भारतीय परिवारों की चहेती लेखिका मालती जोशी अपनी कहानियों से संवेदना का एक अलग संसार बुनती हैं, जिसमें हमारे आसपास के परिवार, उनका राग और परिवेश जीवंत हो उठते हैं. उनकी कहानियां संवाद शैली में हैं, जिनमें जीवन की मार्मिक संवेदना, दैनिक क्रियाकलाप और वातावरण इस सुघड़ता से चित्रित हुए हैं कि ये कहानियां मन के छोरों से होते हुए चलचित्र सी गुजरती हैं. इतनी कि पाठक कथानक में बह उनसे एकाकार हो जाता है. मालती जी का 4 जून, 1934 को हुआ था, और वह काफी कम उम्र से ही लिखने लगीं थीं.
उनकी चर्चित कृतियों में कहानी संग्रह- पाषाण युग, मध्यांतर, समर्पण का सुख, मन न हुए दस बीस, मालती जोशी की कहानियाँ, एक घर हो सपनों का, विश्वास गाथा, आखीरी शर्त, मोरी रंग दी चुनरिया, अंतिम संक्षेप, एक सार्थक दिन, शापित शैशव, महकते रिश्ते, पिया पीर न जानी, बाबुल का घर, औरत एक रात है, मिलियन डालर नोट; बालकथा संग्रह- दादी की घड़ी, जीने की राह, परीक्षा और पुरस्कार, स्नेह के स्वर, सच्चा सिंगार; उपन्यास- पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा, राग विराग; व्यंग्य- हार्ले स्ट्रीट; गीत संग्रह- मेरा छोटा सा अपनापन और अन्य पुस्तकों- मालती जोशी की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, आनंदी, परख, ये तेरा घर ये मेरा घर, दर्द का रिश्ता, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, अपने आँगन के छींटे, रहिमन धागा प्रेम का, आदि शामिल है.
हिंदी साहित्य जगत पर अमिट छाप छोड़ने वाली मालती जोशी की मराठी में भी ग्यारह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कहानियों का मराठी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, मलयालम, कन्नड भाषा के साथ अँग्रेजी, रूसी तथा जापानी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है, और उनकी कुछ कहानियां गुलजार के 'किरदार' तथा जया बच्चन के 'सात फेरे' नामक धारावाहिक का हिस्सा रही हैं. साहित्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित मालती जोशी मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भवभूति अलंकरण सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित हैं, पर उनकी नजर में उनका सबसे अहम पुरस्कार उनके पाठक हैं.
साहित्य आजतक ने सम्मानित व वरिष्ठ लेखिका मालती जोशी के जन्मदिन पर उनसे खास बातचीत की. अंशः
1. अपने बचपन और कहानीकार होने की यात्रा के विषय में बतायें?
-पिता पुरानी ग्वालियर रियासत में मजिस्ट्रेट थे. छोटे-छोटे कस्बों में स्थानांतरित होते रहते थे. इसलिये पढ़ाई में एकरूपता नहीं रह पाई. चौथी कक्षा तक घर में पढ़ाई की. पांचवीं में लड़कों के स्कूल में दाखिला लिया क्योंकि कन्याशाला केवल चौथी तक थी. आठवीं में थी तब पिताजी का स्थानांतरण हुआ. फिर आठवीं प्रायवेट करनी पड़ी. उन दिनों राज्य ग्वालियर की मिडिल परीक्षा की बहुत मान्यता थी. नवमी, दसवीं मालव कन्या विद्यालय इन्दौर से पास की. उन दिनों दसवीं (मैट्रिक) स्कूल की अंतिम कक्षा हुआ करती थी. उसके बाद इंटर प्रायवेट किया. बीए और एमए होलकर कॉलेज इन्दौर से किया.
छा़त्र जीवन में ही गीतकार के रूप में काफी लोकप्रियता अर्जित की थी. लोग मालवा की मीरा कहने लगे थे. कवि सम्मेलनों में बहुत प्रशंसा मिलती थी. कालांतर में गीतों का यह स्रोत सूख गया. मैंने तब कई विधाओं में हाथ आजमाया. रेडियो के लिये झलकियों, व्यंग्य वार्तायें लिखीं. बच्चों के लिये कहानियां लिखीं. एक प्रयोग गीत रामायण का भी किया पर वह बहुत दूर तक नहीं गया. छुटपुट कहानियां भी लिखीं जो सरिता, निहारिका, लहर, कादम्बिनी आदि में छपीं. दैनिक अखबारों के रविवासरीय अंकों में भी कहानियां छपती थीं. नवम्बर 1979 में धर्मयुग में एक कहानी छपी, जिसने मुझे अखिल भारतीय मंच पर स्थापित कर दिया, उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा.
