(मालिनी अवस्थी की कलम से...) स्वतंत्रता का मोल जानना हो तो उस पंछी से पूछो, जो निर्बाध गगन में उड़ान भर रहा है. भारतवासियों ने भी बहुत तपस्या और त्याग के बाद स्वाधीनता पाई है. भारतवर्ष स्वाधीनता का 75वां वर्ष बहुत धूमधाम से मना रहा है. 15 अगस्त 1947 को, हमें गुलामी से मुक्ति मिल गई थी. दमन और अत्याचार के लंबे समय बाद भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ. ऐसा लोकतंत्र जिसकी मिसाल दुनिया में दी जाती है.
आज़ाद भले ही हम 1947 में हुए हों लेकिन भारत की सभ्यता और संस्कृति हजारों वर्ष पुरानी है. पराधीनता के लंबे कालखण्ड में हमारे राष्ट्र की अस्मिता को बचाये रखने में हमारी कला, संगीत, साहित्य ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. इसके अनेक उदाहरण हैं लेकिन यहां आज विशेष रूप से लोकसंस्कृति की, लोकचेतना की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगी. हमारे पूर्वजों का दायित्व बोध बहुत गंभीर था, वे कुछ भी करने से पहले उसका लक्ष्य, उसका प्रभाव, सब दूर तक सोचते थे. हमारे पूर्वजों की और हमारे ग्राम समाज की यह लोकचेतना अद्भुत है. आज आपको एक राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कजरी के विषय में बताने जा रही हूं.
सावन आते ही झूले पड़ जाते हैं. बड़े उमंग और उत्साह के साथ झूला झूला जाता है. सावन में ही देश आजाद हुआ था. 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस का अवसर है, अपने शहीदों के पुण्य स्मरण का! भारत माता को स्वतंत्र कराने के लिए, कितने ही अमर बलिदानी फांसी के क्रूर फंदे पर हंसते-हंसते झूल गए. इस कजरी के माध्यम से उन सभी को कृतज्ञ नमन है. कजरी के शब्द यूं हैं.
'कितने वीर झूले भारत में झुलनवा
झुलाइस बेईमान झूलना'
इस पारंपरिक कजरी में हमारे पूर्वजों ने वीर क्रांतिकारियों को सम्मानपूर्वक याद किया है जिसे वर्षों से उत्तरप्रदेश में चौमासा में गाया जाता रहा है. लोक की यह बानगी देखिए, यहां फांसी के फंदे को, बेईमान झूलना कहा गया है. सच ही तो है, भारत की जनता को गुलाम बनाये रखने में अंग्रेजों के ईमान और नीयत पर संदेह तो बापू को भी हो चला था! दमनकारी हुकूमत का कोई ईमान नही होता! लोकचेतना शहीदों की शहादत पर सिसकती नहीं, कथा बुनती है, आने वाली पीढ़ियों को सुनाने के लिए.
रानी लक्ष्मी बाई, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, लाला लाजपतराय, वीर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस, बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खां, खुदीराम बोस, इन सभी अमर बलिदानियों के त्याग के बारे में सभी जानते हैं लेकिन फांसी पर झूलने की त्रासदी को झूले का बिंब देकर एक राष्ट्रीय चेतना की कजरी को रच देना, यह एक चकित कर देने वाला अद्भुत प्रयोग है. आज़ादी का जश्न मनाता हुआ समाज उन क्रांतिकारियों को नहीं भूलता जो जोश के साथ फांसी के फंदे पर झूल गए किंतु उन्होंने भारत माता के सम्मान को आंच नहीं आने दी.
आज देश आज़ादी के 75वें वर्ष को ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है. भारत मां के कितने ही सपूत देश की ख़ातिर हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए. यह पारम्परिक कजरी उन्हीं वीर सेनानियों को समर्पित है. उन अनाम रचनाकार को शत्-शत् नमन है जिन्होंने इस गीत की रचना की. देश से बढ़कर कुछ नहीं, इसकी अस्मिता, इसकी शान में रक्त का कण-कण समर्पित है. आइए याद करें देशप्रेम के लिए न्योछावर बलिदान को, समर्पण की भावना को. यह झूला अपने क्रांतिकारियों के प्रति कृतज्ञ नमन है.
कितने वीर झूले भारत में झुलनवा
झुलाइस बेईमान झूलना
वीर कुंवरसिंह झूले
झूले लाजपत राय
आज़ाद भी झूले
जिगर पे गोली खायव
इलाहाबाद कंपनीबाग के दरमियनवा
झुलाइस बेईमान झूलना
जालियां बगिया में झूले
मां के कितने ही लाल
ज़रा खौफ़ न खाया
सुभाष चंद्र बोस लाल
झूला गांव गाये आज़ादी के तरनवा
झुलाइस बेईमान झूलना
हंसकर तख्त पे झूले
भगत सिंह सरदार
झांसी वाली झूली
लेकर हाथ तलवार
कितने अंग्रेजन का किया कलम गर्दनवा
झुलाइस बेईमान झूलना