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उस दिये से पूछना मेरा पता मिल जाएगा: ग़ज़लगो सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी से बातचीत

सुरेन्द्र चतुर्वेदी की साहित्य की कई विधाओं में पचास के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. आज उनके जन्मदिन पर साहित्य आजतक ने उनसे की खास बातचीत

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सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी [ फोटो सौजन्यः फेसबुक ]
सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी [ फोटो सौजन्यः फेसबुक ]

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आशियां मेरा जला कर बिजलियां रोती रहीं
उम्र भर मुझमें किसी की सिसकियां रोती रहीं...
शोर तो गुम हो गया गलियों में ढलती शाम तक
रात भर लेकिन हजारों चुप्पियां रोती रहीं...
सूखते दरिया पे उड़ते बादलों को देख कर
क्या बताऊं मुझमें कितनी मछलियां रोती रहीं...
कब समंदर देखता है मुड़के पीछे रेत के
बेख़बर इस बात से कुछ सीपियां रोती रहीं...
दंग हूं मैं इसलिए फूलों का दामन छोड़ कर
मेरी खुशबू से लिपट कर तितलियां रोती रहीं...
कांपते हाथों से ख़त तो लिख दिया उसको मगर
देर तक तन्‍हाइयों में उंगलियां रोती रहीं...... ग़ज़ल के ये अशआर सूफी सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी के हैं. संग्रह का नाम है, 'मत चराग़ों को हवा दो.' अजमेर की सूफियों की पाक धरती पर आज की ही तारीख 16 मई, 1965 को जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी पत्रकार, ग़ज़लगो, फिल्मी पटकथा, लघु फिल्म व डाक्यूमेंट्री लेखक की कई भूमिकाओं के साथ न्याय करते रहे हैं. और कई अखबारों, चैनलों व पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग का हिस्सा रहे हैं. अब तक डेढ़ हजार से ज्‍यादा ग़ज़लें कह चुके सुरेन्‍द्र की साहित्य की कई विधाओं में पचास के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनमें से दो दर्जन से अधिक तो ग़ज़ल संग्रह हैं, जिनमें 'कोई कच्चा मकान है जैसे', 'कोई अहसास बच्चों की तरह', 'आसमां मेरा भी था', 'सब्र का सफर', 'अंदाजे बयां और', 'परिंदे पढ़ रहे हैं', 'ये समंदर सूफियाना है', 'ये मुमकिन है समंदर सूख जाए', 'ग़ज़ल को ग़ज़ल रहने दो', 'काग़ज़ की ज़मीन पर', 'इस बार इतना ही', 'मेरे अंदर कई समंदर', 'मैकदा होने को हूँ', 'ग़ज़ल दुआ हो जाती है', 'अंधी गली है बंद मकान', 'सभी सुखनवर मेरे हैं', 'मंजर और भी हैं', 'वक्त के खिलाफ़' आदि उल्लेखनीय हैं.

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फिल्मी दुनिया से भी सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी का गहरा जुड़ाव रहा है ,जिसके चलते उन्होंने लाहौर, तेरा क्या होगा जानी, कुछ लोग, अनवर, कहीं नहीं, नूरजहां और अन्य तमाम फिल्मों में गीत लिखे, पटकथा लिखीं. पंजाबी, हिंदी, उर्दू आदि कई भाषाओं पर अधिकार रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी अपने ऊपर सूफी प्रभावों के कारण धीरे-धीरे सूफी सुरेन्द्र चतुर्वेदी के रूप में पहचाने जाने लगे. यों तो उन्होंने अनेक विधाएं आजमाईं पर ग़ज़ल में उनकी शख्सि‍यत परवान चढ़ी. आज वे किसी भी मुशायरे की कामयाबी की वजह माने जाते हैं.उनकी शायरी को नीरज, गुलज़ार, मुनव्वर राणा जैसे शायरों ने मुक्तकंठ से सराहा है. गुल़जार साहब ने तो जैसे उन्हें अपने हृदय में पनाह दी है. वे राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान एवं अन्य कई सम्मानों से नवाजे गए हैं. कानपुर विश्वविद्यालय से मानद डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित चतुर्वेदी इन दिनों अजमेर में रह रहे हैं. उनके जन्‍मदिन पर उनकी ग़ज़लों के चयन 'मत चराग़ों को हवा दो' के प्रकाशन अवसर पर साहित्य आजतक के लिए उनसे हुई बातचीत के अंशः

