कहानी - सर्दियों की एक रात
राइटर - ओ हेनरी
उसका नाम था, सोपी। वह मैडिसन चौक की एक बेंच पर लेटा हुआ बेचैनी से करवटें बदल रहा था। जब जंगली बत्तखें रात में भी जोर से चीखने लगें, जब चमड़े के ओवरकोट ना होने पर औरतें में पतियों से बिलकुल सटकर बैठने लगें और जब बाग़ में पड़ी हुई बेंच पर लेटा सोपी बेचैनी से करवटें बदलने लगे, तो समझ जाना चाहिए कि सर्दियां आ गयी हैं।
सोपी की गोद में एक सूखा हुआ पत्ता आकर गिरा। इसका मकलब पाला पड़ने वाला था। सोपी समझ गया था कि अब आने वाले सर्दी के मौसम की मुश्किलों से जूझने के लिए उसे कमर कसनी पड़ेगी और इसी वजह से वह बेंच पर बेचैनी से करवटें बदल रहा था।
वैसे ठण्ड से बचने के लिए सोपी के दिमाग में कोई बड़ी कल्पनाएँ नहीं थीं। वह इस मौसम से बचने का एक प्लान था उसके पास। औऱ प्लान ये था कि वो बस यही दुआ कर रहा था कि आने वाले तीन महीने किसी भी तरह जेल में कट जाय। सही सुना.. जेल में। सर्दियों में जेल से बढ़िया जगह क्या होगी.. खाने का इंतज़ाम... उसके जैसे दूसरे लोगों की कंपनी... और कडाके की ठण्ड और पुलिस के बिना मतलब तंग करने वाले सिपाहियों से बचाव... और क्या चाहिए - (बाकी की कहानी पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें। या इसी कहानी को SPOTIFY या APPLE PODCAST पर सुनने के लिए ठीक नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें)
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बाकी की कहानी यहां से पढ़ें- और ये पहली बार नहीं था... सालों से ब्लैकवेल शहर का मेहमाननवाज जेलखाना ही उसका सर्दियों का ठिकाना रहा है। जिस तरह न्यूयॉर्क के दूसरे लोग सर्दियां बिताने के पामबीच के टिकट कटाते थे, सोपी जाड़ों में जेल जाने की प्लानिंग कर लेता था। और न करता तो कैसे सर्दियां कटतीं... पिछली रात उसने उसी चौक पर फव्वारे के पास एक बेंच पर काटी थी लेकिन कोट के नीचे, घुटनों पर और कमर के नीचे लपेटे हुए तीन मोटे-मोटे अखबार भी उसको सर्दी से नहीं बचा पाए।
पर जेल जाया कैसे जाए। उसने कई तरीके सोचे... सबसे सही तो ये था कि किसी मँहगे होटल में डटकर खाना खाए और फिर कहे कि भई पैसे तो हैं नहीं... इसके बाद की सारी कार्रवाई कोई भी समझदार मैजिस्ट्रेट अपने आप कर देगा।
ये सोचकर सोपी बेंच से उठा और चौक के बाहर निकला और ब्रॉडवे की ओर चल दिया। ब्रॉडवे पर वह एक चमचमाते होटल के सामने रुका, जहां हर रात रेशमी कपड़ों की तड़क-भड़क दिखाई देती है, अंगूर की बढ़िया शराब की नदियाँ बहती हैं और लज़ीज़ खाना मिलता है। लेकिन अच्छे होटल में जाने के लिए अच्छे कपड़े भी तो चाहिए.... तभी तो उसे मेज़बान अंदर घुसने देगा। सोपी को कमर से ऊपर वाले अपने कपड़े तो ठीक ठाक ही लग रहे थे। उसने दाढ़ी बना ली थी, कोट झाड़ लिया। एक मिशनरी औरत ने गिफ्ट में उसे जो टाइ दी थी... वो भी पहन ली। बस गड़बड़ थी पैंट और जूतों में। उसने सोचा... कि अगर वो जल्दी से खाने की टेबल तक पहुँच जाता है फिर तो कोई प्रॉब्लम नहीं। क्योंकि टेबल से ऊपर का हिस्सा ही दिखता है। किसी को शक नहीं होता। ये सब सोचकर उसने ये भी तय किया कि क्या क्या ऑर्डर करेगा... मुर्ग मुसल्लम, मटन बिरयानी, थोड़ी शराब और भी बहुत कुछ... पूरी लिस्ट बनाई। लेकिन जब वो होटल गया तो गड़बड़ हो गयी... होटल के दरवाजे पर ही खड़े मुस्टंडे दरबान की नजर उसकी फटी पतलून और पुराने जूतों पर पड़ गई। खेल खत्म हो गया।
सोपी ब्रॉडवे से वापस लौट चला। उसे समझ में आ गया कि अब कोई दूसरा रास्ता अपनाना होगा।
छठी सड़क के मोड़ पर रोशनी से जगमगाती हुई एक दुकान उसे दिखाई दी, जिसकी कांच की खिडकियों से करीने से सजाई हुई तरह तरह की बेशकीमती चीज़ें झाँक रहीं थीं। सोपी ने एक पत्थर उठाया और शीशे पर दे मारा। शीशा जोर की आवाज करके टुकड़ों में टूटा और जमीन पर बिखर गया। आवाज सुनकर चारों तरफ से लोग दौड़े और उन्हीं के साथ दौड़ा आया पुलिस का एक सिपाही। सिपाही को देखकर सोपी मुस्कुराया और जेबों में हाथ डाले चुपचाप खड़ा रहा।
" ऐ ..शीशा फोड़ने वाला किधर गया ?" सिपाही ने पूछा
- "कहां गया मतलब... ये रहा मैं... सामने खड़ा हूं...
