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कहानी | उल्लू का पट्ठा | सआदत हसन मंटो | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

क़ासिम पागल नहीं था, वो होशमंद आदमी था पर ये अजीब सी ख़्वाहिश उसके दिल में चिंगारी की तरह भड़क रही थी कि वो जल्दी से किसी को 'उल्लू का पट्ठा' कह दे। लेकिन क्यों? किसलिए? ये नहीं पता था। बस दिल से आवाज़ निकल रही थी कि किसी से कोई ग़लती हो और वो फ़टाक से उसे 'उल्लू का पट्ठा' कह दे। क्या क़ासिम किसी को कह पाया उल्लू का पट्टा? - सुनिए सआदत हसन मंटो की कहानी - स्टोरीबॉक्स में

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कहानी - उल्लू का पट्ठा 
राइटर - सआदत हसन मंटो

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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। अभी वो गुसलखाने तक पहुंचा भी नहीं था.... कि तभी बरामदे के पास वो अचानत ठहर गया। उसके दिल में एक अजीब सी ख़्वाहिश पैदा हुई। ख्वाहिश ये कि वो किसी को भी एक बार यूं ही बस उल्लु का पट्ठा कहे। अजीब बात थी, उसे भी अजीब लगी। लेकिन ख्वाहिश तो अंदर से आती हैं, तो बस आ गयी। उसका दिल कह रहा था कि बस सिर्फ़ एक बार ग़ुस्से में या मज़ाकिया अंदाज़ में किसी को उल्लू का पट्ठा कह दे। बस ... (बाकी की कहानी पढने के लिए नीचे स्क्रॉल करें, या फिर यहां दिए गए लिंक पर क्लिक कर के यही कहानी ऑडियो में सुनें) 

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(कहानी यहां से पढें) क़ासिम के दिल में इससे पहले कई बार बड़ी बड़ी अनोखी ख्वाहिशें पैदा हो चुकी थीं मगर ये ख़्वाहिश सबसे निराली थी। वो बहुत ख़ुश था। रात उसको बड़ी प्यारी नींद आई थी। वो ख़ुद को बहुत तर-ओ-ताज़ा महसूस कर रहा था। लेकिन फिर ये ख़्वाहिश कैसे उसके दिल में दाख़िल हो गई। दाँत साफ़ करते वक़्त उसने ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त लगाया, मसूड़े छिल गए। असल में वो सोचता रहा कि ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश क्यों पैदा हुई। मगर वो किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।  

 

बीवी से वो बहुत ख़ुश था। उनमें कभी लड़ाई न हुई थी, नौकरों पर भी वो नाराज़ नहीं था। इस लिए कि ग़ुलाम मुहम्मद और नबी बख़्श दोनों ख़ामोशी से काम करने वाले ईमानदार नौकर थे। मौसम भी ठीक ठाक था। फरवरी के सुहाने दिन थे, ताज़गी थी। हवा ख़ुनक और हल्की। दिन छोटे, न रातें लंबी। नेचर का बैलेंस बिल्कुल ठीक था और क़ासिम की सेहत भी अच्छी थी। समझ में नहीं आता था कि किसी को बग़ैर वजह के उल्लू का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश उसके दिल में क्यों पैदा हो गई।  क़ासिम ने अपनी ज़िंदगी के अट्ठाईस बरसों में कई लोगों को उल्लु का पट्ठा कहा होगा और बहुत मुम्किन है कि इससे भी कड़े लफ़्ज़ उसने खास मौक़ों पर इस्तेमाल किए हों और गंदी गालियां भी दी हों मगर उसे अच्छी तरह याद था कि ऐसे मौक़ों पर ख़्वाहिश बहुत पहले उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी मगर अब अचानक तौर पर उसने महसूस किया था कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहना चाहता है और ये ख़्वाहिश धीरे-धीरे तेज़ होती गई जैसे उस ने अगर किसी को उल्लू का पट्ठा न कहा तो बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।  

