारे पड़ोसी मिस्टर खिरजी बैरिस्टर के पास एक इम्पोर्टड ग्रेट डेन कुतिया थी.. जिसे अगर कुतिया कह दीजिए तो वो इसे अपनी ज़ाती बेइज़्ज़ती महसूस करते थे- फीमेल कहते थे। किसी ज़माने में उसके लिजलिजे कान हर वक्त लटके रहते थे लेकिन उन्होंने शहर के मशहूर सर्जन से सर्जरी करा के अलसेशियन की तरह खड़े करवा दिए। रंग हल्का ब्राउन जैसे मीठी आंच पर सिका हुआ टोस्ट। 

चाल जैसे हुकूमतों की पॉलिसी पीछे मुड मुड़ के देखती हुई। खुशसोहबती के चर्चे गली गली में थे। लेकिन ज़हानत छू कर नहीं गयी थी। ज़हानत से मतलब इनके शौहर का है। बकौल मिर्ज़ा बिल्कुल गधी थी... कहते थे कि अक्सर बाज़ारी कुतियों के पिल्ले आ कर चुसर चुसर उसके दूध का आखिरी कतरा पी जाते थे और उसके अपने बच्चे दुम हिलाते प्लास्टिक की हड्डियां चबाते रह जाते। मगर इमान की बात ये है कि चौकीदारी के लिए वो बुरी नहीं थी। अपनी इज़्ज़त आबरू के आलावा हर चीज़ की हिफ़ाज़त कर सकती थी। 

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तो ख़ैर, अंग्रेज़ अफसर ने जो कुत्ता हमें दिया यानि सीज़र,  वो हर ऐतबार से हमारी उम्मीदों से बढ़कर निकला। उसके डीलडौल का सरसरा अदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हमारे पुराने दोस्त काज़ी अब्दुल कुद्दूस की सालिम रान उसके मुंह में आ जाती थी। मिर्ज़ा उसे देखकर एक बार मुझसे बोले कि - कुत्ते की तंदुरुस्ती और नस्ल अगर मालिक से बेहतर हो तो वो मालिक आंखे मिलाकर डांट भी नहीं सकता। फिर ये तो ग़ैर मामूली तौर पर खूखार नज़र आ रहा है। मैंने कहा यार मिर्ज़ा तुम तो बेवजह डरते हो कुत्ते से.. बोले... जो शख्स कुत्ते से भी न डरे मुझे उसकी वल्दियत पर भी शक है। मैने कहा कि मिर्ज़ा कुत्ता अगर खूंखार न हो तो उसे पालने से फायदा क्या है... फिर आदमी बकरी ही न पाल ले। बोले, हां ये तो ठीक है, बकरी कुत्ते से बेहतर है, जब चाहे काट के खा जाओ। 