- मज़ाक मत करो... सही बताओ... कहां है वो
- अरे मैं ही हूं...
- तुम होते तो खड़े क्यों रहते....
- अऱे मैं... मैं खड़ा हूं ताकि आप मुझे पकड़ लें...
- बहुत मजडे सूझ रहे हैं तुम्हें ज़बान मत लड़ाओ वरना अभी इसी डंडे से ठीक कर दूंगा...
सिपाही ने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो उसे एक आदमी दिखा जो बस पकड़ने के लिए भाग रहा था।
ऐ .. रुको... भाग कहां रहे हो... रुक
वो उसके पीछे भागा और सोपी वहां खड़ा रह गया। उदास।
सोपी ने सोचा कि इस बार तो वो पक्का कुछ ऐसा करेगा कि उसके जुर्म का एक गवाह रहे... जो कह सके कि इसी आदमी ने जुर्म किया है। अब ऐसा जुर्म क्या हो सकता है... बहुत सोचा तो समझ आया कि वो जुर्म है किसी खूबसूरत सड़क पर जाती लड़की को छेड़ना। वो लड़की गवाही देगी कि इस आदमी ने मेरे साथ बदतमीज़ी की।
वो आगे बढ़ा... बटन वटन थोड़े टपोरी स्टाइल में खोल लिए... और आती जाती लड़कियों को देखने लगा। एक लड़की दिखी... सोपी ने उसके पीछे जाते जाते ज़ोर से खांसा खंखारा, उसने पलट कर देखा...तो सोपी ने आँख से इशारा किया और फिर अपने होंठ दबाकर उसे साथ चलने का इशारा किया...
लड़की ने उसे नज़रअंदाज़ किया और आगे चली गयी। ये फिर पीछे-पीछे हो गए। वो एक दुकान पर रुकी.. ये भी रुक गए। और टपोरी स्टाइल में उसे ऊपर से नीचे तक घूरते हुए बोले, "क्यों बेबी, कहीं कुछ तफरी का इरादा है?" सोपी को अपने गाल पर ज़ोर दार तमाचे का इंतज़ार था। कि तभी कुछ अजीब हुआ... उस लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी। वो मुड़ी और हौले से उसकी बाँह पकडती हुई बोली - "क्यों नहीं डार्लिंग.... मैं तो खुद ही तुमसे कहना चाह रही थी मगर डर रही थी। चलो कहां चलना है...
धत्त तेरी की...
सोपी ने झटके से हाथ छुड़ाया और सर पर पैर रख कर वहां से भागा। हाय रे किस्मत... ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके ऊपर कोई भयानक टोटका कर दिया है तभी उसकी गिरफ्तारी नहीं हो पा रही है। उसे घबराहट होने लगी और वह तेज तेज चलने लगा।
चलते - चलते वह एक बड़े से थिएटर के सामने पहुँच गया जिसके सामने एक सिपाही बड़ी शान से टहल रहा था। सिपाही को देखते ही गिरफ्तार होने की ख्वाहिश ने एक बार फिर उसके भीतर जोर मारा और इस बार उसने शराबी की एक्टिंग करनी शुरु कर दी। वो तेज़ तेज़ गाने लगा... चीखने लगा चिल्लाने लगा।
पुलिसवाले ने उसे देखा... और उसकी तरफ बढ़ा ही था कि तभी आईसक्रीम खाते हुआ जा रहा एक राहगीर बोला... "अरे कोई ख़ास बात नहीं, छोड़िये सर... ये बस... सामने वाले कॉलेज का कोई लड़का है। इन्होने आज फोर्ट कॉलेज को मैच में बुरी तरह हराया है, सेलिब्रेट कर रहा है। डर की कोई बात नहीं”
और ये सुनते ही पुलिसवाला गाली देता हुआ दूसरी तरफ जाने लगा...
