नई दिल्ली: दिल्ली की एक शाम इलाहाबाद की उपन्यासकार अनीता गोपेश के उपन्यास 'कुंज गली नहिं सॉंकरी' के नाम रही. राजकमल प्रकाशन एवं आक्सफोर्ड बुक स्टोर की ओर से आयोजित इस चर्चा में जानी-मानी उपन्यासकार ममता कालिया, वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल और लेखिका अनीता गोपेश ने शिरकत की. कार्यक्रम का संचालन सुपरिचित समालोचक ओम निश्चल ने किया.
कार्यक्रम के आरंभ में राजकमल प्रकाशन की अधिकारी सुमन परमार ने सभी मंचस्थ लेखकों व उपस्थित साहित्यप्रेमियों का स्वागत किया. डॉ ओम निश्चल ने संचालन करते हुए उपन्यास की कथावस्तु के बारे में विस्तार से बताया. उन्होंने कहा कि 'कुंज गली नहिं सॉंकरी' कबीर के उस निष्कर्ष का प्रत्याख्यान करता है, जो यह कहता है: प्रेम गली अति सॉंकरी जामें दो न समायं. संयोगवश इस उपन्यास में धोखे से अपने रुग्ण ममेरे भाई ब्रजभान की शादी के लिए सूरजभान लड़की को देखने खुद जाते हैं तथा उन्हें ही वर के रूप में देख कर शादी तय हो जाती है. पर सात फेरों के समय जब असली वर ब्रजभान सामने आता है तो लड़की के सभी परिजन रोष जताते व विरोध करते हैं. पर सात फेरे तो पड़ चुके हैं.
लिहाजा कल्याणी ससुराल आती है तपेदिक ग्रस्त ब्रजभान के घर. जिस रूप सौंदर्य के कारण उसने सूरजभान को मन ही मन वरण कर लिया था, यहां इसका उल्टा था तथा एक रुग्ण व्यक्ति के साथ जीवन बिताना था. कल्याणी के मन में काफी दिनों तक सूरजभान के इस धोखे के प्रति बहुत क्रोध व गुस्सा रहा. इसके बावजूद धीरे-धीरे राहें समतल हुईं. अपराध भाव से ग्रस्त सूरजभान को वो अंतत: क्षमा कर देती है तथा थोड़े ही दिनों में विधुर हुए सूरजभान का प्रेम भी कल्याणी के प्रति छिपा नहीं रहता.
अब या तो कल्याणी पतिव्रता का परिचय देते हुए इस अनमेल विवाह को स्वीकार कर अपनी इच्छाओं की बलि दे दे या फिर अपने जीवन की बची-खुची अभिलाषाओं के साथ जीने की ओर कदम बढ़ाए. यह जानते हुए कि प्रेम छिपा नहीं रहता, वह क्षमायाची सूरजभान के बदले हुए अंत:करण के कारण अपने प्रेमी के रूप में स्वीकार करती है तथा स्थितियां कुछ इस तरह अनुकूल होती हैं कि ब्रजभान के भवाली सेनेटोरियम में जाने पर वे दोनों एक दिन संयोग से निकट आते हैं और मन के सारे अवरोधक बह जाते हैं. सारा अवसाद आंसुओं में बह कर चित्त को निर्मल स्वच्छ कर देता है. भवाली से आने के बाद भी, जीवन के हर एक मोड़ पर सूरजभान कल्याणी के लिए समर्पित मिलते हैं.
सूरजभान के दो बेटियां हैं, कल्याणी को दो बेटे व एक बेटी. सूरजभान की पत्नी दिवंगत हो चुकी हैं. ब्रजभान के बड़े बेटे बसंत की शादी हो, बेटी रत्ना की शादी हो, गुलाब कोठी बगीचे वाले मकान में रिहाइश का इंतजाम हो, सूरजभान हर मोड़ पर चाकचौबंद सहायता को हाजिर मिलते हैं. जो प्रेम वे अपनी दिवंगता पत्नी से न पा सके और जो असमय उन्हें छोड़ कर चली गयीं वही प्रेम उन्हें ब्रजभान की पत्नी कल्याणी से मिलता है. कुछ दिनों बाद ब्रजभान का बीमारी से निधन हो जाता है तो यह नैकट्य और सहज हो उठता है.
