ये उदास सन्नाटे
ये डूबती हुई रात
बिन करवट सोती गली
दबे पाँव चुपके-चुपके आती
किसी फ़िराक में सहर
कुछ पुरानी दीवारें जिनका रंग उतर चुका है
कुछ भूली अधखुली खिड़कियाँ
बिन आहट उतरती सीढियां
बीच सड़क के तार पर एक उलझी सी बेताब पतंग
सड़क पर बिखरे पानी में चाँद का अक्स
और दूर खंबों पर चस्पा कुछ झूठे इश्तेहार
इन सब के बीच - नहीं है तो बस
तुम्हारे आने की उम्मीद...
उस खामोश रात, कमरे की खिड़की से बाहर सुनसान सड़क देखते हुए, मैंने ये नज़्म अपनी डायरी में लिखी और आंखों में उतर आए आंसुओं को पोंछते हुए डायरी बंद कर दी और उस तेज़ धार ब्लेड की तरफ देखा जो मेज़ पर रखा था। मैंने दूर तक फैले सन्नाटे को देखा... गली सो रही थी... गहरा सन्नाटा... मैंने आसमान की तरफ देखा... गहरा अंधेऱा था... क्योंकि वो अमावस की रात थी... ये वो अमावस की रात थी जो मैं अपनी मौत के आखिरी पल तक नहीं भूल पाऊंगा.... (कहानी को आगे पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें, या इसी कहानी को जमशेद कमर सिद्दीक़ी से सुनने के लिए ठीक नीचे दिए SPOTIFY या APPLE PODCAST के लिंक पर क्लिक करें)
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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) जिस दुनिया में हम रहते हैं उसमें दो चीज़ें अथाह हैं... एक सितारें.... और दूसरा इंसान का ग़म... ये गम वो है जो चेहरा, रंग, समय बदलकर हर जगह दिखाई देता है। किसी को रोज़गार का ग़म है, किसी को अपनों के बिछड़ने का, किसी को धोखा मिलने का, किसी को किसी का साथ छूट जाने का, किसी ये गम है कि जो चाहते थे नहीं मिला... और किसी को ये कि इस सात बिलियन की आबादी वाली दुनिया में ... वो एक शख्स उसका नहीं हो सका जिसे वो चाहता था। इसे कहते हैं मुहब्बत का गम... इश्क की मायूसी... जो उस वक्त मुझ पर भी छाई थी।
आठ महीने चार दिन... हां, इतने ही हुए थे जब मैंने वंशिका को पहली बार जिम में देखा था। कुछ दिन तो बात करने की हिम्मत भी नहीं हुई थी। वो जिम के एक साइड दस बारह लोगों के साथ ज़ुंबा करती थी और मैं, अपनी स्लीव्स मोड़कर क्रंचस करता था... लेकिन अपने उभरे हुए डोलों से उसे इंप्रैस करने की सारी कोशिशे बेकार गयीं। उसने घांस भी नहीं डाली... बात उस दिन बनी जब जिम का एसी खराब हो गया था... और अंदर बैठना मुश्किल था... जब तक रिपेयर वर्क हो रहा था.. हम लोग बाहर ओपन स्पेस गैलरी में खड़े हो गए। वही दिन था – जब पहली बार वंशिका से बात हुई थी। उसी दिन मैंने उसे बहुत करीब से देखा था... मुझे याद है उस दिन उसने पिंक ट्रैक सूट पहना था... उसके माथे पर पसीने की बूंदे थी... और चेहरे पर मुस्कुराहट... खूबसूरत लग रही थी वो.... बहुत खूबसूरत.... हालांकि एक आध बार म्यूज़िक चेंज करने को लेकर हमारी एक आधी बार बात हुई थी लेकिन उससे ज़्यादा नहीं... मुकम्मल मुलाकात तो वंशिका से उसी दिन हुई थी।
क्या बात हुई... ये बताना अब मैटर नहीं करता... क्योंकि कहानी वही थी... हम मिले, बात हुई, दोस्ती हुई, फिर मैंने प्रोपोज़ किया... मैं और वंशिका कपल हो गए... फिर कुछ वक्त गुज़रा... मुझे उसकी आदत हो गयी... फिर हमारे बीच कुछ नाइत्तफाकियां आईं और वंशिका मुझे छोड़कर चली गयी।
