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रिश्तों की शायरी का आफताब: आलोक श्रीवास्तव

अपने शेरों से मन के भीतर खुशनुमा सी नमी लाने वाले आलोक श्रीवास्तव का आज जन्मदिन हैं. इस मौके पर जानिए इस खुशनुमा शायर की जिंदगी के कुछ अनछुए पहलू.

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कवि आलोक श्रीवास्तव
कवि आलोक श्रीवास्तव

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा

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2007 का साल था, जब एक किताब में मैंने पहली बार यह शेर पढ़ा और ठिठक गया. एक गहरी सांस अपने साथ एक ख़ुशनुमा-सी नमी मेरे भीतर ले आई. 'मांएं बिल्कुल ऐसी ही तो होती हैं. अपनी दाल की छौंक भर से घर का मिज़ाज बदल देती हैं.' दिमाग पर ज़ोर डाल मैंने याद करने की कोशिश की कि क्या इससे ख़ूबसूरत बात 'मां' के बारे में मैंने कहीं पढ़ी है? गौर से देखा तो इस शेर के नीचे बारीक अक्षरों में एक नाम लिखा था, 'आलोक श्रीवास्तव'. हैरान करने वाली सीधी-सादी बातें करने वाले इस शख़्स से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी. भौतिक रूप से नहीं, बज़रिये शेर ही.

2013 की एक दोपहर आलोक श्रीवास्तव मेरे साथ अपना परांठा साझा कर रहे थे और मैं उनके चुटकुलों पर लजा-लजाकर मुस्कुरा रहा था. नाप-तौल कर बोलने वाले विनम्र, हंसमुख, संजीदा और आश्चर्यजनक रूप से प्रतिभाशाली शख्स, जिनकी उपलब्धियां उनकी उम्र से कहीं आगे निकल चुकी हैं. जगजीत सिंह, अमिताभ बच्चन, पंकज उधास, तलत अजीज, शुभा मुद्गल जैसी हस्तियों की आवाज़ में दुनिया उन्हें सुन चुकी है, जान चुकी है. अनुष्का शंकर के संगीत में ढली उनकी पंक्तियों वाला एलबम ट्रैवलर ग्रैमी अवॉर्ड की दहलीज़ छूकर आ चुका है. वे न्यूज़ टीवी में काम करते हैं तो गंभीर मुद्दों पर जनगीत की परम्परा शुरू कर देते हैं. उनकी ग़ज़लें 'अम्मा' और 'बाबूजी' मां और पिता पर लिखी गई सबसे लोकप्रिय रचनाओं में से हैं. वह अमीर खुसरो की ज़मीन पर भी याद रह जाने वाली ग़ज़ल कह चुके हैं. उनकी रचनाएं अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित हो रही हैं. मप्र साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार सम्मान, रूस में दिया जाने वाला पुश्किन सम्मान और अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मान उनके हुजरे में पड़ा है. हिंदी के सबसे बड़े आलोचक नामवर सिंह उन्हें 'दुष्यंत की परंपरा का आलोक' मानते हैं और गुलज़ार इस नौजवान की ठहरी हुई सतह के नीचे की हलचल देख कर हैरान होते हैं. फिर भी उनकी शख़्सियत की तासीर कितनी ज़मीनी है ! सोचते हुए मैं अनार के दाने उनकी ओर बढ़ाता हूं और वो अपने घर से लाई हुई सब्ज़ी मेरी प्लेट में परोस देते हैं.