कल्याणी भी लोकापवाद के भय को नजरंदाज करते हुए मन ही मन सूरजभान को चाहती है तथा उनके संसर्ग से उन्हें बच्चा भी होता है जिसकी शक्ल सूरजभान से मिलने पर लोगों में काना-फूसी चलती हैं. कुछ अंतराल के बाद सूरजभान की भी कैंसर से मृत्यु हो जाती है. ऐसे में जब सूरजभान के अंतिम संस्कार की बात आती है, तो वही समाज जो शिवम को लेकर उपहास करता है, उसे ही शिवम ही उसके लिए सुपात्र लगता है क्योंकि लोगों की नजर में वही सूरजभान का बेटा है.
सारा गोपन रहस्य खुल जाने के बाद वह बड़े बेटे बसंत के सामने गुनहगार की तरह खड़ी माफी मांग रही होती है कि वह सारे आरोपों की धज्जियां उड़ाता हुआ मां के पक्ष में आ खड़ा होता है. वह अपनी मां के संघर्षों का हवाला देते हुए परिवारजनों से कहता है कि ''किस बात की माफी अम्मा. चाचा जी के प्रति तुम्हारा स्नेह देखा है मैंने. उसमें कुछ भी तो गलत नहीं था.'' और सबको सुनाते हुए कहता है: '' बच्चा नहीं हूँ मैं. जान लो आज. सारी दुनिया एक हो जाए तुम पर उंगली उठाने के लिए, पर तुम्हारा बेटा हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.''
कल्याणी के लिए अपने प्रेम की इस फलश्रुति के अलावा भला और क्या चाहिए था. इस कथावस्तु के खुलासे के बाद ओम निश्चल ने ममता कालिया से इस उपन्यास के बारे में राय जाननी चाही. उपन्यास का पहला ड्राफ्ट पढ़ चुकी तथा अनीता की किस्सागोई से आश्वस्त ममता कालिया ने कहा कि आज उपन्यास या कहानियां बौद्धिकता से ठसाठस भरे होते हैं. कई उपन्यास तो नींद की गोली की तरह सुला देते हैं पर यह उपन्यास एक सांस में पढ़ा जा सकता है. उन्होंने कहा कि जरूरी नहीं कि केवल हिंदी जानने वाला व्यक्ति ही कथा कहानी लिख सकता है. अनीता गोपेश जैसी विज्ञान की विद्यार्थी एवं जुलॉजी की अध्यापिका भी लिख सकती है, यह उपन्यास इसकी गवाही देता है.
अनीता ने यहां कल्याणी को विपरीत परिस्थितियों में एक सशक्त नारी के रूप में चित्रित किया है तथा लोकापवाद की रूढ़ियों को तोड़ कर अपने प्रेम के लिए प्रतिश्रुत दिखाया है. यहां बनारस की पेंचदार गलियां हैं. उसने अपने जीवन में बड़े आदमियों की लघुता देखी है और छोटे आदमियों का बड़प्पन भी. उसके लिखने की रफ्तार धीमी है पर यह उसकी विशेषता है.
यह उपन्यास प्रेम गली अति सांकरी के विद्रोह में लिखा गया है. वह यह जताती हैं कि बेमेल विवाह हो जाने के बाद स्त्री की इच्छाएं मर नहीं जातीं. वह एकनिष्ठ होकर अपात्र से कब तक प्रेम कर सकती थी. ऐसा नहीं कि किसी अयोग्य के पल्ले बांध दी जाए स्त्री तो वह सारा जीवन उसके साथ काट दे. वह बदलते समय की स्त्री है. यह उपन्यास सीमाओं में रहते हुए पारिवारिकता में रहते हुए अपनी रुढ़ियों से विद्रोह का उपन्यास है. एक स्वतंत्रचेता स्त्री की कहानी है.