वंशिका के जाने के बाद ऐसा लगा जैसे ज़िंदगी में वैसे तो सब कुछ पहले जैसा ही हो, बस किसी ने इस दुनिया से सारी हवा सारी सांस खींच ली हो... ऐसी घुटन की लग रहा था जैसे अभी मर जाऊंगा... उसे फोन मिलाता था... वो फोन नहीं उठाती थी... डिप्रेशन में आ गया मैं... खाना पानी लगभग छोड़ दिया... मम्मी पापा इलाहाबाद से विडियो कॉल करते थे... तो मेरी सेहत देख कर आंखों के नीचे काले गड्ढे, चेहरे पर उभरी हड्डी, पिचके हुए गाल देखकर उदास हो जाते थे। मम्मी कहतीं, बेटा कुछ दिन के लिए आ जाओ न घर, ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा कि सेहत ही न बचे... आ जाओ बेटा... कुछ दिन यहां रहकर जाओ... बताओ कब आओगे.. बोलो मैं उनका क्या दवाब देता... घर जाना तो मेरे लिए दूर की बात थी... मैं तो अंदर से इतना टूट गया था कि इस दुनिया से ही जाना चाहता था। वंशिका के बाद इस दुनिया में कुछ भी नहीं बचा था... कुछ भी नहीं। और वो वही अमावस की रात थी.... जब मैंने इस दुनिया को अलविदा कहने का फैसला कर लिया था।
नज़्म लिखने के बाद, मैंने डायरी बंद की... खिड़की को थोड़ा सा और खोला... और एक आखिरी बार बाहर की ताज़ा हवा को सीने में भरा... खिड़की के किनारे रखी मेज़ पर रखा ब्लेड उठाया... कांपते हाथों से ब्लेड को दूसरी हाथ की कलाई तक लाया... उस एक पल में... ज़िंदगी की सारी यादें आंखों के सामने से यूं गुज़र गयीं जैसे ट्रेन में बैठे हुए बगल वाली पटरी से दूसरी तरफ तेज़ रफ्तार ट्रेन गुज़रती है।
मौत जब सबसे करीब होती है तो ज़हन में मां का चेहरा कौंधता है। आसमान में अंधेरा था... आज अमावस थी... याद आ रहा था, वो बचपन में कहा करती थीं, बेटा अमावस की रात घर की खिड़कियां बंद रखा करो, इस रात प्रेत-आतमाएं इंसान से बात करने की कोशिश करती हैं। मैंने ब्लेड का धार वाला हिस्सा, नस पर रखा ... और कांपते हाथ से उसे रेतने वाला था... बस एक सेकेंड का खेल था... और खून का एक फव्वारा छूट जाना था... ज़िंदगी मेरी नसों से बह जानी थी... और मौत मुझे आहिस्ता आहिस्ता अपनी आगोश में ले लेती.... मैंने ब्लेड पर पकड़ मज़बूत की.... और जैसे ही उसे अपनी नस पर रगड़ने के लिए हरकत की.... अचानक मैं रुक गया....
वो क्या है.... मेरी नज़र सामने वाली बिल्डिंग की खिड़की पर पड़ी... मैं कांप गया। पांचवे फ्लोर की खिड़की में, एक लड़का गले में रस्सी डाले हुए झूल रहा था। पंखे से लटका हुआ वो एढ़ियां रगड़ रहा था। मेरी सांस ऊपर नीचे होने लगी... इंसान चाहे कैसे भी हालात में हो, बचाना उसकी फितरत है... जैसे कार चलाते वक्त, जब सामने कुछ आ जाए तो ब्रेक पर पैर अपने आप लगते हैं... आप फैसला नहीं करते कि ब्रेक लगाऊं या नहीं... क्योंकि बचाना इंसान की फितरत है... वो लड़का रस्सी से झूलता हुआ तड़प रहा था... पैरों को रगड़ते हुए वो फंदे को पकड़ने की कोशिश कर रहा था...मैंने वो तेज़ धार ब्लेड फेंका और मैं खिड़की से लगभग बाहर लटकते हुए चीखा...