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क़ासिम फिलॉसफर टाइप आदमी था। वो हर बात पर ग़ौर करने वाला था। आईना मेज़ पर रख कर वह आराम कुर्सी पर बैठ गया और ठंडे दिमाग़ से सोचने लगा। मान लिया कि मेरा किसी को उल्लू का पट्ठा कहने को जी चाहता है, मगर ये कोई बात तो न हुई... मैं किसी को उल्लु का पट्ठा क्यों कहूं? मैं किसी से नाराज़ भी तो नहीं हूँ।  सोचते सोचते उसकी नज़र सामने दरवाज़े के बीच में रखे हुए हुक्क़े पर पड़ी। अचानक उसके दिल में आया – “अजीब वाहियात नौकर है। हैं ... देखो... दरवाज़े के बिल्कुल बीच में ये हुक़्क़ा टिका दिया है। अरे... में अभी इस दरवाज़े से अंदर आया हूँ, अगर ठोकर से चिलिम गिर पड़ती तो आग लग सकती थी, क़ालीन भी...  उसके जी में आई कि ग़ुलाम मुहम्मद को आवाज़ दे। जब वो भागा हुआ उसके सामने आ जाए तो वो भरे हुए हुक़्क़े की तरफ़ इशारा करके उससे सिर्फ़ इतना कहे, “तुम निरे उल्लु के पट्ठे हो क्या।” लेकिन उसने थोड़ा वक्त लिया और सोचा, “यूं बिगड़ना अच्छा नहीं लगता। अगर ग़ुलाम मुहम्मद को अब बुला कर उल्लु का पट्ठा कह भी दिया तो वो बात पैदा न होगी और फिर... और फिर उस बेचारे का कोई क़ुसूर भी तो नहीं है। मैं दरवाज़े के पास बैठ कर ही तो हर रोज़ हुक्क़ा पीता हूँ।”  

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 लिहाज़ा वो ख़ुशी जो एक लम्हे के लिए क़ासिम के दिल में पैदा हुई थी कि उसने उल्लु का पट्ठा कहने के लिए एक अच्छा मौक़ा तलाश कर लिया, ग़ायब हो गई। दफ़्तर के वक़्त में अभी काफ़ी देर थी। पूरे दो घंटे पड़े थे, दरवाज़े के पास कुर्सी रख कर क़ासिम अपने मामूल के मुताबिक़ बैठ गया और हुक़्क़ा पीने लगा। कुछ देर तक वो सोच-बिचार किए बग़ैर हुक़्क़े का धुआं पीता रहा और धुंए को देखता रहा। लेकिन जैसी ही वो हुक़्क़े को छोड़कर कपड़े बदलने के लिए साथ वाले कमरे में गया तो उसके दिल में फिर वही ख़्वाहिश पैदा होने लगी। क़ासिम घबरा गया। भई हद हो गई... उल्लु का पट्ठा... मैं किसी को उल्लु का पट्ठा क्यों कहूं और और मान लो मैंने किसी को कह भी दिया तो क्या होगा? क़ासिम दिल ही दिल में हंसा भी। उसका दिमाग नहीं खराब था। उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये ख़्वाहिश जो उसके दिल में पैदा हुई है बिल्कुल बेहूदा और बे सिर पैर की है लेकिन वो करे तो क्या करे... जितना इस ख्वाहिश को दबाता था वो उतना और उभरती थी।  

क़ासिम अपने बारे में ये बात जानता था कि वो बिला वजह किसी को उल्लु का पट्ठा न कहेगा। चाहे जो हो जाए। लेकिन इसी उधेड़बुन में पैंट के ज़िप की जगह लगे हुए बटन बंद करते वक़्त ऊपर का बटन नीचे के काज में लगा लिया तो वो झल्ला उठा – ये क्या पागलपन है उल्लु का पट्ठा कहो... उल्लु का पट्ठा कहो और ये पैंट के सारे बटन मुझे फिर से बंद करने पड़ेंगे। कपड़े पहन कर वो मेज़ पर आ बैठा। उसकी बीवी ने चाय बना कर प्याली उसके सामने रख दी और टोस्ट पर मक्खन लगाना शुरू कर दिया। रोज़ाना की तरह हर चीज़ ठीक ठाक थी, टोस्ट अच्छे सेंके हुए थे, डबल रोटी भी बढ़िया थी। ख़मीर में ख़ुशबू आ रही थी। मक्खन भी साफ़ था, चाय की केतली बेदाग़ थी। उसके हैंडल के एक कोने पर क़ासिम हर रोज़ मैल देखा करता था। मगर आज वो धब्बा भी नहीं था।  