मशहूर कथा-लोचक रोहिणी अग्रवाल ने इसे एक लघु उपन्यास के बावजूद बेहद रोचक उपन्यास बताते हुए कहा कि जहां आजकल किस्सागोई के मार्फत विचार को थोपने की होड़ चल रही है. यहां देश दुनिया के बड़े सवाल न होते हुए भी बिना किसी फार्मूले के यह एक स्त्री नियति से मुठभेड़ की कहानी है.
यह कहानी जीवन को पतन के ढलान की ओर नहीं, आरोह की तरफ ले जाती है. कल्याणी के भीतर संस्कारी स्त्री जिंदा है. बावजूद इसके वह नैतिकता के आडंबर को परे ढकेलते हुए स्त्रियों के लिए रोल माडल बनती है. उन्होंने कहा कि भवाली के संयोगवश सान्निध्य में एक ही बिस्तर पर होते हुए भी जो उहापोह स्त्री-पुरुष के रूप में दोनों के मन में है, उसे अनीता गोपेश ने बहुत संयम से चित्रित किया है.
कल्याणी जानती है अपने गुनाह के लिए सूरजभान भी उतना ही क्षुब्ध है. परन्तु धीरे-धीरे सूरजभान का खलनायकत्व नायकत्व में बदलता है. उसकी तामसिक प्रवृत्तियां नष्ट होती हैं तथा वह बेहतर मनुष्य में ढलता है. वह कल्याणी का स्नेहभाजन बनता है. अपरिचय की दीवार पिघलती है. मन की मलिनता खत्म हो जाती है. रोहिणी अग्रवाल कल्याणी के किरदार को लार्जर दैन लाइफ मानती हैं. वह अनीता गोपेश की इस बात के लिए सराहना करती हैं कि उन्होंने सूरजभान को अपनी ही दुर्बलताओं से गुंथे हुए ऐसे व्यक्ति के रूप में संवारा है, जिसमें ग्रोथ की संभावना है.
उन्होंने कहा कि इस उपन्यास में नाटक जैसी रवानगी है. रोहिणी अग्रवाल ने कहा कि इस उपन्यास से स्थानिकता की गंध आती है. इसमें गलियां बहुत हैं जिनके लिए बनारस जाना जाता है, रोचक रोमांचक! उन्होंने कहा कि यह उपन्यास पितृसत्ता से बहुत महीन ढंग से टकराता हुआ चलता है.
चर्चा के आंरभ में अनीता गोपेश ने उपन्यास की अंतर्वस्तु की चर्चा की तथा इलाहाबाद के बीते साहित्यिक परिवेश को याद किया. उन्होंने कहा कि उन्होंने इलाहाबाद के साहित्यिक परिदृश्य को अपने पिता गोपीकृष्ण गोपेश की साहित्यिक परवरिश के बीच बहुत गौर से देखा सुना व जाना है. ऐसी कहानियां उनके भीतर रची बसी हैं जिनसे गुजरे हुए साहित्यिक परिवेश को समझा जा सकता है.
ज्ञातव्य है कि प्रयाग में 1954 में जन्मी अनीता गोपेश इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राणि विज्ञान की विभागाध्यक्ष हैं. वे आकाशवाणी व दूरदर्शन के लिए अनेक कहानियां व शब्द चित्र लिख चुकी हैं. उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया है जिनमें तुगलक व घासीराम कोतवाल प्रमुख हैं. वो वर्तमान में 'समानांतर' नाट्य संस्था की अध्यक्ष हैं. इससे पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ से उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है. इस अवसर पर प्रकाशक अशोक महेश्वरी सहित नगर के अनेक पत्रकार, लेखक व संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे.