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कहानी : जिलानी साहब की दावत | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद

जिलानी साहब के बेटे की सगाई में बड़ी दावत का इंतज़ाम था लेकिन ऐन वक्त पर जब लोग खाने का लुत्फ़ ले रहे थे तो पता चला कि कुछ लोग बिन बुलाए दावत में घुस आए हैं - कैसे पकड़ेंगे उन बिन बुलाए लोगों को जिलानी साहब - सुनिए स्टोरीबॉक्स में जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से

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कहानी - जिलानी साहब की दावत
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

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कुछ भी कहिए लेकिन मुर्तज़ा जिलानी साहब का शहर में जलवा तो था। पुराने लोगों में उनकी एक बड़ी हैसियत थी। लोकल थाने में आना-जाना था। लोग-बाग अक्सर छोटे मोटे घरेलू झगड़ों में जहां बीवी ने मियां के घुटने पर कूकर मार दिया हो, या सड़क पर दो लोगों की लड़ाई में झोटम-झोटा हो गयी हो, किसी के घर की नाली का पानी किसे के दरवाज़े आने पर जूते में दाल बटी हो ... पीठ पर कोहनियां चलने के बाद .. दोनों पार्टी लंगड़ाती हुई जिलानी साहब के दरवाज़े पर आती थीं जहां वो फैसला करते थे।

जिलानी साहब बाहैसियत आदमी थे... वैसे तो उनके ठीक ठाक बड़ी साइकल एजेंसी थी लेकिन मरकज़ी चांद कमेटी के अहम मेंबर भी थे। हर साल आखिरी रमज़ान खत्म होने पर दूरबीन से आसमान में चांद देखकर शहर में ऐलान करते थे और वही रटी-रटाई स्पीच आखिर में लोकल न्यूज़ चैनल वालों को देते थे "मरकज़ी चांद कमेटी की तरफ से ये ऐलान किया जाता है कि आज 29 रमज़ानुल मुबारक चौदह सौ पैंतालिस हिजरी मुताबिक 16 अप्रैल 2024 को शहर में चांद नज़र नहीं आया है... और ना ही हिंदुस्तान के किसी हिस्से से चांद देखने की गवाही या तस्दीक मौसूल हुई है... लिहाज़ा ये ऐलान किया जाता है कि पूरे मुल्क में ईद उल फित्र कल नहीं बल्कि परसों मनाई जाएगी... कल शराफत से ... चुप चाप रोज़ा रखें"

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जिलानी साहब का शहर में रुत्बा था, शोहरत थी... ऊपर वाले का दिया सब कुछ था लेकिन एक कमी भी थी दिल बहुत छोटा था... कभी होटल पर बैठे हों और कोई मिलने वाला आता दिखाई दे तो होटल मालिक से बोली हुई चाय कैंसिल कर देते थे कि फिर उसको भी पिलानी पड़ जाएगी। किसी रिश्तेदार को घर पर दावत खिला देते तो फिर अगले ही दिन से उसके सर हो जाते थे और फोन कर कर के पूछते – और भई खैरियत से पहुंच गए थे कल... अच्छा खुदा का शुक्र है... अच्छा ये बताओ अब हम कब आएं... भाई, हमारा घर तो देख गए... अपने भी तो बुलाओ और खाने में ज़्यादा तकल्लुफ ना करना बस बकरे का गोश्त रख लेना... बाकी क्या कोई खाना खाने थोड़ी आ रहे हैं। रिश्तेदार भी कम नहीं थे, उधर से कहते "हैलो... हैलो... आवाज़ कुछ कट सी रही है शायद... हैलो... हुज़ूर कुछ खरखराहट है आवाज़ में... लाइन में बरखास्तगी सी महसूस हो रही है... हैलो जिलानी..."