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 उसने चाय का एक घूँट पिया। उसकी तबीयत ख़ुश हो गई। ख़ालिस दार्जिलिंग की चाय थी। जिस की महक पानी में भी बरक़रार थी। दूध की क्वांटिटी भी सही थी। क़ासिम ने ख़ुश हो कर अपनी बीवी से कहा, “आज चाय का रंग बहुत ही प्यारा है और बड़े सलीके से बनाई लगती है।” बीवी तारीफ़ सुन कर ख़ुश हुई, लेकिन फिर उसने मुँह बना कर स्टाइल से कहा, “हाँ भई। आज इत्तिफ़ाक़ से अच्छी बन गई है वर्ना रोज़ तो आपको नीम घोल के पिलाई जाती है... मुझे सलीक़ा कहाँ आता है,. सलीक़े वालियां तो वो मुई होटल की छोकरियां हैं जिनके आप हर वक़्त गुन गाया करते हैं।”  तक़रीर सुनकर क़ासिम की तबीयत कड़वी हो गई। एक लम्हा के लिए उसके जी में आई कि चाय की प्याली मेज़ पर उलट दे और वो नीम जो उसने अपने बच्चे की फुंसियां धोने के लिए ग़ुलाम मुहम्मद से मंगवाई थी उसे घोल कर पी ले, मगर उसने सब्र से काम लिया। फिर सामने वाले ताक पर जहां नीम के पत्ते धूप में सूख रहे थे, उन्हें देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “ अच्छा देखो, आज नीम के पानी से बच्चे की टांगें ज़रूर धो देना। नीम ज़ख़्मों के लिए बड़ी अच्छी होती है और देखो, तुम मौसंबियों का रस ज़रूर पिया करो... मैं दफ़्तर से लौटते हुए और ले आऊँगा। ये रस तुम्हारी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है।”  

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बीवी पिघल गयी, मुस्कुराकर बोली, “आपको तो बस हर वक़्त मेरी ही सेहत का ख़याल रहता है। अच्छी भली तो हूँ, खाती हूँ, पीती हूँ, दौड़ती हूँ, भागती हूँ। मैंने जो आपके लिए बादाम मंगवा के रखे हैं, भई आज दस बीस आपकी जेब में डाले बग़ैर नहीं रहूंगी, लेकिन सुनिए दफ़्तर में कहीं बांट न दीजिएगा।”  क़ासिम ख़ुश हो गया कि चलो मौसंबियों के रस और बादामों ने उसकी बीवी के झूठमूठ के ग़ुस्से को दूर कर दिया और ये मसला हल हो गया। चाय पीकर उसने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगायी और उठ कर दफ़्तर जाने की तैयारी करने ही वाला था कि अचानक फिर रुक गया। दिल के अंदर से आवाज़ आई – किसी को उल्लू का पट्ठा तो बोलो... बोलो... बोलते क्यों नहीं 


अरे यार .कासिम का दिमाग खराब होने लगा। ये क्या चल रहा है। पर इस बार उसने सोचा, “अगर मैं किसी को उल्लु का पट्ठा कह दूं तो हर्ज भी क्या है। अपने होठों से धीरे से कह दूं, उल्लु... का... पट्ठा... तो शायद ये जो अंदर से बार बार आवाज़ आ रही है ये खामोश हो जाए।” वो चलने लगा कि तभी उसे दिखा कि कमरे में, बैठने की जगह बच्चे का कमोड रखा है, जिसमें बच्चा पॉटी करता है। अब ये तो सख़्त बदतमीज़ी थी और खासकर उस वक़्त जब कि वो नाश्ता कर चुका था और ख़ुशबूदार कुरकुरे तोस और तले हुए अंडों का ज़ायक़ा अभी तक उसके मुँह में था। उसने ज़ोर से आवाज़ दी, “ग़ुलाम मुहम्मद।”  क़ासिम की बीवी जो अभी तक नाश्ता कर रही थी बोली, “ग़ुलाम मुहम्मद बाहर गोश्त लेने गया है... क्या हुआ..  कोई काम?”  