अरे... कोई है...अंकल... आंटी... हैलो मैंने पुकारा... लेकिन किसी ने नहीं सुना। मैं बल्डिंग की तरफ दौड़ गया।
वो लड़का उस खिड़की पर अक्सर दिखता था। मैं उसके बूढ़े मां-बाप को भी अक्सर देखता था। बिना लिफ्ट की बिल्डिंग पर दोनों, भारी-भरकम राशन के झोले लिए हांफते हुए चढ़ते थे, तो अफ़सोस होता था। कई बार मैंने उनकी मदद भी की। मैं सोचता भी था कि मां बाप की मदद क्यों नहीं करता... ये कभी उनके साथ क्यों नहीं दिखता। ख़ैर, अभी ये वक्त इन बातों का नहीं था... मैं अपने घर के दरवाज़े की तरफ भागा, भाग कर लिप्ट में घुसा, ग्राउंड फ्लोर पर उतरा, अपार्टमेंट से बाहर आया और सामने वाले अपार्टमेंट में घुसा... और उस फ्लोर पर पहुंचा जहां वो बूढ़े अंकल आंटी भारी-भारी झोले लिए अकेले आते-जाते दिखते थे..
अंकल.. खोलिए मैंने हांफते हुए पांचवे फ्लोर का दरवाज़ा भड़भड़ाया। बुज़ुर्ग अंकल ने दरवाज़ा खोला... पीछे उनींदी आंखे लिए आंटी थीं।
- क्या बात है..
- वो... वो आपको उस कमरे में... वहां... वहां देखिए। मैं ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया कि आपके बेटे ने फांसी लगा ली है। वो दोनों उस कमरे की तरफ भागे। मैं भी पीछे भागा। दरवाज़ा खुला तो वहां हल्का अंधेरा था।
- कौन है यहां, कोई भी तो नहीं। अंकल ने कहा। मैं हैरानी से कमरे को देख रहा था। तभी आंटी की उदासी आवाज़ गूंजी, काश कोई होता। कहकर वो अपने कमरे में लौट गईं। उनके जाने के बाद अंकल ने कहा... मेरे बेटे के जाने के बाद यहां कोई नहीं रहता।
क्या? मैंने चौंक कर कहा वो बोले
हम्म.. हमारा बेटा, अब इस दुनिया में नहीं है। उन्होंने बताया कि छ साल पहले राहुल ने इम्तिहान में फेल होने के बाद फांसी लगा ली थी। मैं दीवार से टिककर खड़ा हो गया। हालांकि उस वक्त मुझे डर लगना चाहिए था, लेकिन मैं देख रहा था उस बुज़ुर्ग चेहरे की उदास झुर्रियां। घर में फैला मुर्दा सन्नाटा। दुनिया में उन बूढ़ी बेसहारा आंखों से डरावना कुछ नहीं होता जिनमें कोई उम्मीद बाकी हो।
मैं अपार्टमेंट से बाहर आया... उस खिड़की की तरफ देखा... अब वहां अंधेरा था। मैं वहीं अपार्टमेंट गेट के किनारे लगी बेंच पर रात के अंधेरे में बैठ गया। काले आसमान को ग़ौर से देखने लगा... आत्माएं हमेशा मारती नहीं, वो कभी कभी हमें रास्ता भी दिखाती हैं। मुझे अब वहां अकेले बैठे हुए डर नहीं लग रहा था। प्यार, मुहब्बत इश्क ये सब ज़रूरी है... पर एक रिश्ते के पीछे... सारे रिश्तों का गला नहीं घोंटा जाता। वंशिका चली गयी थी क्योंकि उसे जाना था... मुझे भी आगे बढ़ना चाहिए था.. इस सात बिलियन से ज़्यादा की आबादी वाली दुनिया में किसी एक शख्स का दुनिया से चले जाना... कितना मायने रखता है... बिलकुल नहीं।
मैं बेंच पर बैठा सोच ही रहा था कि तभी मेरा मोबाइल बजा
हैलो.. मम्मी?
हां बेटा.. पता नहीं अचानक दिल घबराने लगा, तेरी याद आ रही थी तो कॉल कर लिया... तू ठीक तो है? मम्मी कहा, मैं बोला
हां ठीक हूं... अच्छा मै सोच रहा था कि कुछ दिन के लिए घर आ जाऊं... दूसरी तरफ से मम्मी की चहकती आवाज़ आने लगी
घर आ रहा हूं कुछ दिन के लिए। कहते हुए मैंने उस खुली खिड़की को दोबारा देखा... अब वहां कोई नहीं था। उस खिड़की में रहने वाला लड़का मुझसे कहना चाहता था, वो कह चुका था। मैंने अमावस की उस रात के काले आसमान की तरफ ग़ौर से देखा... और सोचा... ये दुनिया उतनी भी बुरी नहीं है कि इसे बचाया नहीं जाए... मैं बेंच से उठा और अपने अपार्टमेंट की तरफ चल दिया।
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