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अपनी उम्र से आगे जा चुका एक जाना-माना ग़ज़लकार, चर्चित कवि और सधा हुआ गीतकार- यह आलोक श्रीवास्तव का सबसे औपचारिक परिचय है. वह रिश्तेदारियों पर सीधे-सच्चे और संजीदा शेर कहते हैं. उनसे बातें करते हुए न जाने कितने पके हुए शब्द शहद की तरह उनकी जुबान से निकलते हैं और अपने आभामंडल पर मुग्ध कर लेते हैं. उनकी एक पहचान ग़ज़लों की सादा-बयानी और उनके शब्द-परिवार से भी है, जिसे अपने लेखन और किरदार में बनाए रखते हुए वह ज़िंदग़ी की काली-सुफैद हकीकतों पर ख़ूबसूरत मिसरे गढ़ते हैं. आज 30 दिसंबर को वह 42 साल के हो रहे हैं. फिलवक़्त वह हिंदी ग़ज़लकारों में न सिर्फ अग्रणी हैं, बल्कि हिंदी ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ाने में भी उनका योगदान सहज ही देखने में आता है. यह अतिश्योक्ति नहीं कि आज वे हिंदी की नई पीढ़ी के इकलौते ऐसे ग़ज़लकार हैं जिनकी ग़ज़लें उन नायाब फ़नकारों के कंठ से सुनाई दे रही हैं जिन तक पहुंचने में ही एक उम्र लग जाती है. वह पेशे से टीवी पत्रकार हैं. 'इंडिया टीवी' और फिर 'आज तक' से होते हुए अब दूरदर्शन के नेशनल चैनल एडवाइजर हैं. तमाम व्यस्तताओं के बावजूद अपने उत्साही प्रशंसकों से फोन पर लंबी बातें करने का वक़्त वे न जाने कहां से निकाल लेते हैं. आइए, गुफ्तगू की चाशनी में एक डुबकी लगाइए, उनसे रूबरू होइए.

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जीवन के दुश्वार सफ़र में, बेमौसम बरसातें सच,
उसने कैसे काटी होंगी, लंबी-लंबी रातें सच

जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई हैं सपनों की बारातें सच

मेरे लिए इस बातचीत की आदर्श शुरुआत होगी, अगर आप विदिशा के उस आलोक से शुरू करें, जो ग़ज़लों के आलोक में प्रवेश करने के लिए तैयार होने की प्रक्रिया में था? उस परवरिश में एक शायर, गीतकार या पत्रकार के जन्म लेने की गुंजाइश कितनी थी?

विदिशा का ज़िक्र रूह को महका देता है. साल 1980-82 में उम्र रही होगी कोई 10-12 बरस. गर्मियों की छुट्टियों वाली तपती दोपहरें, हम जैसे छोटे शहरों के लड़के अमूमन खेल-कूद कर गुज़ारा करते हैं, लेकिन मैं और मेरा एक दोस्त, घर का छोटा कमरा बंद करते. कूलर लगाते, जगजीत जी-चित्रा जी की ग़ज़लों का कोई कैसेट टेपरिकॉर्डर में फंसाते और शाम तक सुना करते, रात तक गुनगुनाया करते. सच कहूं तो ज़हनो-दिल की कच्ची मिट्टी में ग़ज़ल के नक्श यहीं से बने. घर और विदिशा का माहौल ख़ासा साहित्यिक था. तो यही शौक़ बाद में परवान चढ़ते-चढ़ते ग़ज़लें कहने का फ़ितूर बन गया. बाबूजी नाराज़ होते, 'चले हैं कवि-शायर बनने. पहले पढ़-लिख कर नौकरी से लगो तो ज़िंदगी बने.' मैं उनकी इस झल्लाहट का जवाब मां को दिया करता - 'आप देखिएगा मैं बड़ा होकर ग़ज़लें ही कहूंगा और एक दिन मेरी ग़ज़लें जगजीत सिंह जी गाएंगे. मां मुस्कुराकर कहतीं- 'आमीन.' दुआ के तौर पर निकला यही लफ़्ज़ बाद में मेरे पहले ग़ज़ल संग्रह का शीर्षक बना - आमीन.

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बाद में विदिशा में ही समकालीन कविता के महत्वपूर्ण नाम नरेन्द्र जैन जी और कवि मित्र ब्रज श्रीवास्तव, रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति, आलोक पुतुल, आशुतोष दुबे और पवन करण इन सबके साथ उठना-बैठना होने लगा. समकालीन कविता और साहित्यिक परिदृष्य में क्या हो रहा है. उसकी दशा-दिशा क्या है. इससे बराबर अपडेट होता रहा. यानि मेरे ग़ज़लकार का पूरा शैशवकाल, नई कविता के माहौल में बीता. भोपाल नज़दीक़ था. दौड़ कर भारत भवन चले जाना. किसी बड़े कवि या शायर का कविता-पाठ सुनना, किसी नाटक का मंचन देखना. किताबें खोज लाना. फिर विदिशा का अपना साहित्यिक वातावरण. वहीं, रामकृष्ण प्रकाशन में संपादक का कार्य, पढ़ने-लिखने की नौकरी. इस सब ने अचेतन पर गहरा असर डाला. मेरे बनते-गढ़ते रचनाकार को चुपचाप तैयार किया. मुझे लगता है मेरे भीतर बैठे ग़ज़लकार के साथ जो कुछ अच्छा हुआ उसमें यह एक बड़ा फैक्टर है, जिसने मेरी सोच-समझ को और भी विकसित किया.

