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कथन पत्रिका का यह अंक काफी उम्मीदें जगाता है

'कथन' का अंक 82 भारत में शिक्षा की दशा और दिशा पर केंद्रित है. इस पत्रिका में प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक किन समस्याओं से जूझ रही है, इसकी गंभीर पड़ताल करने की कोशिश की गई है.

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कथन पत्रिका का कवर [ फोटोः आजतक ]
कथन पत्रिका का कवर [ फोटोः आजतक ]

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अच्छी शिक्षा और बेहतर इलाज- ये 2 ऐसी चीजें हैं, जो इस देश के गरीब और निम्नमध्य वर्ग की पहुंच से बाहर निकल चुकी हैं. इनसान की बुनियादी जरूरतें कारोबार में तब्दील हो चुकी हैं और इस बाज़ार में पूछ उसी की है, जिसके पास पैसे हैं. सबसे खतरनाक बात यह है कि इस असामान्य बात को सामान्य मान लिया गया है. ऐसे में जब कोई पत्रिका इन विषयों को गंभीरता से उठाती है, तो उम्मीद जगती है.
 
'कथन' का ऐसा ही उम्मीद जगाने वाला अप्रैल-जून अंक (अंक 82) भारत में शिक्षा की दशा और दिशा पर केंद्रित है. इस पत्रिका में प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक किन समस्याओं से जूझ रही है, इसकी गंभीर पड़ताल करने की कोशिश की गई है. प्रसिद्ध शिक्षाविद रोहित धनकर ने संज्ञा उपाध्याय के साथ बातचीत में बड़ी ही बेबाकी के साथ वस्तुस्थिति को सामने रखा है.

शिक्षा व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने का सरकारी प्रशासनिक ढांचा जिस तरह चरमराया हुआ है, उससे कोई सकारात्मक उम्मीद बंधती दिखती भी नहीं. इसी का फायदा उठाते हुए शिक्षा के कारोबारी पूरे तामझाम के साथ बाज़ार में उतर चुके हैं. उनके लिए शिक्षा केवल मुनाफे की चीज़ है और इसलिए उनका पूरा फोकस मुनाफ़े पर ही टिका रहता है. ऐसे में शिक्षा का किस तरह विसंस्थानीकरण हो रहा है, उसका सटीक विश्लेषण मनोज कुमार ने अपने आलेख ‘उत्तर औपनिवेशिक समाज में भारतीय शिक्षा का विसंस्थानीकरण’ में दिया है.

सतीश देशपांडे का मानना है कि शिक्षा को इस निराशाजनक परिदृश्य से युवा पीढ़ी ही निकाल सकती है और इसके लिए भी उन्हें लंबे चलने वाले आंदोलन की जरूरत महसूस हो रही है. लेकिन यह आंदोलन क्या इतना आसान है? सत्ता में बैठे लोगों के लिए शिक्षा केवल कमाई का जरिया ही नहीं बल्कि राजनीति का अखाड़ा भी है. सरला सुंदरम् ने एकलव्य की कहानी के पुनर्पाठ के जरिए इस राजनीति पर थोड़ा प्रकाश डाला है.

लक्ष्मण यादव ने भी अपने आलेख ‘सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध के नये केंद्र’  में शिक्षा में सियासी खेल को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है. अपना खजाना भरने के लिए शिक्षा व्यवस्था को खोखले कर रहे दीमकों का जब तक सफाया नहीं होगा, कोई भी आंदोलन मज़बूती के साथ खड़ा नहीं हो पाएगा. इनके पास ऐसे-ऐसे हथियार हैं कि ये सार्थक बदलाव के लिए आगे आने वाली युवा पीढ़ी को ही बांटने में इन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगता.   

हरिशंकर परसाई की 'आवारा भीड़ के खतरे' और प्रेमचंद की कहानी 'बड़े भाई साहब' को इस अंक में शामिल कर संपादक ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया है. इस सार्थक अंक के लिए वो बधाई की पात्र हैं. अंक में रमेश उपाध्याय की कहानी ‘काठ में कोंपल’, मनोज पांडेय की कहानी ‘सुनहरे दिनों की यात्रा’ में आपका स्वागत है’, प्रज्ञा रोहिणी की कहानी ‘शोध कथा’, शिवेंद्र की कहानी ‘ब्रेकअप टूल’  शामिल हैं.

प्रज्ञा की कहानी 'शोध कथा' बेजोड़ कहानी है. विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर कैसा प्रपंच चल रहा है, उसकी कलई खोलती है यह कहानी. मनोज पांडेय की कहानी ‘सुनहरे दिनों की यात्रा’ में आपका स्वागत है अच्छी कहानी है. प्रचार तंत्र के जरिए किस तरह अच्छे दिन का इल्यूजन तैयार किया गया है, इसे बड़े ही प्रभावी ढंग से इसमें पेश किया गया है.

शिवेंद्र ने अपनी कहानी 'ब्रेकअप टूल' में जातिवाद की समस्या उठाई है. गंभीर विषय और प्रभावी शुरुआत के बावजूद शिवेंद्र ने क्लाइमेक्स में कॉमेडी का पुट क्यों डाला यह मैं समझ नहीं पाया. मेरी समझ से कहानी वहीं खत्म हो जाती तो ज्यादा प्रभावी  रहती, जहां सीजेके कहता है, ‘पीढ़ियां बदल जाती हैं, तकनीकें नई हो जाती हैं पर कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं’.    

अंक में शेखर जोशी, मनमोहन, सविता सिंह, वसंत सकरगाए, शंकरानंद और कमलजीत और जसिंता केरकेट्टा की कविताएं भी उल्लेखनीय हैं.

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