2. आपकी कहानियों में बेहद विविधता है. संवेदना, करुणा, समाज और परिवार है. आप अपने कथानक और पात्रों का चयन कैसे करती हैं?
मध्यमवर्गीय परिवार से हूं. ससुराल और पीहर दोनों ओर विशाल, लंबा चौड़ा परिवार है. और जिसे अंग्रेजी में close knit कहते हैं- दोनों परिवार वैसे ही हैं. पतिदेव घोर सामाजिक प्राणी थे. उनके मित्रों की संख्या भी कम न थी. इसलिये पात्र और कथानक के लिये मुझे कभी भटकना नहीं पड़ा. वैसे भी लेखक का संवेदनशील मन अपने आसपास से अनजाने ही कुछ न कुछ इकट्ठा करता रहता है. यह सामग्री उसके अवचेतन में जमा होती रहती है. कहानी लिखते समय कोई व्यक्ति, कोई बात, कोई प्रसंग अनायास याद आ जाता है और कहानी में फिट हो जाता है.
मेरा हमेशा यह प्रयास रहा है कि आसपास से जो भी उठाया है उनका मेकअप इस तरह हो कि पहचाने न जा सके. अपने राग द्वेष भुनाने के लिये मैं अपनी लेखनी का प्रयोग कभी नहीं करती. यहां तक कि पात्रों के नामरण में मैं बेहद एहतियात बरतती हूं. सजग रहती हूं कि कोई परिचित नाम गलत संदर्भ में न चला जाये.
3. साहित्य में आजकल जो रचा जा रहा है उस पर आपका मन्तव्य?
-हर युग का अपना एक धर्म होता है, हरेक कालखंड की अपनी एक मीरा होती है. लेखक उसी युग धर्म को निभाता है.
4. आजकल के कथाकार, साहित्यकार क्या अपना सृजन धर्म अच्छे से निभा रहे हैं?
-प्रत्येक लेखक की अपनी अवधारणा होती है, शैली होती है. उस पर टिप्पणी करने का मुझे अधिकार नहीं है. यह काम तो समीक्षकों का है.
5. आपकी कहानियों में कई पीढ़ियों को प्रभावित किया. वैसा प्रभाव आजकल के साहित्यकार क्यों नहीं छोड़ पा रहे हैं?
-इन दिनों कुल मिलाकर पढ़ने की आदत ही कम होती जा रही है. मनोरंजन के और-और साधन आ गये हैं. तिस पर हिन्दी के पाठक तो बहुत ही कम रह गये हैं. क्षेत्रीय भाषाओं का भी यही हाल है. अंग्रेजी की किताबें धड़ाधड़ बिक रही हैं. बेस्ट सेलर साबित हो रही हैं.
अंग्रेजी इतनी हावी हो गई है कि युवा पीढ़ी हिन्दी भी अंग्रेजी लिपि में लिख रही है. मैंने कार्यक्रमों में देखा है, पूरी कविता रोमन लिपि में लिखी हुई है और कवि आराम से सुना रहे हैं. जबकि हम जैसों का आधा समय तो स्पेलिंग जमाने में ही बीत जाता है.
6. पसंदीदा रचनायें, अपनी और दूसरों की?
- अपनी रचनाओं का चयन कठिन है. फिर भी दो चार नाम लूंगी. शोभयात्रा, पाषाणयुग, राग विराग, चांद अमावस का, पुनरागमनायच-आदि.
अमृतलाल नागर की मानस का हंस, शिवानी जी की ‘चौदह फेरे', मन्नू भंडारी जी की ‘आपका बेटा', सूर्यबाला जी का 'सोधीपत्र', अश्क जी का 'गिरवी दीवारें'- शरद जोशी, पीएल देशपांडे और शरत बाबू की सारी रचनायें. आशापूर्णा देवी भी अच्छी लगती हैं. सुधा मूर्ति जी की कहानियां भी प्रभावित करती हैं. अब उतना पढ़ नहीं पाती हूं इसलिये नये लेखकों के बारे में कुछ कहने से बचती हूं.
7. आजकल क्या लिख रही हैं?
- कहानियां - कहानियां - कहानियां.