आपके ग़ज़ल संग्रह आमीन ने तो शोहरतें बटोरी वो तो जग-जाहिर हैं लेकिन आपका एक कहानी संग्रह- आफ़रीन भी प्रकाशित हुआ, कहानियां लिखने का मन कब और कैसे बना?

मेरी कहानियां दरअस्ल मेरी ग़ज़लों का ही विस्तार हैं. आप देखेंगे तो कई कहानियों में जो बिंब आए हैं वो आपको मेरी ग़ज़लों के ही प्रतिबिंब लगेंगे. ग़ज़ल की अपनी परिधि है. सीमा है. जब, कहीं लगा कि यहां बात विस्तार चाहती है. ग़ज़ल में ये बात कही नहीं जा सकती, तो कहानियों की तरफ़ रुख़ कर लिया. कोई सुनियोजित योजना नहीं थी कहानियां लिखने के पीछे. इसीलिए कभी कोई गंभीर दावेदारी भी नहीं की कहानी-लेखक के रूप में.
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जवानी के आलोक से भी रूबरू करवाइए. यहां एक शरारती मुस्कान संलग्न है.

एक रचनाकार की जवानी उसकी रचनाओं की ताज़गी और सरोकारों में निहित होती है. जब तक उसकी रचनात्मकता में ताज़गी है, नयापन और नए सरोकार हैं वो जवान है. इसीलिए मैं सदा रचनात्मत और सकारात्मक रहता हूं. और सदा कुछ न कुछ नया करते रहने में जुटा रहता हूं. किसी मित्र ने कभी कहा था - 'काम कीजिए और करते रहिए. इससे बेहतर और कुछ नहीं.' मैंने इस मंत्र में जोड़ा है कि - हां उससे सकारात्मक और कुछ भी नहीं. इसीलिए हर वक़्त सक्रिय और सकारात्मक रहता हूं. जवान रहता हूं.

आपके उर्दू लफ्ज़ों, लेखन और तलफ्फ़ुज़ से किसी को भी रश्क़ हो सकता है. उर्दू की तालीम हासिल की या लिख-पढ़कर ही सीखा?

डॉ. बशीर बद्र साहब का शेर है-
दुनिया में कहीं उनकी तालीम नहीं होती
दो चार किताबों को घर में पढ़ा जाता है

मेरे लिए मेरी तालीम का हर सफ़्हा घर में ही खुला. मां-बाबूजी को उर्दू का शौक़ और साहित्य की गहरी समझ थी. बड़े भाई आनंद सहर गीत कहते थे. मुझसे बड़े भाई अरुण जिनका हाल में निधन हो गया, किसी हौसले की तरह साथ रहते थे. घर में अक्सर अदबी महफ़िलें, बहसें और साहित्यिक बैठकें होती रहती थीं. तो बस, खाद-पानी मिलता रहा और धीरे-धीरे पौधा दरख़्त बनता रहा.

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आप पत्रकार हैं, तिस पर शायर भी हैं, इस कॉम्बिनेशन का आपके निजी जीवन पर कोई खास असर तो पड़ता होगा? आप खुद को क्या कहलाना पसंद करेंगे, दुनिया भर में मुशायरे पढ़ने वाला एक विनम्र पत्रकार या चैनल में नौकरी करने वाला एक विनम्र शायर? विनम्रता तो आपका सबसे प्रकट गुण है, दोनों ही स्थितियों में इस शब्द को हटाने की हिम्मत नहीं कर पाया.

दरअसल दोनों की किरदारों के लिए जो एक चीज़ सबसे ज़रूरी है वो है - संवेदना. पत्रकार भी कवि की तरह संवेदनशील होता है. उसके पास भी, कवि की तरह संवेदना के साथ-साथ पैनी दृष्टि होती है. इसीलिए इन दोनों किरदारों को मैं अलग करके कभी नहीं देख पाया. शायद तभी, घर या बाहर के जीवन में असहजता अब तक नहीं हुई. हां, आप दुनियावी बात करें तो उसमें अंतर ज़रूर है. टीवी की ज़मीन ख़ुरदुरी और दुनिया तेज़-तर्रार है जबकि कवि की ज़मीन नर्म और दुनिया झील-से ठहराव की तरह.