• शायरी के पीछे सोहबतों या दैवी प्रेरणाओं का हाथ होता है. आपकी शायरी की शुरुआत किस तरह हुई. किससे इसलाह आदि ली?

- शायरी ने कब मेरी ऊँगली थामी इस बारे में सोचते हुए अतीत के कुछ लम्हे याद आ रहे हैं. जहां तक मुझे याद है, जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ रहा था तब मैंने पहली कविता लिखी जो आज तक मुझे याद है. इस कविता को मेरे अध्यापकों ने बहुत सराहा और मुझे प्रोत्साहन दिया. तब से कविताओं के प्रति मेरा रुझान बढ़ने लगा. कॉलेज़ तक आते-आते मेरे लेख और कविताएं तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगीं. धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता के बाद दिनमान, सारिका, इंडिया टुडे और लगभग सभी बड़ी पत्रिकाओं में मुझे स्थान मिलने लगा. ग़ज़लों के प्रति झुकाव मेरे पहले गुरु आदरणीय मोहनस्वरूप चड्डा के सानिध्य में हुआ. वे मेरी शायरी में कहन और अदायगी के मामले में इस्लाह देकर चार चांद लगाते रहे. किन्तु उनका कम उम्र में निधन हो गया.

• समकालीन शायरों, कवियों से कैसे रिश्ते रहे. इस सलीके को सीखने सिखाने में उनका कितना योगदान रहा?

- जब शायरी मुझमें परवरिश पा रही थी तब बहुत से शायर ऐसे रहे जो मुझे पसंद आते रहे और जिन्हें मैं पसंद आता रहा. निदा फाजली, बशीर बद्र, कैलाश गुरु स्वामी, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों ने मुझे आगे बढ़ने में बड़ी मदद की. ख़ास तौर से मुशायरों में इनकी वजह से ही मुझे बुलाया जाने लगा. इसी बीच मेरी मुलाक़ात अजमेर के उस्ताद शाइर डॉक्टर मन्नान राही से हुई. उनसे मेरा मिलना ऐसा था जैसे मेरे अंदर की प्यास को बहता हुआ दरिया मिल गया हो. उन्होंने मुझे उर्दू की तालीम दी. शायरी के गुर सिखाए. उरूज़ से वाकिफ़ करवाया. यहां आपको एक मज़ेदार बात बता दूं कि मेरी शायरी कहने की रफ़्तार इतनी तेज़ रही है कि उस्ताद ए आली सलाह देते-देते थक जाते. रोज़ आठ दस ग़ज़ल. इधर राही साहब के दो दर्जन से ज़ियादा शागिर्द हैं. ऐसे में मेरे लिए समय निकालना उनके लिए बहुत मुश्किल नज़र आने लगा .
उसी दौर में फ़ानी जोधपुरी जो मेरे छोटे भाई जैसा है के ज़रिए मेरी मुलाक़ात देश के मशहूर उस्ताद शाइर हसन फतेहपुरी से हुई. उनसे मिलकर मेरी उड़ान को जैसे आसमान ही मिल गया. मज़ेदार बात यह रही कि जिस रफ़्तार से मैं शाइरी कर रहा था उसी रफ़्तार से मुझे इस्लाह मिलने लगी. कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि मैं रात के 2 बजे व्हाट्सएप पर ग़ज़ल पोस्ट कर देता. ये सोच कर की सुबह हसन साहब देख कर इस्लाह अता फरमा देंगे मगर ताज़्ज़ुब तब होता है जब रात को दो बजे ही ग़ज़ल इस्लाह के बाद लौट आती है. सच तो यही है कि उस्ताद हसन साहब की वज़ह से मेरी शाइरी में अलग अंदाज़ और ख़ुशबू लोगों तक पहुंच पा रही है.

