
विकर्ष आज धारा की भावनाओं पर खेल गया था. आज उसने उसे सघन पीड़ा पहुंचाने की ठान रखी थी. हफ्ता होने को चला था. दोनों के बीच बात नहीं हुई थी. आमना-सामना होता तो भी नजरें समानान्तर नहीं होतीं, आड़े-तिरछे, बचते-बचाते, दोनों एक दूसरे से निकल जाते. विकर्ष ने आज उसी पैंट को पहना था जिसके रेशे बुनाई की मजबूत पकड़ छोड़ धीरे-धीरे अपना स्वतंत्र वजूद तलाश रहे थे.
आज विकर्ष ने हिंसा की थी. यूं तो धारा और विकर्ष दोनों ही बुद्ध की अहिंसा में विश्वास करते थे. लेकिन इस बार टकराव हो चुका था. मानव स्वभाव भी कल्पना से परे है. प्रेम की क्यारी में नफरत का कंटीला पौधा जब पनपता है तो वो आसानी से सूखता ही नहीं.
विकर्ष अपने दायरे में कुछ करना चाहता था. जिससे धारा को पीड़ा पहुंचे. उसका दिल उसे कचोटे. परंतु वो अपना गुबार निकाले कैसे? हां, ये एक उपाय था. विकर्ष को अपने वार के लिए हथियार मिल गया. मानसिक हिंसा...ये एक ऐसा विकल्प था जिस पर उसने गौर नहीं किया था. ये आदमी अपनी बनाई हुई दुर्जनता की सीमा में घुसपैठ किए बिना कुछ ऐसा करना चाहता था जो धारा को उसके व्यक्तित्व को लेकर हैरान कर दे.
आज आलमारी से उसने क्रीम कलर की 'वो' पैंट निकाली. खद्दर सा कपड़ा. सिलवटों से भरा, तुड़ा-मुड़ा, ढीला-ढाला, जमीन बुहारता हुआ. न तो इसकी लुक धारा को पंसद और न ही फील. अन्य दिनों में अगर विकर्ष इसे पहन ले तो धारा आसमान सिर पर उठा लेती.
'तुम्हारी जिंदगी में रंग नहीं है क्या? भैया जी लगते हो...कब सुधरोगे. तु्म्हें पर्सनैलिटी सिखाई नहीं गई थी क्या? अगर मेरे साथ चलना है तो चेंज इट नाउ'. लेक्चर का एक सिलसिला ही शुरू हो जाता था.
न जाने क्या-क्या सुना बैठती थी वो. इमेज कॉन्सस धारा विकर्ष के एपीयरेंस को लेकर बेहद टची थी. दरअसल धारा की इस खीज में भावनाओं का एक बीज छिपा था. अत्यंत गहरा, जो कभी विकर्ष को एक कंपलीट मैन के रूप में देखना चाहता था. धारा इसमें कहीं Glitch नहीं देखना चाहती थी. वो दिन थे, जब धारा के ये ताने उसकी रुटीन की जिंदगी में स्पार्क भर देते. उस वक्त वह मचल उठता, यह अधिकार का भाव उसे संपूर्ण कर देता था.
मगर आज तो विकर्ष ने रेखा खींच दी थी. कपड़े पहन उसे संतुष्टि हुई. बदले की भावना ने उसका आत्मविश्वास बढ़ा दिया. कमरे में पलंग पर वह बैठ गया. उसका मन धारा की प्रतिक्रिया के दृश्य रचने-बिगाड़ने लगा.
खिड़की के परदे ज्यों ही हवा से सरके, धारा की नजरें कमरे में आ रहे हल्के प्रकाश से बन रही छाया को स्कैन कर गई. उसने विकर्ष का वो अपीयरेंस देख लिया. उसका हृदय क्षण भर में कई बार छलांग मार गया. धक! धक!! धक!!! यूं लगा मुंह से बाहर आ जाएगा.
उसके दिमाग ने तुरंत कैलकुलेशन किया. तो आज तरकश से इन्होंने ये तीर निकाला है. धारा को तेज गुस्सा आया, वह लगभग पैर पटकते हुए कमरे में आई.
विकर्ष समझ गया, उसकी हिंसा घाव कर गई थी. उसके मन ने कुछ भावनाएं चुराई और तुरंत नकाब पहना. चेहरे पर भाव तो विक्टिम के थे, लेकिन दिल में तरंगें हिलोरें ले रही थी. धारा की पीड़ा उसके अहम को सहला रही थी. वह वैसे ही बैठा रहा. उसी नकाब को पहने. धारा पिघलती रही. क्षोभ और क्षुधा से.
हठात धारा को अपने कपड़ों का ध्यान आया. ओह्हो...उसने आज वो साड़ी पहनी थी जिसके लिए विकर्ष को कई दफे चिरौरी करनी पड़ती थी. किंतु वो उसके प्रपोजल को कैसे सख्ती से रिजेक्ट कर देती. कड़क टीचर की तरह. फिर विकर्ष जो मुंह लटकाता और धारा पूरे पहर इस टीस को एन्ज्वॉय करती. ये फ्रिक्शन ही तो कभी इस लाइफ का stimulus हुआ करता था.
लेकिन आज विकर्ष ने रूल तोड़ दिया था. उसने वहीं वार किया था जहां धारा कमजोर पड़ी थी. झगड़े का छठा दिन था. धारा की जिंदगी में कुछ-कुछ ऐसा खाली स्पेस तैयार हो रहा था, जहां मानो ऑक्सीजन है ही नहीं. वो सोचती कैसा बब्बल है ये? कसता ही जा रहा है. कैसे निकलें? वो चिढ़ने लगी थी. कभी खुद की जिद से तो कभी माहौल के unease से. इसी पसोपेश में उसने आज ये उसकी फेवरिट साड़ी पहनी थी. उम्मीदों को थोड़ा उधार लेकर. लेकिन उधारी की इन उम्मीदों से रिश्तों के व्यवसाय में कोई लाभ न हुआ. मूलधन तो बरकरार ही रहा, ब्याज और भी चढ़ गया.
विकर्ष अपना वार चल चुका था. उसका मानसिक हिंसा का शस्त्र सफल रहा. धारा दिन भर चटकती-टूटती रही. जब भी उसका सामना विकर्ष से होता ऐसा लगता वो अपने नाखून से टाइल्स की चिकनी सतह कुरेद देगी.
खैर...धारा इस व्यक्ति की व्यूह रचना समझ गई थी. वह तमकते हुए तेजी से कमरे से बाहर निकली. 'तो इस तरह आघात किया जा रहा है. ये मर्द और जीतने की ये साजिशें...' धारा ने गुस्से में सोचा और जोर से दांत पीसने लगी. फिर वह दूर चली आई. इस उतावलेपन में वह क्या-क्या नहीं सोच रही थी? क्यों न अपनी मड़ैया खुद सजाई जाए. चली जाए कुछ चुनौतियों को तलाशने. केमिस्ट्री की एम-एससी फर्स्ट क्लास लड़की के लिए बाजार में कुछ तो विकल्प होगा. उसके दिमाग में रसायन तेजी से प्रतिक्रिया कर रहे थे. मगर ऐसा समीकरण बन ही नहीं रहा था जो बैलेंस हो. कभी भावनाओं के अणु प्रधान हो जाते, तो कभी व्यावहारिकता का फैक्टर संतुलन खराब कर देता. सवा बारह से ढाई बजे गए. खाना नहीं खाया उसने. भूख ने उसके मस्तिष्क के तंतुओं को और भी सक्रिय कर दिया.
छोड़ेगी नहीं उसे वह. उसे धारा की अदालत में सजा मिलेगी, 'दिस मैन नीड्स टू बी प्रोस्क्यूटेड'. उसने वो डायरी निकाली जहां वो अपने गुनहगारों को सजा दिया करती थी. पापा, बॉस, निर्वाण, शैली, परांजपे और अब विकर्ष. धारा इन्हीं लोगों द्वारा रोकी गई थी जीवन में. इंटर्नशिप पीरियड के वक्त मिला बॉस, कॉलेज लैब के परांजपे सर, रूम मेट शैली और ब्वॉय फ्रेंड निर्वाण. धारा ने सबकी चार्जशीट तैयार की थी. डैड की बात किसी से शेयर नहीं करेगी वो. बस रहने दीजिए.
धारा ने पन्ने पलटे तो उसे स्याही वाली कलम डायरी के बीच कहीं दिखाई दी, निब सूख चुकी थी. ये शैली का चैप्टर था. शैली सार्थक, पीआर की एस्पायरिंग एक्जीक्यूटिव. उसे सजा हो चुकी थी. शैली सार्थक जब मुझसे बराबरी करते-करते तुम पस्त हो गई तो तुम...मुझसे नफरत करके रिलैक्स होने लगी थी.
उसने दरवाजा बंद किया, लाइट स्वीच ऑफ किया. परदे सरकाए तो अंधेरा कमरे का सारा प्रकाश सोख गया. ये डबडबाता सा माहौल उसे अच्छा लग रहा था. अब परदों के बीच से रोशनी की एक मोटी लकीर बेड पर पड़ रही थी. धारा बिस्तर पर पड़ गई.
उसने पेन के प्वाइंट को डायरी के पिछले पेज पर रगड़ा, ताजा-ताजा काली स्याही सफेद पन्ने पर निशान छोड़ने लगी थी.
विकर्ष मोहिते प्रकाश, माय हज्बैंड...एक नए पन्ने पर उसने कलम चला दी. फिर धारा जो टूटी...मानों नदी जहां-तहां, जैसे-तैसे फूटी...
विकर्ष न जाने सैटेलाइट नगरियों की कितनी अट्टालिकाओं में, कितने फ्लैट्स में, कितनी धाराएं उस समय खुद से टकराती हैं, जब पति को ऑफिस और बच्चे को स्कूल भेजने के बाद वे अपनी कोठरियों के अकेले कोने में टिके आईने में खुद को देखती है.
तब ये धाराएं कहती हैं- पापा तुम्हें तो यही चाहिए था न, वेल सेटल्ड ब्वॉय, सिक्स डिजिट सैलरी और बेटी की लहलहाती गृहस्थी. लो तुम्हारी गुड़िया के पास सब कुछ है, लेकिन नहीं है तो वो जिद. वो बहाव जो उसे धारा बनाती है. वह जिद जो उसे लड़ना और बढ़ना सिखाती है. आप सब डर गए थे न इसे देखकर? मैं तो आगे बढ़ ही रही थी डैडी, कि तब तक मुझे आप सबने परंपरा के नाम पर करुणा सिखा दी. संवेदना, सहानुभूति, परोपकार, दया, ममता, अनुकंपा, अनुग्रह. उफ्फ...मैं नथ दी गई इतने सारे संस्कारों से. इतने सद्गुणों का बोझ मैं कैसे उठा पाती?
इस करुणा का भार लेकर भला मैं क्रूर कैसे हो पाती? नारी ममता का सागर होती है. वाह पापा तुम सबने क्या खूब प्रपंच रचा था मुझे बांधने के लिए.
प्यार करना भी मुझे सिखाया आप लोगों ने. मगर बड़ी चालाकी से इसकी राशनिंग कर दी. देखो, इस उमर में यहां, ऐसे, इनके पास खर्च करना है. पर पापा 'गुनाह' सबसे बड़ा लालच होता है. यूं तो ये सीख आपने किसी दूसरे को दी थी, लेकिन गांठ इसे मैंने बांध लिया था. बड़ी साहस करके प्यार के इस कोटा सिस्टम को तोड़ा था मैंने. फिर जी भरकर खर्च किया इसे.
एक सांस में इतना सब कुछ लिख गई धारा. थमी तो ललाट पर पसीने की बूंदें कतार सी चमक रही थीं.
तो मिस्टर मोहिते अतीत का ये बैगेज लेकर आई थी मैं तुम्हारे पास. 'तुम्हारे पास...' ये जो टर्म है न, ये उसी संस्कारों की स्कूलिंग है जो मुझे नौवीं क्लास से सिखाई जाने लगी. सुनते-सुनते दिमाग की कंडीशनिंग हो गई थी. जाना है किसी के पास. मेरा मन न माना तो चली आई निर्वाण के पास. किसी के पास होने का अनुभव करने. अब भेजे जाने का कितना इंतजार करती.
विकर्ष तुमने मुझे एवरेज वाइफ कहा, मगर अपने बारे में मेरी राय न पूछी. मैं भूलती गई स्वयं को और तुम में उतरती गई, ढलती गई तुम्हारे सांचे में. आखिर तुम मेरे लिए मेरे रिश्तेदारों के परफेक्ट मैच जो ठहरे. लेकिन ये मेरा कोई सरेंडर नहीं था विकर्ष. मेरे आस-पास जो दीवारें खड़ी की गई थीं न, वैल्यूज की, ये उसी का परिणाम थीं. न कोई रोशनदान, न झरोखा. नतीजा ये हुआ कि वो हवा ही आनी बंद हो गई जिससे मेरे तेवर को ऑक्सीजन मिल पाता. न बौरा पाई, न धधा पाई. फिर इस Match में मैं Mis कहां से लगा पाती. धीरे-धीरे मेरा बांकपन घुलता गया, मैं औरत बनती गई. वही तुम्हारी परिभाषा वाली मिडिल क्लास फैमिली की एवरेज वाइफ.
मगर विकर्ष मिडिल क्लास की इस एवरेज वाइफ को लेकर तुम्हारी उदासीनता क्यों है? क्या तुम्हें बताऊं कि ये औसत दर्जे की पत्नियां ही औसत परिवारों की धुरी हैं. नजरें उठाओ, सामने के फ्लैट में देखो, बाईं ओर मुड़ो, अपनी दी को ही देखो, सत्रहवीं मंजिल के उस घर को जानते हो न. हर जगह दिखेगी वो. कहीं खुद एवरेज वाइफ बनती हुई. तो कहीं दूसरों को बनाती हुई.
धारा अब धाराप्रवाह जजमेंट लिखे जा रही थी.
विकर्ष तुम्हारा सर्वनाम इस एवरेज वाइफ की जुबान पर चढ़ गया है अब. तुम्हारी पंसद का भोजन, तुम्हारे कपड़े, तुम्हारा घर, तुम्हारा बच्चा. सब कुछ तुम्हारा. और हां ये औसत नारी ही देवता से तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी भी लेती है. बहुत शातिर हो तुम सब, बहलाने के लिए उसे कभी होम मेकर, कभी मां, कभी देवी का नाम दे देते हो.
विकर्ष बेडरूम भी तो एवरेज वाइफ का न रहा? कितने फ्रस्टू और वाइल्ड पतियों का चारागाह हैं ये एवरेज पत्नियां तुम जानते हो न? मनुहार का लालित्य तो छोड़ ही दो, निवेदन की औपचारिकता भी नहीं समझी जाती है. बस, भूख... तृप्ति की परवाह किसे है? सोच लो अगर ये एवरेज पत्नियां न होतीं तो?
मिस्टर हज्बैंड, ये एवरेज वाइफ ही कमाऊ पूतों और सुपर कूल पतियों को जनती हैं. अपनी मां से तो तुम पूछोगे नहीं. मैं ही बताती हूं. तुम्हारे पापा कहते थे मम्मी भी एवरेज वाइफ ही हैं. विकर्ष ये एवरेज वाइफ ही हैं जो परिवार और विवाह नाम की संस्था को सालों से कंधे पर ढोती चली आ रही हैं. इसके लिए केमिस्ट्री की एम-एससी फर्स्ट क्लास महत्त्वाकांक्षी लड़की को एवरेज वाइफ होना पड़ता है. इसी सोशल अरेंजमेंट की बदौलत तुम MNC की मल्टी स्टोरीज में सॉफ्टवेयर के एल्गोरिदम लिख पाते हो. इन दिनों तुम Hurt होना सीख गए हो विकर्ष. Heal होना सीख लो.