जिलानी उधर से कहते हैं - हां आवाज़ नहीं आ रही होगी, अबे बहरे, चोट्टे ... भूख्खड़ साले... मेरे घर से खा गया अब आवाज़ नहीं आ रही

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- हुज़ूर,,, कुछ अड़चन लग रही है कॉल में... फुस फुस आवाज़ आ रही है...
फुस नहीं चुस.... खून चूस लिया है तुम तिलचट्टों ने मेरा
अच्छा भई ठीक है फिर... आवाज़ ही नहीं आ रही... रख रहे... ये कहकर कॉल कट जाता था। अपने रिश्तेदारों से खासा नाराज़ रहते थे वो... और मोके बेमौके उन्हें चोर उचक्का, सूदखोर, शोहदा, भिखमंगा और पता नहीं क्या-क्या कहते फिरते थे। जिलानी साहब का एक किस्सा बड़े मज़े का है, मेरा आंखो देखा। किस्सा जिलानी साहब के बेटे की सगाई की है। सुनिए - तो विनसेंट चौराहे के पीछे जो नया वाला मॉल बना है... पहले इस जगह पर खाली मैदान हुआ करता था। आम दिनों में लड़के यहा क्रिकेट खेलते थे लेकिन किसी की शादी ब्याह के दिन इस मैदान को ऐसे कीमती तंबू-कनात और बिजली की लड़ियों और फूलों वगैरह से सजा दिया जाता था कि महल लगने लगता था।

उस दिन भी सुनहरे सफेद टेंट से सजी वो जगह शानदार लग रही थी। जैसे कोई महल... बेटे की सगाई का मौका था। मरकज़ी चांद कमेटी के मेंबर होने की वजह से शहर के शुरफा और कारोबारी होने की वजह से बड़े बड़े कारोबारी सभी शामिल हुए थे उसमें। मैं भी मुहल्लेदारी में थोड़ा पहले पहुंच गया था और थोड़ा बहुत इंतज़ाम देखने में लग गया था।

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जिलानी साहब उस दिन शेरवानी पहने दाढ़ी के किनारों पर ब्लेड चलवाए चमक रहे थे और मार पूरी शादी में इधर से उधर भाग रहे थे... कभी जहां खाना बन रहा था वहां देगों के पास खड़े हो जाते और बिरयानी में पड़े गोश्त के गलने का जायज़ा लेने लगते... कभी बिजली वाले को पकड़ कर ऊपर लटके झूमरों में एक बल्ब क्यों नहीं जल रहा है... इस पर झगड़ने लगते... कभी आइसक्रीम वाले के काउंटर पर जाकर उसके कान में फुसफुसाते देखो, बच्चों को पहचान के देना... ये बार बार ले जाते आते हैं... ऐ ... लड़के तुम तो अभी ले जा चुके हो... हैं फिर आ गए... अभी तुमको देखा हमने.. चलो पीछे हटो...

मैं शादी की सजावट से ज़्यादा जिलानी साहब को देखकर लुत्फ ले रहा था। अभी मैं इधर उधर देख ही रहा था कि भीड़ में एक साहब मुझसे टकराए। अधेड़ उम्र के थे, खिज़ाब वाली लाल दाढ़ी... मोटे फ्रेम की ऐनक... पेट काफी निकला हुआ... काले पठानी सूट पर कत्थई सदरी पहने हुए ... शायद जिलानी साहब के ही कोई करीबी। चमचमाती सदरी, हाथ में प्लेट और सदरी की जेब से झांकता सिक्के वाला व्यवहार का लिफ़ाफा। हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए। सामने बुफ़े टेबल थी तो मैंने अदबन... मेज़ पर रखी रसगुल्ले की ट्रे की तरफ इशारा करते हुए कहा, “लीजिए... पहले आप ले लीजिए” लाल दाढ़ी वाले चचा मुस्कुराए। आगे बढ़े चम्मच से रसगुल्ला निकालकर प्लेट में रखने लगे। लेकिन उनका तरीका अजीब-तरीन था। चम्मच से रसगुल्ला उठाते। फिर दांत से थोड़ा सा काटते और फिर प्लेट में रखते लेते। इस तरह उन्होंने चार रसगुल्ले प्लेट में रखे, पांचवे पर मैंने हंसकर टोका।
चख रहे हैं क्या”
बोले, “नहीं.. दांत से थोड़ा काट कर प्लेट में रखो तो रसगुल्ला लुढ़कता नहीं है। वरना रायते में मिल जाता है

