यह ग़ज़ल 'आज तक' के पाठक अनुराग त्रिपाठी ने गुड़गांव से हमें भेजी है. वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंजीनियर हैं, इसके बावजूद अच्छी ग़जल कह लेते हैं. अदब के इस शौक़ पर हम उन्हें बधाई और शुभकामनाएं देते हैं. आप भी कविता, कहानी, ग़ज़ल या माइक्रो-फिक्शन लिखते हैं तो उसे अपनी तस्वीर और ब्यौरों के साथ booksaajtak@gmail.com पर भेजें.
इस तरह सलीबों पर फैसले नहीं होते
बाइलज़ाम तो होते हैं लोग, गुनहगार नहीं होते
नुमाइश भी ज़रूरी है अपनी बेचारगी की
हयादारो के जख़्म यूं खुले नहीं होते
वो करता है फैसला सबके किरदारो का
तिजारती रद्दो-बदल इसमें नहीं होते
बेनक़ाब आ जाएं तो जी भर के देख लो उनको
यारों ये मंजर सबको मयस्सर नहीं होते
बात कुछ न कुछ तो थी तेरी उस नज़र में
यूं ही बेवजह हमसे रतजगे नहीं होते
अब तू दुआ दे, दवा दे या ज़हर दे चारागर
हम तेरे हो गए अब और किसी के नहीं होते
नज़र उसकी भी तेरी जेब पर ही है
बच्चे भी मासूम अब बेसबब नहीं होते
न दुआ है, न ग़िला है हमको तेरी ज़ानिब
इस उम्र में दिखावे के बस सजदे नहीं होते
इस तरह सलीबों पर फैसले नहीं होते
बाइलज़ाम तो होते हैं लोग, गुनहगार नहीं होते