• आपके भीतर जो सूफी कवि मन है वह क्या केवल अजमेर की देन है या इसके पीछे किसी सूफीवाद की कोई खास प्रेरणा रही है. पहले आप सुरेंद्र चतुर्वेदी थे. धीरे-धीरे सूफी सुरेंद्र चतुर्वेदी हो गए. इसके पीछे कोई वजह ?

- ओम भाई ! यदि आप पूछ रहे हैं कि सूफ़ीवाद से मेरा परिचय कब हुआ? कैसे हुआ? तो मैं आपको सच कह रहा हूं कि सूफ़ीवाद होता क्या है यह भी मुझे अभी तक ढंग से नहीं पता. पर जहां तक मुझे लोगों द्वारा सूफ़ी कहे जाने का सवाल है ये उद्बोधन मुझे मेरी मां से मिला है. मेरी मां मुझे बचपन से ही सूफ़ी कहा करती थीं. हम छह भाई बहन हैं. सभी बचपन से तेज़ तर्रार रहे. शायद मां मुझे सबसे सीधा सादा मानती थीं. इसलिए लोगों से कहती रहती थी, 'मेरा बड़ा बेटा सुरेन्द्र तो सूफ़ी संत है.' बार-बार कहने का असर यह हुआ कि मेरे घर पर पिता, भाई, बहन, अड़ोसी-पड़ोसी और मोहल्ले वाले भी मुझे सूफ़ी कहने लग गए. बाद में कॉलेज में भी इसी नाम से जाना बुलाया जाने लगा. फिर मुंबई पहुंचने पर मेरी मुलाक़ात देश के मशहूर शायर आली जनाब गुलज़ार साहब से हुई. मुझे आश्चर्य हुआ जब मेरी शायरी सुनने पढ़ने के बाद उन्होंने भी मुझे सूफ़ी कहना शुरू कर दिया. सिलसिला चल निकला और बिना सूफ़ीज्म जाने मुझे अक्का मुंबई सूफ़ी बाबा कहने लगे गया. गुलज़ार साहब से निकटता बढ़ी तो उनका रंग भी मेरी शाइरी में गाहे बग़ाए नज़र आने लगा.

• एक सूफी कवि का मन मुंबई की मायानगरी में कैसे लगता होगा?

-सच कहूं तो मुझे भीड़ से बहुत डर लगता है. यही वजह है कि मुंबई में अधिकतर मैं अपने घर में अकेले ही क़ैदी की तरह रहता हूं. ख़ुद के साथ समय बिताना, ख़ुद के साथ लंबे सफ़र पर निकल जाना मेरी आदत बन चुका है. मेरे अंदर एक बहुत विशाल दुनिया है जो मुझे बहुत पसंद करती है और जिसे मैं भी बहुत पसंद करता हूं.
आप ताज़्ज़ुब करेंगे कि मैंने पिछले 30 वर्षों में कभी आईना नहीं देखा. मुझे आईना देखने से डर लगता है ऐसी भी बात नहीं. मगर मैं जानता हूं कि आईना जो मेरी शक़्ल दिखायेगा वो किसी और सुरेन्द्र की है. जो सुरेंद्र मुझमें रहता है उसकी तो कोई शक़्ल है ही नहीं और उसे कोई नहीं दिखा सकता.

• सच है कि आप केवल सीधे सादे होने के कारण ही सूफी नहीं लगते, विचारों में भी इसका अक्स दीखता है. क्या कभी सोचा कि एक कवि और सूफी कवि में क्या खास फर्क होता है. सूफी कवियों की परंपरा में आप अपने को कहां देखते हैं?