पत्रकारिता की बात चली ही है तो बताएं कि विदिशा के रामकृष्ण प्रकाशन से भोपाल और फिर भोपाल से दिल्ली तक का ये सफ़र कैसे संभव हुआ.

विदिशा के रामकृष्ण प्रकाशन में रहते हुए लेखन की ख़ूब स्वतंत्रता थी. समय और माहौल तो था ही. तो उस समय देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन ख़ूब किया. विशेष रूप से इंडिया टुडे, आउटलुक और दैनिक भास्कर के लिए नियमित रूप से लिखा. भास्कर में एक-दो कॉलम भी शुरू हो गए. कॉलम चर्चित हुए तो भास्कर भोपाल से बुलावा आ गया. कल तक जो काम फ़्रीलांसर के तौर पर करता था, वही मुकम्मल नौकरी में तब्दील हो गया. भोपाल की प्रिंट पत्रकारिता से दिल्ली की टीवी पत्रकारिता में लाने का श्रेय वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा जी (इंडिया टीवी) को जाता है. एक दिलचस्प याद है. आपके साथ शेयर कर रहा हूं कि रजत शर्मा जी ने मेरा इंटरव्यू लिया था और फिर इंटरव्यू के बाद हेमंत जी ने आदेश पर मुझे देर तक अपनी ग़ज़लें सुनानी पड़ी थीं. विशेष रूप से अम्मा-बाबूजी. क़रीब दो बरस इंडिया टीवी में बिताए. ऐसा कहते हैं कि आपके पिछले कर्म, आपके भविष्य की दिशाएं तय करते हैं, लिहाज़ा विदिशा में रहते हुए इंडिया टुडे के लिए जो सक्रियता दिखाई उसके पारितोष स्वरूप, टीवी टुडे नेटवर्क से बुलावा आ गया. तो क़रीब आठ बरस आजतक में काम किया. अब, जुलाई 2014 से दूरदर्शन का नेशनल चैनल एडवाइज़र हूं. ये बहुत क्रिएटिव काम है. हमेशा कुछ न कुछ क्रिएटिव करते रहने का शौक़ है इस लिए इस काम से भी बहुत ख़ुश हूं.

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'चिंतन-दर्शन जीवन-सर्जन रूह-नज़र पर छाई अम्मा' को आपने कुछेक जगहों पर 'धूप हुई तो आंचल बनकर कोने-कोने छाई अम्मा' करके पढ़ा. ऐसी ज़रूरत क्यों पड़ी?

इसका श्रेय स्व. जगजीत सिंह जी को जाता है. जब अपने एक एलबम के लिए वे ये ग़ज़ल रिकॉर्ड कर रहे थे तब उन्होंने गाने के एतबार से ये बदलाव करवाया था. तबसे यही सबकी ज़ुबान पर चढ़ गया. ये उनके लास्ट अलबम की टाइटल ग़ज़ल है जिसे आप जल्द ही सुन सकेंगे.

आप लिखते हैं
तुम्हारे पास आता हूं तो सांसे भीग जाती हैं
मुहब्बत इतनी मिलती है कि आंखें भीग जाती है

आपके पढ़ने के लहज़े में भी एक सहज मधुरता है. कुछ ऐसी कि कोई आपके अशआर दोहराएगा तो अपने स्वभाव से कुछ अधिक विनम्र होकर दोहराएगा. शायद यह आपके व्यक्तित्व का गुण ही होगा जो ग़ज़लों में सहज ही उतर आता होगा? या लिखते हुए एक अतिरिक्त प्रयास के तहत आप मधुर बने रहने की ईमानदार कोशिश करते हैं?

मैं लिखते समय, बस लिखता हूं. ज़्यादा सोचता नहीं हूं. क्योंकि सोचने का काम दिमाग़ का होता है. और दिल के कामकाज में दिमाग़ का कारोबार जोड़ते ही सारा लेखन कारोबारी हो जाता है. इसीलिए जो दिल में सहजता से आता है वही काग़़ज़ पर उतरता है और वही ज़ुबान से निकलता है.

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इस बातचीत में आपको एक डिस-एडवांटेज ये कि मैं आपको निजी तौर पर भी जानता हूं. इसलिए मैं जानता हूं कि आप एक सहज और स्वस्थ हास्य बोध के मालिक हैं. पर आपसे मिलने से पहले तक मेरे लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल था. ऐसा और क्या क्या है जो सात संदूकों में बंद किए बैठे हैं आप?