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बोल दे.... गुलाम मोहम्मद उल्लू का पट्ठा है... बोल दे... बोलता क्यों नहीं... कासिम के मन से आवाज़ आने लगी। वो हक्का बक्का आवाज़ सुनने लगा।  

क्या हुआ... कुछ कह रहे थे... गुलाम मुहम्मद को – बीवी की आवाज़ गूंजी.. तो कासिम चौंक गया। बीवी के सामने इस तरह गाली गलौज ठीक बात तो नहीं है। बोला, “आ... नहीं, कुछ नहीं वो... वो... मैं उससे ये कहना चाहता था कि दफ़्तर में मेरा खाना डेढ़ बजे ले आया करे... तुम्हें खाना जल्दी भेजना पड़ता होगा... क्यों तकलीफ़ देना भई..” ये कहते हुए उसने बीवी की तरफ़ देखा। इस बार बीवी के चेहरे पर खुशी नहीं, गुस्सा था। कासिम ने गौर से देखा कि बीवी नीचे देख रही थी उस सिगरेट को, जो अभी बोलते बोलते कासिम के हाथ से फिसल कर कालीन पर गिर गयी थी और कालीन बस जलने ही वाला था।  

अरे... ये ... ओह... पता नहीं कैसे गिर गयी... कहते हुए कासिम ने जल्दी से सिगरेट उठाई 

क़ासिम ने जल्दी से सिगरेट का टुकड़ा उठा कर ग़ुसलख़ाने में रखी ऐशट्रे में फेंक दिया। और बाथरूम अंदर से बंद कर लिया। दरवाज़े से लगकर सोचा। शुक्र है मैंने नौकर को उल्लू का पट्ठा नहीं कहा, क्योंकि उससे बड़ी गलती तो मेरी थी। बीवी के सामने शर्मिंदा होना पड़ता।  

अरे क्या हुआ अब... अंदर क्या कर रहे हो भई... बाथरूम का दरवाज़ा खटखटाते हुए बीवी की आवाज़ अंदर आई।  

क़ासिम चौंक पड़ा, “कुछ नहीं... कुछ नहीं... दफ़्तर का वक़्त हो गया क्या? आ रहा हूं” कहते हुए उसने बाथरूम की चिटकनी पकड़कर नीचे खींची पर तभी ढीली चिटकनी का एक पेंच निकल कर ज़मीन पर गिरा। और ठीक उसी वक्त दिल से फिर वही आवाज़ आई.... बोल दे शमीम को उल्लू का पट्ठा, जो दरवाज़ा ठीक करने के चालीस रुपए ले गया था। बोल दे... उसको उल्लू का पट्ठा.. अभी बोल दे...  

वही ख़्वाहिश ज़हन में तड़पने लगी। पर उसने किसी तरह काबू किया। फिर सोचा कि क्यों न बीवी को बता दे कि एक अजीब सी ख्वाहिश उसके ज़हन में सुबह से शोर कर रही है। पर सोचा कि कहां फिर बीवी उसे पागल न समझे। ऐसे किसी ठीक ठाक दिमाग वाले के साथ तो नहीं होता। और ये भी तो हो सकता है कि वो ये सुनकर मेरे ऊपर खूब हसें। नई भई, जग हसाईं नहीं करवानी। कोई बात उसके पेट में रुकती है नहीं। शाम तक अपनी सारी बहनों, भाइयों, सब को बता देगी। नहीं नहीं ये ठीक नहीं है। मज़ाक नहीं बनवाना।  

कासिम बाहर निकला तो बीवी ने बच्चे का कमोड उठा कर कोने में रख दिया था बोली, “आज सुबह आपके बरखु़र्दार ने इतना तंग किया है कि अल्लाह की पनाह... बड़ी मुश्किलों से, मैंने उसे कमोड पर बिठाया वरना उसकी मर्ज़ी तो यही थी कि वो बिस्तर ख़राब करे, आख़िर लड़का किसका है? ”  

कासिम एक मिनट के लिए चौंका... तो... तो वो कमोड तुमने वहां रखी थी।  

बोली, हां और क्या करती...वो तो...
नहीं नहीं मैं समझ गया... ठीक किया तुमने... और बच्चे तो करते ही हैं... लेकिन... अब ख़ैर... चलो मैं निकलता हूं। ख्याल रखना.. खुदा हाफिज़ 