- आपका यह सवाल ऐसा सवाल है जिसकी तलाश में मैं अब तक की सारी उम्र ज़ाया कर चुका हूं. सूफ़ियों के सिलसिले में क्या मैं कहीं हूं भी? अभी तो यही सवाल यक्ष प्रश्न है. सच तो यह है कि अभी तक मैं सूफ़ियों की ज़ुबान तक नहीं सीख पाया हूं और उनके सिलसिले में शामिल होना मेरे लिए नामुमकिन-सा ही है.

• अपने पूर्वज शायरों में किन किन से प्रेरणाएं पाईं. समकालीन शायरों में ग़ज़ल की बुनावट और स्थापत्य के लिहाज से किन्हें पसंद करते हैं?

- इस सवाल के उत्तर में चाहूं तो मैं सैंकड़ों क़दीमी शायरों के नाम गिना सकता हूं. पढ़ा बहुत है और लगभग सबको ही पढ़ा है. मगर बड़ी ही विनम्रता और ज़िम्मेदारी से कहना चाहता हूं कि मैंने मरहूम शाइरों से कहीं ज़ियादा प्रेरणा अपने समकालीन शाइरों से पाई है. मीर की ज़मीन हो या दाग़ का सिलसिला, सभी मेरे ज़ेहन में मौजूद हैं. मगर मुझ पर सवारी मेरे समकालीन शाइर ही करते हैं. दुष्यन्त के बाद हिन्दी और उर्दू शाइरी को नया सोच मिला. ग़ज़ल ने अपने पुराने लिबासों को उतारा. नए लिबास पहने. मुहावरों ने ग़ज़ल की भाषा को नई ज़मीन सौंपी. ज़दीदियत ने क़दीमी शाइरी को नए अंदाज़ दिए और इन बदलावों को मैंने तहे दिल से स्वीकार किया. आप पाएंगे कि मैं क़दीमी अंदाज़ को भी शाइरी में साथ रखता हूं और ज़रूरत पड़ने पर ज़दीतियत को भी अपना लेता हूं

• आपका मंच से भी ताल्लुक रहा है. शानदार जानदार ढंग से आप शायरी पढ़ते हैं. तो मंच से शायरी के रिश्ते को किस तरह देखते हैं?

-ईमानदारी से कहूं तो मुझे मंच की शायरी करनी ही नहीं आती. अदबी शाइरी को ही मैं मंच पर भी ले कर गया. चुटकुलों, दोहरे अर्थों वाले संवादों और ज़ुमलेबाज़ी से मैंने अपनी शाइरी को बचाकर रखा. यही वजह है कि मंच पर मेरी मौजूदगी बड़ी शाहिस्तगी से दर्ज़ की जाती है. एक और बात आपको यहां बता दूं कि मैं इस्लामिक मुशायरों में आम मुशायरों से ज़ियादा प्यार पाता हूं. मैं नात शरीफ़ भी कहता हूं, तो मनकबत भी और हम्द भी. मेरी शायरी की जान गंगा जमुनी तहज़ीब है. मैं शायरी को मज़हब के तराज़ू से नहीं तोलता. मैं अपनी शाइरी में जोड़ने की बात करता हूं. तोड़ना मेरे स्वभाव में नहीं.

• राजस्थान में ग़ज़ल की क्या स्थिति है. क्या मंच पर ग़ज़लों का दबदबा वैसा ही है जैसा कि इधर है?

- राजस्थान में सलीकेदार शाइरी की जा रही है. मुल्क़ में होने वाली शाइरी में राजस्थान किसी भी लिहाज़ से कमतर नहीं. राजस्थान के शायर फिल्मों से लेकर मंचों तक पर छाए हुए हैं. मुझे ख़ुशी है कि मैं राजस्थान में रहकर शायरी कर रहा हूं.

• एक शायर, एक कवि के रूप में आपकी चिंता व चिंतन के केंद्र में क्या होता है?