बहसा बहसी में हम दोनों पटरी से उतर गए। लिहाज़ा काज़ी अब्दुल कुद्दूस ने बीच में पड़कर इस राय पर बहस खत्म की - कि कुत्ते में से अगर जबड़ा निकाल दिया जाए तो खासा माकूल जानवर है। काज़ी साहब ने कुछ गलत नहीं कहा था कि छोटा कुत्ता पालना चाहिए ताकि उसे पालतू बनाया जा सके, बड़ा कुत्ता बड़ी मुश्किल से सधाया जाता है। फिर नया घर, नए चेहरे, नई खुशबू ..... नतीजा ये कि पहली रात सीज़र न खुद सोया, न हमें सोने दिया। रातभर एक सांस में मुंह ज़बानी भौंकता रहा। दूसरी रात भी वहशत का यही आलम रहा। हां मगर चौबिस घंटे की ट्रेनिग से इतना फर्क ज़रूर पड़ा कि फजिर के वक्त मेरी आंख लग गयी तो मुंह चाट चाट कर नींद भगा दी। तीसरे रतजगे से पहले हमने उसे नींद की एक गोली दी.. कोई फर्क नहीं पड़ा। अगली रात - दो दीं। लेकिन साहब क्या मजाल कि ज़रा चुप हो जाए। आखिरकार मिर्ज़ा को फोन किया तो उन्होंने कहा कि तीन गोली तुम खुद खा लो। हमने ऐसा ही किया... उस रात वो बिलकुल नहीं भौंका। लेकिन हैरत इस बात पर हुई कि सुबह दस बजे हमारे पड़ोसी ख्वाजा शमसुद्दीन ने शिकायत की रात को आपका कुत्ता मेरे घर की तरफ मुंह करके खूब भौंका। और हियरिंग ऐड यानि सुनने की मशीन अपने कान में लगाते हुए बोले कि देखिए इस वक्त भी भौंक रहा है। उनके चौकीदार की ज़बानी मालूम हुआ कि वो रात भर। अपनी हियरिंग ऐड लगा कर सुनते हैं कि हमारा कुत्ता भौंक रहा है या सो गया। वो ये कहते भी सुने गए कि सीज़र शरीफ़ों का कुत्ता मालूम नहीं होता। उधर उनकी बीवी का आलम ये कि सीज़र झूठमूठ भी दरवाज़े से झांक ले तो हाथ भर का घूंघट निकाल लेतीं। तीन हफ्ते बाद देखा कि फिर मुंह खोले हमारे घर की तरफ आ रहे हैं। हमने जोश से सलाम किया तो सीज़र की तरफ इशारा करके बोले , देखिए इस सुअर के बच्चे ने क्या किया। मिर्ज़ा ने कहा, मुंह संभाल कर बात कीजिए वो कुत्ते का बच्चा है। इस बातचीत के बाद हमें भी गुस्सा आ गया, हम भी कुछ सख्त बात कहने वाले थे, कि तबी मिर्ज़ा ने, जो उस वक्त हमारे साथ लूडो खेल रहे थे, हमें कोहनी मार कर अपनी छज्जेदार भवें हिलाकर ख्वाजा शमसुद्दीन की बाईं टांग की तरफ इशारा किया.. जिस पर पैंट घुटने तक फटी हुई थी। कनखियो से देखा, तो ज़ख्म वाकई इतना लंबा था कि ज़िप लगाकर बंद किया जा सकता था। नदामत और इंसानी हमदर्दी के लिहाज़ से हमने पूछा - ओह्हो... क्या कुत्ता ने काटा है... बोले नहीं, मैंने खुद ही काट लिया है। 

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मिर्ज़ा प्रोफेसर अब्दुल कुद्दूस मिर्जा को तरह तरह से समझाने लगे कि कुत्ता अपने जैसा अकेला जानवर है.. कुत्ते के सिवा और कोई जानवर, पेट भरने के बाद खाना देने वाले का शुक्र अदा नहीं करता। अच्छा ग़ौर कीजिए कि दुम वाले जानवरों में कुत्ता ही तन्हा ऐसा जानवर है जो अपनी दुम को खुशी और गम को ज़ाहिर करने के लिए इस्तेमाल करता है। बाकी जानवर अपनी पूछ से सिर्फ मक्खियां ही हिलाते हैं, और दुंबा तो ये भी नहीं कर सकता। इसकी दुम सिर्फ खाने के काम आती है। अलबत्ता बैल की दुम को मरोड़े तो एक्सिलिरेटर का काम देती है। मिर्ज़ा कहते हैं कि हाय एक फ्रांस की राइटर क्या खूब कह गयी हैं कि मैं आदमी को जितने करीब से देखती हूं उतने ही कुत्ते अच्छे लगने लगते हैं। 