कहते हुए कासिम निकल गए और रास्ते भर यही सोचते रहे कि चलो अच्छा हुआ नौकर को कमोड वहां रखने के लिए गाली नहीं दी, वरना बेकार जाती। गलती उसकी थी ही नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ और वैसे भी वो आवाज़ बड़ी देर से तो नहीं आई।  

 कासिम कश्मीरी गेट से निकल कर निकल्सन पार्क के पास से गुज़र रहा था तो उसे एक दाढ़ी वाला आदमी नज़र आया। एक हाथ में खुली हुई शलवार थामे वो दूसरे हाथ से इस्तिंजा कर रहा था। आस पास से लोग शर्मिंदा नज़रें लिए गुज़र रहे थे। लहीम शहीम दाढ़ी वाला आदमी शलवार खोले यूं ही खड़ा था।  

अब तो बोल दे उल्लू का पट्ठा इसको...  

अंदर से तेज़ आवाज़ आई। कासिम ने अचानक ठहर गया। उसने चौंक के देखा... कि ये आवाज़ सिर्फ उसी को आई या बाकी सबको भी।  बोल दे उस आदमी को... बोल उसे उल्लू का पट्ठा.... कासिम ने इस बार कोशिश भी की... पूरी ताकत समेटी... उल्लू कहने के लिए होंठ गोल किए। पर तभी उसने सोचा....  

लेकिन यार मैं इस फुटपाथ पर जा रहा हूँ और वो दूसरे फुटपाथ पर, अगर मैंने बुलंद आवाज़ में भी उसको उल्लु का पट्ठा कहा तो वो चौंकेगा नहीं। इसलिए कि वो कमबख़्त अपने काम में बहुत बुरी तरह बिज़ी है... बड़े डूब के पेशाब कर रहा है... तौबा तौबा.. और इस तरह मेरी आवाज़ बाकी सब लोग सुनेंगे,,, बस वही नहीं, जिसे मैं कहूंगा। और ये कोई शरीफ आदत नहीं की बीच सड़क पर दर्जनों लोगों के सामने गाली दी जाए... शरीफाना अंदाज़ तो यही है कि उसे कायदे से समझाया जाए कि भाईसाहब... देखिए... एक बात अर्ज़ करना चाहता था.. बुरा मत मानियेगा लेकिन आप उल्लु के पट्ठे हैं...  

कासिम ने दूर से चिल्ला कर गाली देने का इरादा छोड़ दिया। पर ठीक इसी वक्त सड़क पर उसके पीछे से एक साईकल नमूदार हुई। कॉलिज की एक लड़की उस पर सवार थी। पीछे बस्ता बंधा था। आनन फ़ानन उस लड़की की साड़ी फ़्री व्हील के दाँतों में फंसी, लड़की ने घबरा कर अगले पहिए का ब्रेक दबाया। एक दम साईकल बेक़ाबू हुई और एक झटके के साथ लड़की साईकल समेत सड़क पर गिर पड़ी।  

 क़ासिम ने आगे बढ़ कर लड़की को उठाने में देर नहीं की।  

अरे अरे संभाल कर... ओह हो... हो... लगी तो नही ... कहते हुए कासिम उसकी तरफ दौड़ा। लड़की सड़क पर गिरी हुई थी। साइकिल उसके पैर पर थी। कासिम ने जल्दी से साइकिल को उठाया... और उसके कपड़े का एक कोना जो चेन में फंसा था उसे बाहर निकाला।  

आप को चोट तो नहीं लगी... उठिये
हाथ छोड़िये... पीछे हटिये.... लड़की अचानक चिल्लाई एक से बढ़ कर एक हैं... इतनी बड़ी साइकल नहीं दिख रही है... तब से घंटी बजा रही हूं... कि हटो हटो... लेकिन ये आदमी... ख़ड़ा बीचो बीच में... और उस पैजामा पकड़े आदमी को निहारे जा रहे हैं....  

देखिए आप गलत समझ रही है... वो मैं असल में 
हटिये रास्ते से... कहते हुए वो ज़रा सा आगे बढ़ी और बोली... उल्लू का पट्ठा 

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