- आपने पूछा मेरे चिंतन के केंद्र में क्या रहता है? आपका यह सवाल मेरे लिए चिंतन से ज्यादा चिंता का विषय है. मेरा चिंतन आदमी के हक़ में दुआ देता है. इंसानियत पर होने वाले हमलों से चिंतित हो जाता है. मेरा चिंतन चाहता है कि नफ़रत इस दुनिया से ख़त्म हो जाए. प्यार की खुशबू से दुनिया महकती रहे.

• समाज को संस्कारित करने में ग़ज़ल की क्या भूमिका हो सकती है?


- ग़ज़ल की भूमिका अलग से कुछ तय नहीं की जा सकती. समाज के लिए शब्द की जो सार्थक भूमिका हो सकती है. वहीं ग़ज़ल की भूमिका से भी जुड़ी हुई है. शब्दों की चाहे कोई भी भाषा हो या किसी भी भाषा के शब्द हों वे अपने अर्थों तक पहुंचते-पहुंचते इंसानियत के क़रीब होने चाहिए.

फिल्मों से भी आपका वास्ता रहा है. इससे किस किस रूप में जुड़े रहे? क्या कुछ लिखा? क्या कुछ गाया गया? फिल्मी दुनिया से जुड़ने का आपका तजुर्बा क्या रहा?

- दरअसल बॉलीवुड यानी मायानगरी मुंबई को मैं कंचन नगरी कहता हूं. वही कंचन जिसका पर्यायवाची धतूरा भी है, जो ज़हरीला होता है और जिससे ज़ेवर नहीं गढ़े जा सकते. इस लिहाज़ से मुम्बई नगरी को यदि धतूरा नगरी कहा जाए तो अधिक तर्कसंगत होगा. यहां लोग अपने ख़्वाबों को आज़माने आते हैं. नब्बे फ़ीसदी ख़्वाब कुचल दिए जाते हैं. जो ख़्वाब क़ामयाब भी हो जाते हैं उनकी उम्र तय नहीं होती.
मैं ख़्वाबों को आज़माने इस धतूरा नगरी में नहीं गया. मुझे एक निहायत ही क़ामयाब शाइर जिनका देश दुनिया मे बहुत नाम है, उकसा कर मुंबई ले गए. दरसअल वे मुझसे स्क्रिप्ट्स लिखवा कर अपने नाम से प्रचारित करवाना चाहते थे. उनकी मुम्बई में ऐसे शाइरों और साहित्यकारों की बहुत बड़ी टीम है. शानदार पैसा लेकर ये लोग क़ामयाब शाइर साहब के लिए लिखते हैं.
मुझे भी मुम्बई पहुंचने पर उन्होंने ऑफर दिया. मुंह मांगी क़ीमत देने को तैयार थे. ज़मीर नहीं माना. मैंने अपने बलबूते पर मुंबई में जगह बनाई. बहुत से मित्रों के मुझ पर अहसान हैं. इनमे पहले नंबर पर आते हैं गुलज़ार साहब. उन्होंने मुझे न केवल फ़िल्म्स दिलाईं बल्कि मेरी शाइरी को सराहा, आगे बढ़ाया.
मैं सही मायने में फ़िल्मी दुनिया का शाइर नहीं. फ़िल्मों में रहकर भी मैं अपने ज़मीर और मयार को बचाए रखने की ज़िद में रहता हूं. कम फ़िल्मे मिलें, कोई बात नहीं, मगर अपना बेहतरीन दे पाऊं यही प्रयास रहता है. अभी तक काम चल रहा है. जब नहीं चलेगा अजमेर आ जाऊँगा.

फ़न ए शाइरी के लिहाज़ से हिंदी इलाक़ों से आने वाले शायर कहां चूक जाते हैं? सुरेंद्र जी ! क्या आप इस पर कुछ कहना चाहेंगे?