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मेरा दिल किया कि इस ग़ैबी इल्म के लिए पठानी सूट वाले चचा के कदमों में गिर जाऊं लेकिन तभी एक आवाज़ से हम दोनों चौंक गए। “साहिबान”  शेरवानी पहने जिलानी साहब महफ़िल में कह रहे थे, “भई देखिए... बड़े झिझक से कह रहा हूं कि मामला यूं है कि पिछले गेट से कुछ लोग यहां अंदर घुस आए हैं। बिन-बुलाए दावत में खाना खाने। तो आप लोग ज़रा नज़र रखिएगा”

जिलानी साहब ने बस ये कहा ही था कि मैं जैसे ही पलटा तो मैंने देखा कि वो चचा जो मेरे साथ खड़े थे मुझे शक से घूर रहे थे। और घूरते घूरते अपनी खिज़ाब वाली दाढ़ी पर उंगलियां फेर रहे थे जैसे सोच रहे हों कि कब मुझे पकड़ लें।  मैंने देखा कि काला पठानी सूट पहने उन चचा कि नज़रें मुझे ही ऊपर से नीचे तक जायज़े की तर्ज़ पर घूम रही थीं। शायद वो मुझे जज कर रहे थे कि कहीं मैं ही वो बिन बुलाए घुसने वाला नहीं हूं... चचा ने मेरी तरफ देखा तो मैं हड़बड़ा गया। सिर्फ चचा को यकीन दिलाने के लिए पास खड़े मुहल्ले के शख्स से पूछ लिया, “और शफ़ीक भाई, कोचिंग कैसी चल रही। मामू का प्लास्टर खुला?

वो आदमी मुझसे मुखातिब हुआ और हाल चाल देने लगा... तब उन चचा की नज़र नार्मल हुई। उन्हें यकीन हुआ कि मैं बिन बुलाए नहीं हूं

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ख़ैर, कुछ देर बाद जिलानी साहब गुज़रे तो लाल दाढ़ी वाले चचा ने जिलानी साहब की तरफ बढ़कर दोनों हाथ बढ़ाकर मुसाफ़ा किया। जिलानी साहब मुस्कुराए, तभी चचा ने उकी जेब में एख रुपये का सिक्का लगा लिफ़ाफा डाल दिया और कान में कहा “उधर देखिए, वो बाल रंगे लड़का... कैसे भकर-भकर चाऊमीन खा रहा है...” जिलानी साहब ने ग़ौर से उसे देखा। एक रील बनाने वाला लड़का जिसके बाल नीले रंग के रंगे थे और आगे से नोक की तरह खड़े थे। चाऊमीन भकोस रहा था, मुंह भर-भर के।

जिलानी साहब ने उसे गौर से देखा और फिर गुस्से में जाकर उसके बाल पकड़ लिये 

रुक.... प्लेट रख.. रख नीचे...
ऐ जिलानी साहब... अरे का कर रहे हैं

जिलानी बोले, रुक... जिस्म देखिए... पलते पतले पैर हैं... लकड़ी की तरह... लेकिन खाए जा रहा है बकरी की तरह... तबसे देख रहे हैं तुमको... मार चरे जा रहे हो... अभी चिकन खा रहे थे उधर... अब चाउमीन खा रहे हो... कौन हो, किसके लड़के हो, हैं.. प्लेट रखो...” महफ़िल में शोर मच गया।
- “अरे हम.. हम सुराख़ अली के लड़के हैं।” वो बाल ठीक करते हुए बोला

जिलानी साहब को जैसे अचानक धक्का सा लगा। वो आगे बोला, पहचाने नहीं, हम आपके यहां सिलेंडर रखने आए थे... पापा भेजिन था।