एक रचनाकार कई परतों में जीता है. वक़्त और हालात तय करते हैं कि वो अपनी किस परत से कैसे रिएक्ट करेगा.

‘आमीन’ और ‘आफ़रीन’ के बाद अब क्या लिखने की तैयारी है?

बस लिखते रहने की तैयारी है. हर दम. हर घड़ी. वो किस सांचे में ढलेगा ये सोचे बिना.

एक सवाल आपकी रचना प्रक्रिया को लेकर भी है. इरशाद कामिल कहते हैं कि वह ट्रेनी शायर बनकर लिखते हैं और फिर दो-तीन दिन बाद उस्ताद शायर बनकर अपने शेर को री-इवैल्यूएट करते हैं. कई शायर बिंबों में ही सोचते हैं. आपका भी एक थिंकिंग प्रोसेस तो होगा ही?

मैं रिक्रिएट बहुत करता हूं. अपने ही लिखे को नया करता रहता हूं. मैं ऐसा मानता हूं कि जब कुछ क्रिएट न हो तो रीक्रिएट करना चाहिए. उससे क्रिएशन की ललक बनी रहती है. थिंकिंग प्रोसेस में बहुत हड़बड़ी नहीं करता. जो सहजता से आता है उसे आने देता हूं.

आपको क्या लगता है लोगों ने आपको किस तरह के शायर के रूप में स्वीकारा है? साहित्य के कुछ जॉनर तो प्रचलित हैं ही. किसी की शायरी में बग़ावत होती है, किसी में सियासी कमेंट तो किसी में हुस्न हावी रहता है. आलोक श्रीवास्तव के मुताबिक, उनकी शायरी में क्या-क्या है?

रिश्ते. मैं अपने से जुड़े हर रिश्ते का बहुत आदर करता हूं. इस दरकते दौर में उन्हें बचाए और बनाए रखने की हर मुमकिन कोशिश करता हूं. इधर जब कई ज़िम्मेदार और अदबी लोगों ने 'रिश्तों का कवि' कहना शुरू कर दिया तो अच्छा लगा. मेरे भीतर इंसानी रिश्तों के प्रति अलग से जो अनुराग है, वो रेखांकित हुआ, खुशी हुई. मैं उन लोगों की बहुत इज़्ज़त करता हूं जो अपने आसपास के रिश्तों को सम्मान देते हैं. इसीलिए मेरी कविता में यही तत्व सबसे ज़्यादा आता है.

‘अम्मा’ और ‘बाबूजी’ जैसे मास्टरपीस के अलावा आपने यह भी लिखा कि
नजदीकी अकसर दूरी का कारण भी बन जाती है
सोच समझकर मिलना जुलना अपने रिश्तेदारों में

दो एक दिन नाराज़ रहेंगे बाबू जी की फितरत है
चांद कहां टेढ़ा रहता है सालों साल सितारों से

रिश्ते-नातों को लेकर जो संजीदगी और समझ आपकी ग़ज़लों में है, उसका ज़रूर कोई इतिहास रहा होगा? आपके पढ़ने-सुनने वालों को अच्छा लगेगा अगर आप अपनी ज़िंदग़ी के कुछ क़िस्से साझा करें, जिन्होंने आप को ऐसी समझदारी दी?

क़रीब 25 साल का था जब मां का देहांत हुआ. मैं अपने जीवन में शुरुआत से ही उनके साथ रहा. आप कहेंगे कि उसमें क्या नई बात है ? हर बच्चा रहता है ? लेकिन नहीं, मेरी मां कामकाजी थीं. प्रशासनिक सेवा में थीं इसीलिए वो घरेलू मांओं की तरह नहीं थीं. उनका जीवन, दर्शन, चिंतन, नज़रिया, समझ और सब कुछ औरों से बिलकुल अलग था. मैंने अपने आसपास की दुनिया उन्हीं की नज़र और संवेदना से देखी. मुझ पर उनका बहुत गहरा प्रभाव है. मैं अक्सर कहता हूं कि मेरे भीतर मेरी मां रहती हैं. इसलिए यहां से कुछ ग़लत नहीं हो सकता. हर पुरुष के भीतर थोड़ी-थोड़ी स्री रहनी चाहिए. क्योंकि दरख़्तों के हरे-भरे रहने के लिए नमी बहुत ज़रूरी होती है.

सबसे यादगार मुशायरा कौन सा रहा?