- शायद इस इंटरव्यू का यह सबसे ख़तरनाक़ सवाल है. इस पर कई बार मैंने कुछ कहना भी चाहा मगर महज इसलिए नहीं कह पाया कि मैं इल्मे शाइरी के मामले में अभी ख़ुद भी एक शागिर्द की हैसियत ही रखता हूं.. एक जागे हुए शागिर्द की तरह यदि कुछ कहूं तो आजकल हिंदी और उर्दू शायरी में ज़ियादातर लोग क़ाफ़िया पैमाइश को ही शाइरी समझ पा रहे हैं. जिस तरह पॉकेट बुक्स पढ़कर लोग ज्योतिषी कहलाना भर ही नहीं चाहते हैं, बल्कि ज्योतिषी बन भी बैठते हैं वैसे ही शायरी जाने बग़ैर बहुत से शाइर अपनी किताबें शाया कर शाइर भी बन जाते हैं.
मैं भाषा को देखकर नहीं बल्कि शायरी के संस्कारों को देखकर उसे हिंदी या उर्दू की मानता हूं. उर्दू भाषा में जो नफ़ासत है वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी में चाहकर भी नहीं आ पाती. यही वज़ह है कि हिंदी पढ़कर शायरी कहने वाले शाइरी के अंदर की ज़रूरत को पहचान नहीं पाते. सतही तौर पर शायरी को सीख कर वे पहाड़ चढ़ने निकलने पढ़ते हैं. ओम जी, सच मानिए, कभी ऐसा मैंने भी किया है. मेरी ग़ज़लों के शुरुआती संग्रह इसी कमी को लेकर सवालों से आंख नहीं मिला पाते.
मतला क्या है? रदीफ़ क्या है? क़ाफ़िया क्या है? मक़्ता क्या है? सिर्फ़ ग़ज़ल के जिस्मानी लिबास को देखकर ही नए दौर के शाइर ऊंची उड़ानें भरने लगते हैं. मेरा मानना है कि ग़ज़ल की ज़रूरतों को वे बहुत समय बाद समझ पाते हैं या उम्र भर भी समझ नहीं पाते .
ग़ज़ल की जान क्या होती है? यदि यह सवाल आप अच्छे-अच्छे और क़ामयाब शाइरों से पूछें तो शायद वे भी नहीं बता पाएं. बरसों उस्तादों की क़दमपोशी करते रहने के बाद इस हुनर का मामूली शायद मुझ नाचीज़ को भी अता हुआ है. ग़ज़ल की जान तगज़्ज़ुल या चमत्कार होता है जिसे सुन कर सामईन वाह वाह कर उठते हैं.
मुझे जैसा मेरे उस्ताद शाइरों ने समझाया वह तगज़्ज़ुल गिरहबन्दी से आता है. जब कोई बन्दा शेर कहता है तो दो हिस्सों में कहा जाता है. पहली पंक्ति उला मिसरा होता है, जिसे शेर का पहला हिस्सा कह सकते हैं. उसके बाद दूसरा मिसरा होता है जिसे सानी मिसरा कहा जाता है. जब कोई ज़िम्मेदार शाइर सानी मिसरे को लिखता है तो वह उसमें गिरह लगाता है यानी गिराग से बांधता है और सानी मिसरे में उसे खोलता है .
जैसे मेरा एक शेर बतौर उदाहरण देखिए. मैं कहता हूं 'आंधियों के बीच जो जलता हुआ मिल जाएगा'. यहां पहले मिसरे को मैंने 'जो' से बांधा है. यानी 'जो दिया आंधियों में जलता हुआ मिलेगा' वह आगे क्या चमत्कार पैदा करेगा ये सवाल है जो सुनने वाले के लिए है. आपने उसके ज़ेहन पर सवाल छोड़ दिया है. अब दूसरे मिसरे में मुझे जवाब देना है. मैं कहता हूं - 'उस दिये से पूछना मेरा पता मिल जाएगा.' अब दोनों को साथ पढ़ कर देखिए. आपको शाइरी की जान क्या है यानी कि तगज़्ज़ुल क्या है, पता लग जाएगा.
***

# साक्षात्कारकर्ता डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक कवि एवं भाषाविद हैं. उनकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों अन्वय एवं अन्विति सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. वे हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हैं. संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059, फोन 9810042770, मेलः dromnishchal@gmail.com

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