ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी लेखक और कवि भालचंद्र नेमाड़े साहित्यिक गलियारों में आजकल चर्चा में हैं. अंग्रेजी विरोध के लिए चर्चित नेमाड़े ने सलमान रुश्दी और वीएस नॉयपाल की एक बार फिर आलोचना की, और ट्विटर पर रुश्दी के ट्वीट ने खूब सुर्खिया बटोरीं. आजतक के साथ इंटरव्यू में भालचंद्र नेमाड़े ने सलमान रुश्दी के साथ विवाद पर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन एक नए राज से पर्दा उठा दिया. पेश है साहित्य, पुरस्कार, राजनीति और उनकी किताब 'हिंदूः जीने का समृद्ध कबाड़' के बारे में भालचंद्र नेमाड़े से हुई बातचीत..
सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसे सम्मान लेखक को एक नई पहचान देते हैं. क्या मैं सही कह रहा हूं?
जवाबः अपनी अपनी भाषा में तो पहले ही पहचान होती है, जो बुनियादी तौर ज्यादा मूल्यवान होती है. लेकिन दूसरी भाषाओं में अगर पाठक वर्ग बढ़े तो लेखक के लिए बहुत खुशी की बात होती है. इस तरह लेखक के विचार को विस्तार मिलता है और साथ ही पहचान भी.
सवालः आप लंबे समय से रचनाशील रहे हैं. आपको साहित्य अकादमी बहुत पहले मिल गया और ज्ञानपीठ पुरस्कार अब जाकर मिला है. हालांकि ज्ञानपीठ मिलने के साथ ही विवाद भी शुरू हो गए, तो इन पुरस्कारों की राजनीति और विवाद पर क्या कहेंगे?
जवाबः किसी भी पुरस्कार को एक लेखक को हमेशा दूर से ही देखना चाहिए. अगर देने वालों को लगा कि ये कुछ काम कर रहा है और मिल गया तो ठीक है. नहीं मिला तो उससे बिगड़ता कुछ नहीं है. अपना काम तो चलता ही रहता है. लेखन पर इसका कोई असर नहीं होता.
सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद आपने सलमान रुश्दी और वीएस नॉयपाल के खिलाफ कुछ कहा और रुश्दी ने आपके खिलाफ मोर्चा खोल दिया?
जवाबः सलमान रुश्दी को मालूम नहीं कि मैंने उसको पढ़ाया है. मैं कुछ नहीं करता, वो एक दूसरा मेला चल रहा था, उसमें कुछ बोला था. उसके बाद तबसे बोल रहा है.
सवालः वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में जब ‘हिंदू’ शब्द के नए-नए मायने गढ़े जा रहे हैं. ऐसे में आपकी किताब ‘हिंदू’ को पढ़ना क्यों जरुरी है.
जवाबः यही वक्त है जब हिंदू संकल्पना का सही अर्थ समझना जरुरी है. हिंदू परंपरा का प्राचीन काल से चला आ रहा समावेशी स्वरुप सामने आना चाहिए. हिंदू परंपरा सबको साथ लेकर चलती रही है. हमेशा सबको अच्छा कहा है, सबको साथ लिया और दुनिया में ऐसी कही परंपरा नहीं है. इसलिए मैं चाहता हूं कि 'हिंदू संकल्पना' का ऐसा अर्थ सामने आए.
सवालः चेतन भगत जैसे हिंदी के कथित हितैषी हिंदी को रोमन में लिखे जाने की वकालत कर रहे हैं.
जवाबः लिपि और भाषा का सवाल बहुत भावनात्मक होता है. मैं समझता हूं हिंदी कोई बहुत कम दर्जे की भाषा नहीं है. हिंदी की एक बहुत बड़ी परंपरा रही है. बड़े-बड़े लेखक रहे हैं, लिखने और पढ़ने वालों की बड़ी तादाद रही और दुनिया की शायद तीसरी-चौथी बड़ी भाषा है. हिंदी क्यों बदले अपनी लिपि? करोड़ों लोगों की भाषा को क्यों जरुरी है लिपि बदलना? यह कोई प्रैक्टिकल बात नहीं है और रोमन लिपि बहुत साइंटिफिक नहीं है.
