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कविता: धूप और छांव जब सुस्ताते बारी-बारी

कविता- लो धूप छांव ने कर ली आपा-धापी. एक दूजे से आगे चलने को.

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सूरज और धूप जब खेलते थे खेल
सूरज और धूप जब खेलते थे खेल

कविता: धूप–छांव

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लो धूप छांव ने कर ली आपा-धापी
एक दूजे से आगे चलने को
लो कर ली देखो होशियारी
एक दूजे का हाथ पकड़ने को

जब धूप आगे बढ़ती थी
छांव पीछे कहीं छूट जाती थी
फिर लुक-छिप धूप को पीछे छोड़
वो झट से आगे बढ़ जाती थी

और मैंने भी देखा खेल इनका
अपने आंगन की चहदीवारी पर
कभी धूप चढ़ती थी छज्जे पर
कभी छांव उतरती थी अलमारी पर

फिर जो थक के दोनों चूर होते
अंधेरों मे खोने को मजबूर होते
तो ले सांझ की अडकन हौले से
वो सुस्ताते बारी बारी

यह कविता रेणु मिश्रा ने लिखी है.


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