अरे सुनिए... अरे... मैं... कोई स्टूडेंट नहीं... अरे यार कमाल कर रहे हो आप... क्यों झूठ बोला आपने... – सोपी ने उस आदमी की तरफ देखते हुए कहा... वो आईस्क्रीम खाता हुआ वो आदमी बोला... आज मेरा दिन अच्छा है, मैंने सोचा आप को बचा लूं... मैं बहुत नेक दिल आदमी हूं। देखिए मैंने बचा लिया वरना वो आपको थाने ले जाता।
सोपी जल भुन गया... और बड़बड़ाता हुआ वहां से चल दिया। अब हवा भी तेज़ हो गयी थी। ठंड बढ़ने लगी थी। सोपी ने कोट के बटन बंद कर लिये। सड़क पर वो आवारा टहलने लगा... वहाँ से कुछ दूर चला तो उसने सिगार की दूकान में एक आदमी को घुसते देखा। उस आदमी ने अपना नया छाता दुकान के बाहर ही दरवाजे के पास रख दिया और भीतर जाकर सिगार सुलगाने लगा।
सोपी दुकान के पास पहुंचा, छाता उठाया और धीरे धीरे चहलकदमी करता हुआ आगे बढ़ गया। छाते का मालिक यह देखकर.... जल्दी से दुकान से बाहर आया और सोपी के पीछे चलता हुआ बोला - "ओ भाई, मेरा छाता ?"
चोरी और उस पर सीनाजोरी वाला मुंह बनाते हउए सोपी उसका मज़ाक उड़ाते हुए बोला... "अच्छा ! तुम्हारा छाता? क्या वाकई ये तुम्हारा छाता है ? तो फिर जाओ, बुलाओ पुलिस को ....बुलाओ ! वो सामने ही खड़ा है पुलिसवाला ! बुलाओ उसे !"
पुलिस का नाम सुनते ही छाते के मालिक की चाल सहसा धीमी हो गई। उसे लगा कि ये आदमी धौंस में कह राह है कि पुलिस को बताना है तो भी बता दो... वो समझा कोई बड़ा गुंडा है ये... छाते का मालिक बोला... - "ओह, माफ़ कीजिये .... कभी कभी गलती हो ही जाती है। अब मेरी है तो आपकी भी है... मतलब क्या मेरा .. क्या तेरा... कोई बात नहीं! आप रख लीजिये...!" कहकर वो दुकान के अंदर चला गया।
गुस्से की आवाज़... सोपी ने गुस्से में आकर छतरी को एक गड्ढे में फेंक दिया। ये क्या हो रहा था। अजीब हाल है... ऐसे तो पकड़ लेंगे किसी को भी... चाहे वो गुनाहगार हो या ना हो.. और अब कोई चाह रहा है कि गिरफ्तार हो तो पकड़ नहीं रहे। सोपी मायूस होकर वापस मैडिसन चौक की तरफ चल दिया।
रास्ते में उसे पुराना चर्च दिखाई दिया- टूटा फूटा लेकिन बड़ा सा महराबदार। बैगनी रंग के कांचवाली खिड़की से रौशनी छनकर आ रही थी और अंदर पियानो बज रहा था। कभी कभी कोई छोटा सा लम्हा आपको बदल देता है। सोपी ने उस आवाज़ को सुना और वो अंदर चला गया। वो ऊंची छत वाला बड़ा सा चर्च था... जहां अंदर हर तरफ रोहिनियत फैली हुई थी। लोगों के सर दुआओं में झुके हुए थे।
वह उस प्रार्थना से परिचित था - क्योंकि उसने उसे उस जमाने में सुना था जब उसके जीवन में पवित्र विचारों, स्वच्छ कपड़ों, आकांक्षाओं, फूलों, माताओं, बहनों और मित्रों का भी स्थान था। सोपी के मन की भावुकता और पुराने गिरजे के पाक माहौल में सोपी ने अपनी अंतरात्मा में एक अनूठा बदलाव सा महसूस किया। लगभग सिहरते हुए उसने उस इस गहराई का जिया कि वो कितना गिर गया था। वो इतना गिर गया कि अपने थोड़े से फायदे के लिए वो किसी की छतरी लेकर भाग रहा था, किसी लड़की को छेड़ दिया.. ये सब काम कितने घटिया थे। कोई ये कैसे कर सकता है। उसे अपने आप से नफरत होने लगी। और उसी वक्त उसने फैसला किया कि वो इस दलदल से अपने आपको बाहर निकालेगा। उसने फैसला कर लिया कि वह फिर से अपने आपको इंसान बनाएगा। जिस बुराई ने उसे दबोच रखा है, उसे वह जीतेगा। अब भी वक्त है, उसकी उम्र अब भी कुछ ज्यादा नहीं है। उसने गहरी सांस ली और वो चर्च से बाहर निकला... अब वो बिल्कुल नया सोपी था... पॉज़िटिव सोच से भरा हुआ....
अचानक सोपी ने अपनी बाँह पर किसी पकड़ को महसूस किया। वह तेज़ी से घूमा और सामने एक सिपाही का सख्त चेहरा दिखाई दिया।
सिपाही ने पूछा - "यहाँ क्या कर रहे हो ?"
सोपी ने कहा - "जी, कुछ नहीं !"
सिपाही – "कुछ नहीं ? तो फिर मेरे साथ चलो..."
- अरे मगर क्यों.... सुनिए तो... सर... अरे छोड़िये तो... अरे....
सिपाही सोपी को ले गया... और दूसरे दिन सबेरे पुलिस कोर्ट के मैजिस्ट्रेट साहब ने फरमाया - "तीन महीने की सख्त कैद।"
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