सवालः हमारे पाठकों के लिए ‘हिंदू: जीने का समृद्ध कबाड़’ के बारे में बताएं.
जवाबः 'हिंदू: जीने का समृद्ध कबाड़' मेरा तीसरा उपन्यास है. ये चार खंडों में है. चार खंड इसलिए कि पहले खंड में मैंने एक देहाती लड़के की कहानी कही है, जो एक पुरातत्वविद् बनता है. इसके बाद वाले खंड में भूतकाल में अपनी संस्कृति की रचना कैसे बदलती आई और उसकी स्वरचना कैसे हुई और आजतक इसमें कैसे बदलाव आए और हमने कैसे उसे अपनाया. इसको बयान किया है. किसी को यहां खत्म नहीं होना पड़ा. जैसे कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में हुआ. यह एक बहुत ही सशक्त परंपरा रही है और मुझे 'हिंदू' शब्द का अर्थ विशाल करना है.
सवालः भारतीयों के दूसरी भाषा के तौर अंग्रेजी को अपनाने और अपनी भाषाओं को ना पढ़ने पर आप क्या कहेंगे?
जवाबः इस चुनौती का हल अंग्रेजी बंद करने से होगा. हम अंग्रेजी पूरी तरह हटा नहीं सकते, क्योंकि हम गुलाम रहे हैं, तो इतनी जल्दी नहीं जाएगी. लेकिन जापान, कोरिया और चीन जैसे देश अपनी भाषाओं में पीएचडी तक को पढ़ते हैं. हमारे यहां भी ऐसा होना चाहिए. अंग्रेजी पर निर्भर होने की जरुरत नहीं है. इस देश में अंग्रेजी आने से पहले सब कैसे चलता था. मराठा साम्राज्य कैसे चला, विशाल मुगल साम्राज्य कैसे चला.
सवालः स्कूलों में जर्मन की जगह संस्कृत पढ़ाने के केंद्र सरकार के फैसले पर जमकर विवाद हुआ और जर्मन की जगह संस्कृत को नहीं मिली.
जवाबः हमारे यहां का उच्च वर्ग और सत्ता में बैठे हुए लोग अंग्रेजी को रखना चाहते हैं. इनकी सोच है कि अगर हम अंग्रेजी को रखेंगे तो सत्ता में रहेंगे. उनकी सोच है कि ये देहाती लोग है, इन्हें कुछ आता नहीं है. और जब तक ये लोग हैं तब तक अंग्रेजी जाएगी नहीं. ऐसे में जब तक जनता विद्रोह नहीं करती कि हमें अपनी भाषा में पढ़ना है, तब तक संभव नहीं है. क्योंकि दुनिया में कहीं भी दूसरी भाषा में पढ़ने की परंपरा नहीं है. सिर्फ हमारे यहां है, क्योंकि हम गुलाम रहे हैं.
सवालः अपनी भाषाओं की वकालत करने पर एक वर्ग लोगों को राष्ट्रवादी कह देता है. उसका कहना है कि यह देश लिबरल रहा है और आपको लिबरल होना चाहिए?
जवाबः ये मानसिक विकृति है कि जो अपना है उसको विकृत कहना, उसको राष्ट्रवादी कहना और जिसको अंग्रेजी आती है उसको लिबरल कहना है. दुनिया के भाषा शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि का आकलन अपनी भाषाओं में ही संभव है. सोचने के लिए अपनी भाषा चाहिए होती है.
सवालः ‘हिंदू’ के पूरा होने के बाद आप सिर्फ कविता लिखने की योजना बना रहे हैं. ऐसा क्यों?
जवाबः वो कहते हैं ना कि पहला प्यार.. तो ये मेरा पहला प्यार है. बचपन से मेरे पास कविता है. हमारा जीवन कविता से जुड़ा रहा है. चाहे महिलाओं का अनाज पीसना हो या खेती-किसानी, कविता हमारे जीवन का अभिन्न अंग रही है. मेरा पहला लेखन कविता ही रहा है.
सवालः हिंदी लेखकों में आपके प्रिय दोस्तों की सूची में कौन-कौन हैं?
जवाबः हिंदी लेखकों में चंद्रकांत देवताले, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल सहित कई लोग है, जिनके साथ आत्मीय संबंध हैं.