सुभाष चंद्र कुशवाहा का नया कहानी संग्रह 'लाला हरपाल के जूते' हाल ही में पेंग्विन प्रकाशन से रिलीज हुआ है. इसमें कुल 13 कहानियां हैं.
पेश है कहानी 'लाला हरपाल के जूते' का एक अंश:
लाला ने कुछ ही दिनों में अपनी पहचान अमेरिकी जूतों से बना ली थी. या यों कहें कि आजादी की लड़ाई में भाग लेने और जिंदगी भर देशी खद्दर पहनने के बावजूद, उनकी जो पहचान नहीं बन पाई थी वह अमेरिकी जूतों ने झट बना दी. इसलिए लाला ने अपने तमाम पुराने विचारों और आदर्शों को गैरजरूरी, बेकार मानते हुए तिलांजलि दे दी थी. लाला के विचारों में आए बदलाव की झलक, गांव वालों में भी दिखाई दे रही थी. कुल मिलाकर लाला का गांव, ग्लोबल गांव की ओर सरकता नजर आ रहा था. जूते पैरों में होते या हाथों में, लाला की चाल में गजब की रवानी दिखती. लाला की भाषा शैली में भी बदलाव आ चुका था. अब वह भोजपुरी के बजाय खड़ी बोली में और बीच-बीच में अंग्रेजी के तमाम शब्दों को मिलाकर बोलते. गांव वालों को गरियाते समय कई बार अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते. अंग्रेजी में दी गई गालियां ज्यादा सुघड़ और मर्यादित जान पड़तीं, ऐसा लाला मानने लगे थे.
मगर ‘सब दिन होत न एक समाना, ए साधो...’ बिदेशी के निरगुन की माया कहिए या लाला की लापरवाही, एक दिन वही चितकबरी कुतिया, जिसे बचपन से कौरा देना न भूले थे लाला, चबा गई एक जूता. चबा तो वह दूसरा भीजाती पर तब तक लाला की निगाह पड़ गई थी और उन्होंने बदहवासी में डंडाचला दिया था. निशाना बिल्कुल सधा था. एक टांग लटकाए, कांय, कांय करतीपूरब की ओर भाग खड़ी हुई थी चितकबरी, मगर जबड़े से दाएं पैर के जूते कोमुक्त नहीं किया था. ससुरी अवशेष छोड़ जाती तब भी बताने, दिखाने के लिएरह जाता कि एक जोड़ी जूता दामाद बाबू ने अमेरिका से सौ डालर में....
सावन का मेला करीब था. गांव वाले मेला जाने की तैयारी कर रहे थे. आस-पास के हजारों लोगों का जमघट लगता था उस मेले में. ऐसे ही मौके पर जूते को पहनना बेहतर जान पड़ा था लाला को. अमेरिकी जूतों के साथ-साथ लाला की शान भी चमक सकती थी. बस यही सोच कर कई दिनों से मन महुआ के कांच की तरह गदराया जान पड़ने लगा था. रबड़ टायर वाले अपने चप्पलों को वह और अधिक घृणा की नजरों से देखने लगे थे, जिन्हें वह अक्सर अमेरिकी जूतों को बचाए रखने के लिए पैरों में डाले रखते. पहले की तरह वह बिदेशी के निरगुन गायकी की तारीफ भी नहीं करते. पता नहीं उन्हें कबसे ऐसी गायकी पिछड़ेपन की पूंछ जान पड़ने लगी थी.
बरसात के कारण जूतों में फफूंद लग गई थी. लाला ने देखा तो उनकी आत्मा में फंफूद उगी जान पड़ी. बस क्या था, नीम की सोर पर बैठकर लगे चमकाने. रगड़ते-रगड़ते हाथों में दर्द हो गया. सांस फूलने लगी थी. बिदेशीने खैनी मल कर हथेली पर ले रखी थी पर लाला थे कि ब्रश रगड़े जा रहे थे.
‘अब रहने भी दीजिए. और काम नहीं है का?जब देखो तब जूता, जबदेखो तब जूता. इतना प्रेम तो हमसे भी नहीं किए कभी?’ललाइन ने बाहर आकर टोका तो लाला ने मुस्कुरा कर बिदेशी की ओर देखते हुए जवाब दिया,‘हीरे की परख जौहरी जानता है.’ ‘ऊंह! बने रहिए जौहरी.’ हाथ झटक कर, खिसिया कर चली गई थीं ललाइन.
लाला-ललाइन में ऐसे वाक्ययुद्ध आम बात थी. सो लाला और बिदेशी ने उधर ध्यान नहीं दिया. बिदेशी ने एकाध बार गांव की राजनीति की ओर लाला का ध्यान खींचना चाहा पर लाला ने विशेष रुचि न दिखाई. बोले, ‘छोड़िए गांव की बात. परधान अपना जेब भर रहा है, हम लोग नाहक गांव की चिंता में मर रहे हैं?’
तनिक बादल फटा तो धूप में जूतों को रख, बरामदे से हुक्का लाने चलेगए थे लाला. बस इसी बीच पता नहीं कहां से आ टपकी थी चितकबरी.
जब तक बिदेशी दुर्र...दुर्र...करते तब तक जूते को जबड़े में जकड़ चुकी थी चितकबरी. बिदेशी की आवाज सुनते ही लाला की निगाहें सतर्क हो गई थीं और उन्होंने गरियाते, दौड़ते हुए सधा डंडा चला दिया था.
वैसे तो इस बात का जिक्र करना बहुत मौजूं नहीं जान पड़ता, फिर भी बताना है कि जिस दिन यह घटना घटी थी उसी दिन अमेरिकी सैनिकों ने अपने पांव इराकी जमीन पर रखे थे.
तो उस साल सावन का मेला नागा हो गया. मोची द्वारा बनाई चप्पल पहनकर जाने की इच्छा न हुई. इससे अमेरिकी जूतों द्वारा बनी पहचान के बिगड़ जाने का खतरा महसूस हुआ. उधर मेले के अखाड़े में गामा पहलवान की निगाहें बार-बार लाला को तलाशती रहीं. हर साल वह लाला से सौ-दौ सौ रुपए इनाम तो ले ही लेता था.
अब एक ही जूता रह गया था लाला के पास. लाला ने ललाइन के लाख कहने के बावजूद इकलौते जूते को फेंका नहीं और न मोची को दिया. माना कि अब पहले जैसा आकर्षण न रहा. एक जूते की क्या उपयोगिता? फिर भी लाला ने चमकाने का काम बंद नहीं किया.