मुशायरे तो अब भी मयारी ही होते हैं. आप एक-दो सतही मुशायरों को छोड़ दें तो हमारे देश और दुनिया के तमाम मुशायरों में अब तक 'तिलक और टोपियां' घुस नहीं पाई हैं. इसलिए मेरे और मुझ जैसे हर शायर के लिए, लगभग हर मुशायरा, यादगार मुशायरा ही रहता है. लेकिन साल 2012 में दोहा-क़तर में एक मुशायरा हुआ था, वसीम बरेलवी साहब की सदारत और मंसूर उस्मानी साहब की निज़ामत में, उसे मैं अपने सबसे कामयाब और यादगार मुशायरे के तौर पर याद रखता हूं. साल 2007 में लाल क़िले के कवि-सम्मेलन में अपनी कामयाबी भी, शायद ही कभी भूल पाऊं जिसके बाद दिल्ली में एक नई पहचान मिली थी.

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वे इंसान जो आलोक श्रीवास्तव के शायर और इंसान को बरगद-सी छांव मुहैया कराते हैं?

मेरे अपने. दोस्त-अहबाब. रिश्ते-घर. कोई एक कहां है जिसका ज़िक्र करूं ? सबकी दुआएं शामिल हैं यहां तक आने में.

यह भी लिखा आपने कि
आए थे मीर ख्वाब में कल डांट कर गए
क्या शायरी के नाम पर कुछ भी नहीं रहा

नई पीढ़ी पर आरोप लगते हैं कि वे शायरी के अदब से नावाक़िफ़ हैं. इसमें यह सवाल भी जोड़ लें कि शायरी के नाम पर सतही चीज़ों को पॉपुलर होने का स्पेस कैसे मिल जाता है? क्या यह मान लेने का वक़्त आ गया है कि लोगों ने अच्छी शायरी समझना बंद कर दिया है?

हां ये शेर तंज़ है कविता के उस दौर पर जिसमें सिर्फ़ कविता ही नहीं हो रही, कविता के नाम पर बाक़ी सब कुछ हो रहा है. लेकिन अच्छी कविता समाप्त हो गई ऐसा मैं बिलकुल नहीं मानता. मैं देश और दुनिया के ऐसे अनगिनत मंचों पर जाता हूं जहां सिर्फ़ कविता ही सुनी जाती है. लतीफ़ाई-कविताओं और सतही-पॉपुलर-जुमलों को वहां पैर तक रखने की ज़मीन भी नहीं मिलती. दूसरी बात, मेरा भरोसा है कि आप किनके साथ खड़े हैं, इससे कहीं ज़्यादा अहम यह है कि आप किस भूमिका में खड़े हैं. आप अपनी भूमिका में तटस्थ रहिए, अगर आप अच्छा कर रहे हैं. स्तरीय कर रहे हैं तो एक न एक दिन उसको स्वीकृति ज़रूर मिलेगी.

आप मंझे हुए गीतकार भी हैं. आपके मुताबिक हिंदी साहित्यकार अच्छा लिखने के बावजूद फिल्मी दुनिया में जगह क्यों नहीं बना पाते. इसके लिए उन्हें खुद में क्या बदलाव करने चाहिए. क्या इसकी एक वजह यह भी है कि हिंदी साहित्य में कुछ खाए-पिए अघाए लोगों ने मार्केटिंग को 'एक ग़लत चीज़' के रूप में प्रचारित किया है, इसलिए नए लोग अपनी मार्केटिंग करने से डरते हैं?

फ़िल्म, एक बिलकुल अलग जॉनर है. वो बहुत डिमांडिंग हैं. हमारी हिंदी का साहित्यकार या कवि मन-रचिया होता है. उसके मन में जो आता है वही रचता है और फिर अपने ही रचे हुए को देर तक और दूर तक जीता है. डिमांडिंग लिखने का काम और कमाल, उसे ज़्यादा लुभा नहीं पाता, शायद इसीलिए वहां उसकी पटरी नहीं बैठ पाती. इसके बरक्स उर्दू शायरों में आप देखें तो एक लम्बी परम्परा आपको ऐसी नज़र आएगी जिन्होंने फ़िल्मों में भी कामयाब गीत लिखे और अदब में भी वो ख़ूब नवाज़े गए. आप कह सकते हैं कि - इस मुआमले में, शायद उर्दू वाले हिंदी वालों से ज़्यादा फ़्लेक्सिबल हैं.

