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इंटरनेट ने खत्म किया मनोरंजक हिंदी साहित्य का बाजार

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पुस्तकों की दुकान चलाने वाले राजन इकबाल को आज भी वो दिन अच्छी तरह याद हैं जब चलताऊ हिंदी उपन्यास उनकी दुकान से सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तकों में शामिल थे. लेकिन आज वह दिनभर में हिंदी साहित्य की एक किताब बेचने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं.

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नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पुस्तकों की दुकान चलाने वाले राजन इकबाल को आज भी वो दिन अच्छी तरह याद हैं जब चलताऊ हिंदी उपन्यास उनकी दुकान से सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तकों में शामिल थे. लेकिन आज वह दिनभर में हिंदी साहित्य की एक किताब बेचने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं.

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इकबाल किताबें पढ़ने की आदत को खत्म करने और पॉकेटबुक साइज में आने वाले रोचक हिंदी उपन्यासों की बिक्री के कम होने के लिए मोबाइल और इंटनरनेट को दोषी मानते हैं. इकबाल अपनी दुकान में न बिके हिंदी के उपन्यासों के बंडल की ओर इशारा करते हुए आईएएनएस को बताते हैं, 'यह बमुश्किल पांच वर्ष पहले की बात है, जब अक्सर मेरे पास प्रतिदिन ऐसे ग्राहक आते थे जो एक बार में ही 50-50 किताबें खरीदते थे. अमेरिका की महिला थीं जो अक्सर मेरी दुकान पर आती थीं और एक ही समय में 75 से ज्यादा किताबें खरीदती थीं.

इकबाल उदास मन से बताते हैं, 'आज इन पुस्तकों का शायद ही कोई ग्राहक हो, और इसका एकमात्र कारण इंटनरेट, अत्याधुनिक स्मार्टफोन और लैपटॉप हैं.' 80 के दशक में हिंदी 'लुगदी साहित्य' की लोकप्रियता अपने चरम पर थी और सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा, अनिल मोहन और गुलशन नंदा जैसे लेखकों को बड़े पैमाने पर पढ़ा जाता था. लेकिन लोगों तक विभिन्न माध्यमों के जरिए इंटरनेट की पहुंच होने के बाद से हिंदी साहित्य का यह रोचक बाजार अपनी चमक खो चुका है.

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300 उपन्यासों के रचनाकर पाठक ने कहा, 'भविष्य में भी इस विधा में किसी सक्षम लेखक या पाठक वर्ग की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि अब लोग टेलीविजन, मोबाइल या इंटरनेट में कहीं अधिक रुचि रखते हैं.' अपने औपन्यासिक चरित्रों 'सुनील' और 'विमल' श्रृंखला के उपन्यासों के लिए मशहूर 75 वर्षीय पाठक ने कहा, 'इससे पॉकेट बुक्स का व्यापार कम हुआ है. अब दिल्ली और मेरठ में 80 के दशक के 80-90 प्रकाशकों के मुकाबले केवल मुट्ठीभर प्रकाशक रह गए हैं.'

अपने रहस्यमय एवं रोमांचक विषयों वाले और कम कीमत में आसानी से उपलब्ध हो जाने वाली हिंदी साहित्य की इस विधा को कभी औपचारिक तौर पर हिंदी साहित्य में शामिल नहीं किया गया, लेकिन आम जनता के बीच इनकी लोकप्रियता से कोई इनकार नहीं कर सकता. ये किताबें 30 रुपये से 150 रुपये के बीच आसानी से मिल जाती थीं. धीरज पॉकेट बुक्स के कार्यकारी निदेशक पुल्कित जैन ने बताया, 'इनकी लोकप्रियता के पीछे खराब गुणवत्ता वाले कागजों पर प्रकाशित होने के कारण कम कीमत वाला होना था.'

जैन हालांकि मानते हैं कि इनकी कम कीमतें भी इनकी गिरती लोकप्रियता को बचा नहीं पा रही हैं, जिसका मुख्य कारण आधुनिक प्रौद्योगिकी का बढ़ता प्रयोग है, जिससे पढ़ने की आदत छूटती जा रही है. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ही एक अन्य पुस्तक विक्रेता मनोज कुमार भी सहमति जताते हुए कहते हैं, 'पांच साल पहले तक जहां जहां रोज 20 के करीब किताबें बिक जाती थीं, आज मुश्किल से दो भी नहीं बिक पाती हैं.'

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मनोज ने कहा, 'मैं इस बात से सहमत हूं कि अब इन किताबों को बेचने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. हमने इन पुस्तकों की बिक्री बढ़ाने और लोगों की इन पुस्तकों में रुचि बढ़ाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो पाया. आप तब तक कुछ नहीं कर सकते जब तक आपके पास एक समर्पित पाठकगण न हों.' कुमार ने बताया, 'लेखकों ने हालिया मौत और चोरी की घटनाओं को अपने विषय में शामिल किया, लेकिन वह भी पाठकों की संख्या में वृद्धि नहीं कर पाई.'

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