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ओह, सुराख़ अली के लड़के हो.. जिसको वो सिंलेंडर की दुकान है... अरे यार... जिलानी साहब शर्मिंदा हंसी हसे... उसके बाल ठीक करते हुए बोले... खाओ-खाओ। सॉरी बेटा.. हम पहचान नहीं पाए तुम्हें... आजकल माहौल तो जानते ही हो.. अब भई शक्ल पर थोड़ी लिखा होता है... खाओ खाओ... वो रसगुल्ला लो... बढ़िया है... खाओ बेटा खाओ” उस तमाशे के बाद पूरे प्रोग्राम में माहौल में तब्दीली आ गयी। हर प्लेट लिए आदमी दूसरे को शक की नज़र से देख रहा था। लोग बड़े तमीज़ से खाना खाने लगे। लोग हर निवाले पर बेवजह एक दूसरे को हाय-हैलो कर रहे थे ताकि पता रहे कि जिनके घर मे शादी है उनसे रिश्तेदारी है।

कुछ घंटो बाद जब सब निपट गया तो मैं घर जाने से पहले जिलानी साहब से मिलने पहुंचा।
जा रहे हैं, खाना खा लिया?” जिलानी साब ने मुझसे पूछा
“जी-जी। तो... कौन घुस आया था, पता चला?
मैंने पूछा तो जिलानी साहब ने दाएं बाएं देखा... फिर मुझे आंख मारकर ज़ोर से हंसे। ताली मार के बोले... इधर कान लाओ...

मैं करीब आया तो कान में फुसफुसाते हुए बोले...“अरे, कोई नहीं घुसा था। ये तो मेरा पैंतरा था। मेरी स्टाइल... नदीदे लालची रिश्तेदारों पर नज़र रखने का। अरे सात सौ रुपय पर-प्लेट थी और ये कमबख्त पैक करके घर ले जाते हैं। घर की पिछली शादी में इन लोगों ने यही किया था... पन्नी में भर-भर के बिरयानी और शाही टुकड़े ले गए थे” मैं हैरान रह गया। उन्होंने बताया कि अफवाह इसलिए उड़ाई ताकि महमानों पर नज़र रख सकें कि कोई कोरमा प्लस्टिक की थैली में भरकर तो नहीं ले जा रहा। फिर आंख मारकर बोले “देखा मेरा कमाल... एक बार हंगामा कर दिया ... वो सुराख अली के लड़के को जानबूझ कर पकड़ लिया... अब सब लाइन पर आ गए... किसी की हिम्मत नहीं हुई कि खाना वाना भर के ले जाए...” जिलानी ठहाका लगाकर बोले “और एक्टिंग ऐसी की ... कि किसी को शक नहीं हुआ... वो तुम्हारे दोस्त… वो लाल दाढ़ी वाले... वो भी धोखा खा गए” मैं भी हंसा लेकिन फिर अचानक कुछ सोचकर मैं रुक गया।
“मेरे दोस्त?... वो पठानी सूट वाले चचा... वो तो आपके दोस्त थे?

जिलानी साहब थम गए। “मेरे? नहीं तो। मुझे लगा तुम्हाए साथ हैं” जिलानी साहब ने कुछ सोचा और उनके चेहरे पर पसीने की बूंदे उभरने लगी.... तभी उन्हें याद आया कि उन चचा ने जिलानी साहब को लिफाफा भी दिया था। जल्दी से जिलानी साहब ने जेब में हाथ डाला और वो एक रुपये का सिक्का चिपका हुआ लिफाफा निकाला... उसे ऊपर से फाड़ा और अंदर झांका... लिफ़ाफा खाली था और बेनाम था। जिलानी साहब बुदबुदाए.... चूना लगा गया 

मुझे हंसी तो बहुत ज़ोर की आई लेकिन मैंने हंसी रोकी और कहा “जिलानी साहब, सात सौ का नुकसान हो गया आपका” जिलानी साब ने मायूसी वाला मुंह बनाया और फिर लिफ़ाफे पर चिपका सिक्का नोचते हुए खिसियाकर बोले, “हम्म… छ सौ निनयानवे का तो हो ही गया।”

 

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