नामवर सिंह को आप बाबूजी कहते हैं. उनसे अपने रिश्ते पर कुछ कहें?

साहित्य से इतर भी कुछ संबंध होते हैं. वैसे ही हैं, आप इसे पिता-पुत्र जैसा रिश्ता समझ लें. बहुत लाड़, प्यार और आशीष मिला है उनका. इसीलिए बेसाख़्ता ये संबोधन निकलता है उनके लिए.

मप्र साहित्य अकादेमी का दुष्यंत कुमार सम्मान, रूस में अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान और उसके बाद अब अमेरिका में हिंदी ग़ज़ल के लिए अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मान पाना, कैसा अनुभव रहा. एक रचनाकार के लिए सम्मान किस तरह हौसला बढ़ाने वाले होते हैं ?

हौसला छोड़िए, चुनौती की बात कीजिए. मुझे हर सम्मान एक चुनौती की तरह लगता है. वो जो प्रतीक-चिन्ह मिलता है उससे एक अजानी-सी आवाज़ आती है जो शायद मिलने वाले को ही सुनाई देती है, 'जो किया उसके लिए नवाज़े गए हो. अब इस कसौटी पर खरे उतरना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है.' लिहाज़ा हर सम्मान एक नई ज़िम्मेदारी, नई चुनौती लगता है मुझे.

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आख़िरी सवाल, अदब के आलोक को जगजीत सिंह, शुभा मुदगल, पंकज उधास से लेकर अमिताभ बच्चन तक ने गा दिया है तो क्या अब फ़िल्मों और एलबम्स की दुनिया में जाने का मुकम्मल इरादा कर लिया है ? या यह सक्रियता यहीं तक है और क्या नया होने वाला है, बताएंगे.

फ़िल्मों में पहले ही बहुत दोस्त हैं. दिल्ली में अपना काम करते हुए अगर वो कुछ ऐसा लिखवाएंगे जो मेरे मूड और मिज़ाज को सूट करेगा तो ज़रूर लिखूंगा, लिख भी रहा हूं. फ़िलहाल, अपने दौर के मशहूर संगीतकार कुलदीप सिंह जी के बेटे और ग़ज़ल के नए सितारे जसविंदर सिंह के साथ एक सोलो एलबम कर रहा हूं- ‘आमीन'. इसमें सूफ़ी गीत हैं, ग़ज़लें हैं, दोहे और क़व्वाली भी हैं. अभी हाल में इसके एक गीत का वीडियो शूट हुआ. अगले महीने दो गीतों का वीडियो शूट उदयपुर और जेसलमेर में है. पंकज उधास जी के साथ एक सिंगल ग़ज़ल-सिंगल एलबम के कॉन्सेप्ट पर काम कर रहा हूं. जो मार्च में रिलीज़ होगा. एक अपकमिंग टीवी चैनल के लिए थीम सॉन्ग लिखा है जो अलग-अलग लोक-गीतों की तर्ज़ पर रिकॉर्ड हो रहा है. हाल ही में इसका भोजपुरी वर्ज़न मालिनी अवस्थी जी ने गाया और राजस्थानी रंग को ऋचा शर्मा जी ने अपनी आवाज़ दी. 13वें प्रवासी भारतीय दिवस का थीम-सॉन्ग 'महात्मा गांधी' टीवी के ज़रिए लोकप्रिय हो रहा है. काम और अच्छा काम करते रहने की ललक बनी हुई है. अच्छा लग रहा है.

पढ़िए आलोक श्रीवास्तव के 10 चुनिंदा शेर

ये सोचना ग़लत है के' तुम पर नज़र नहीं,
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेख़बर नहीं.

अब तो ख़ुद अपने ख़ून ने भी साफ़ कह दिया,
मैं आपका रहूंगा मगर उम्र भर नहीं.

ज़रा पाने की चाहत में बहुत कुछ छूट जाता है,
नदी का साथ देता हूं, समंदर रूठ जाता है.

ग़नीमत है नगर वालों लुटेरों से लुटे हो तुम,
हमें तो गांव में अक्सर, दरोगा लूट जाता है.

जिसका तारा था वो आंखें सो गई हैं,
अब कहां करता है मुझ पर नाज़ कोई.

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा.

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक़सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्मा जी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी.

कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे कभी हथेली की सूजन,
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी.

मुझे मालूम है मां की दुआएं साथ चलती हैं,

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