जिस दिन हमारे बच्चे जिस दिन तोते का जोड़ा खरीद कर लाए तो काज़ी अब्दुल कुद्दूस साहब से पूछा कि चचा इनमें से नर कौन सा है और मादा कौन सा। चचा ने चार पांच मिनट तक सवाल और जोड़े को उलट पुलट कर देखा और फिर बोले, बेटा ये बहुत तोताचश्मी जानवर होता है। अभी दो तीन महीने और देखो। दोनों में से जो पहले अंडे देना शुरु कर दे, वहीं मादा है। ख़ैर ये तो फिर भी लाइल्मी समझ कर माफ किया जा सकता है क्योंकि तोता अपनी मादा को इंसान की बनस्पित ज़्यादा आसानी से पहचान लेता है। एक दिन उन्होंने कहा उन्हें उनके बालिश भर के पिल्ले से बहुत फायदा पहुंच रहा है। मिर्ज़ा ने कहा, ज़रा खुल कर बताइये। बोले, अब तुम से क्या पर्दा। कुत्ते को रोज़ गोश्त चाहिए। और ये कुत्ता पालने के बाद हमने गौर किया कि पहले हमारे घर में रोज़ गोश्त नहीं पकता था। और हम बनास्पित ज़िंदगी बसर कर रहे थे। और ये भी कि हमारे घर से सामने से गुज़रने वाले लदधड़ से लदधड़ पड़ोसी की चाल में एक अजीब सा चौकन्नापन एक अजीब सी चुस्ती आ जाती है। 

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सीज़र मिनटों का फासला, लम्हों में पार करवा देता है। औरों का क्या ज़िक्र खुद ख्वाजा शमसुद्दीन जो लो ब्लड प्रेशर के पुराने मरीज़ थे। हमारे पड़ोस में आने के बाद तीन महीने में ही उनका ब्ल्ड प्रेशर बढ़कर नॉर्मल हो गया। बल्कि नार्मल से भी थोड़ा ऊपर हो गया था। सीज़र ही के दम खम से ऐसी बेफिक्री रही कि कभी ताला लगाने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। वो एक समझदार कुत्ते के सारे फर्ज़ अदा करता रहा, जिससे वफ़ा की खुश्बू आती थी। यही नहीं कि वो नाश्ते के वक्त मुंह में अखबार दबा कर लाता बल्कि महीने की पहली तारीख पर आखबार वाला जब बिल लेकर आता तो उस पर भौंकता भी था। और हां, बात सिर्फ मुंह में सिर्फ अखबार लाने की नहीं थी, वो तो कहिए कि हमने मना कर दिया वरना ब्रेड टोस्ट भी यूं ही लाने वाला था। खाने पर दोनों वक्त पर हमारी कोहनी से लगा बैठा और हमेशा की तरह हम पांच लुकमों के बाद एक लुकमा उसे भी डाल देते। अगर वो कोई एक निवाला सूंघ कर छोड़ देता तो हम समझ जाते कि हो न हो खाना बासी है। गरज़ की बहुत ही ज़हीन और ख़िदमती थी। वक्त गुज़रता हुआ दिखाई तो नहीं देता लेकिन हर चेहरे पर एक दास्तान लिख जाता है। नादान बच्चों की वो पहली खेप... जिनहोंने सीज़र के ज़रिए अंग्रेज़ी सीखी वो माशाल्लाह इतने सियानी हो गए कि उर्दू अशार का सही मतलब समझ कर शर्माने के काबिल हो गयी थी। सीज़र  भी रफ्ता रफ्ता खानदान ही का एक हिस्सा बन गया था, लिहाज़ा अब कोई इसका नोटिस नहीं लेता था। हमारे देखते देखते वो बूढ़ा हो गया और साथ ही साथ उसके लिए रफाकत और हमसफरी का एक एहसास, दर्दमंदी और हमनसीबी का एक रिश्ता पैदा हो चला था। क्योंकि हमने एक दूसरे को बूढ़ा होते देखा था। एक साथ वक्त से हार मानी थी। आज उसकी एक एक बात याद आ रही थी। जवान था तो पंजे झाड़ कर राह चलतों का ऐसा पीछा करता कि वो घिघिया कर किसी भी घर में घुस जाते थे और बेआबरू हो कर निकाले जाते थे। वो ताक में रहता और निकलते ही फिर उनकी गर्दन और मुंह को हर दफा ऐसे भंभोड़ता जैसे कि जानवर नहीं, किसी अंग्रेज़ी फिल्म का नदीदा हीरो है जो हिरोइन को प्यार कर रहा है। ये मिर्ज़ा के अल्फाज़ है कि अंग्रेज़ी फिल्मों में लोग इस तरह प्यार करते हैं जैसे तुकमी आम चूस रहे हों।

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