नगीन तनवीर प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर की बेटी हैं और वह शख्स भी, जिन्होंने आज भी हबीब के 'नया थिएटर' को जिंदा रखा है. पिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए वह लोक कला और लोक संगीत से भी जुड़ी हैं और ठुमरी भी गाती हैं. रायपुर साहित्य महोत्सव में उन्होंने 'इंडिया टुडे' की फीचर एडिटर मनीषा पांडे से बात की.
आपने ऐसा क्यों कहा कि आपके पिता पॉपुलर आर्टिस्ट नहीं थे?
मैं फिर कह रही हूं. हबीब तनवीर को पॉपुलर मत कहिए. वो पॉपुलर नहीं थे. पॉपुलर कहते ही हम उन्हें साधारण बना देते हैं, लेकिन साधारण नहीं थे. वो एक कलाकार थे, रंगमंच से उन्हें प्रेम था और उन्होंने अपना पूरा जीवन उसी के लिए समर्पित किया.
पॉपुलर शब्द से इतनी एलर्जी क्यों. हबीब तनवीर ने जीवनभर रंगमंच को बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचाने का प्रयास किया. वे तो छत्तीसगढ़ के नाचा कलाकारों को ग्लोबल प्लेटफॉर्म तक ले गए थे
नहीं. ये गलत व्याख्या है. आप लोक को मेनस्ट्रीम में लाने की कोशिश करेंगे तो उसमें से लोक गायब हो जाएगा. लोक की खूबसूरती और उसका महत्व जहां है, वहीं होने में है. मेनस्ट्रीम में आने पर वह बिगड़ जाएगी. लोक कला रहेगी ही नहीं. हम जो शहरों के लोग हैं, हमारी सोच और जीवन शैली बहुत विकृत हो गई है. लोक में अब भी शुद्धता बाकी है.
लेकिन क्या कला सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों के लिए है. क्या बड़े समूह तक पहुंचना उसका मकसद नहीं
कला को किसी के पास नहीं पहुंचना है, जिसे उसकी जरूरत होगी, वो खुद कला तक पहुंचेगा. बड़े प्लेटफॉर्म पर ले जाने की कोशिश में हमें समझौते करने होंगे. जाहिर है, इससे उसकी पहुंच तो बढ़ेगी, लेकिन शुद्धता कम हो जाएगी. उसका स्वरूप बिगड़ जाएगा.
छत्तीसगढ़ी रंगमंच के एक सत्र में आज किसी ने कहा कि हबीब तनवीर को इतनी सफलता इसलिए मिली, क्योंकि वह छत्तीसगढ़ छोड़कर दिल्ली-बंबई चले गए. यहां रहकर काम करते और उतनी ही ख्याति अर्जित करते तो कोई बात थी.
देखिए, वे तो पहले से बंबई में थे. फिल्मों में काम कर रहे थे. वे दिल्ली इसलिए गए क्योंकि फिल्मी दुनिया से आजिज आ गए थे. वह अपनी जमीन, अपनी मिट्टी से जुड़ा काम करना चाहते थे. 1955 में वह तालीम लेने इंग्लैंड गए थे, लेकिन लौटकर आए. चाहते तो वहीं रह जाते. अपनी जमीन से दूर. 'नया थिएटर' की शुरुआत तो 1959 में हुई और इसीलिए हुई थी कि पॉपुलर दुनिया में पॉपुलर बनकर रहने से उनका जी उकता गया था'
लेकिन हबीब तनवीर पॉपुलर तो हैं. छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों या छोटे शहरों में ही रह गए रंगमंच से जुड़े लोगों को तो वो ख्याति कभी नहीं मिली, जो हबीब जी को
लेकिन उन्होंने ख्याति पाने के लिए कभी काम नहीं किया. वो तो बस मिल गई. उन्होंने रंगमंच से प्यार था, लोक कहानियों और संस्कृति से प्यार था, इसलिए वे रंगमंच से जुड़े थे.
उनके नाटकों में ह्यूमर बहुत है. हंसी-हंसी में ही गहरी बात कह जाते हैं. राजनीतिक टिप्पणियां कर देते हैं. असल जिंदगी में भी क्या वे उतने ही ह्यूमरस थे
बहुत ज्यादा. हमारे घर में तो हमेशा एक ऑफ द स्टेज ड्रामा चलता रहता था. हंसाते भी बहुत थे और लड़ते-झगड़ते भी बहुत. एक बार की बात है. किसी बात पर मां और उनमें झगड़ा हो गया. फिर तो तोड़ा-फोड़ी शुरू. कप उठाकर पटक दिया, प्लेट तोड़ दी, गुलदान जमीन पर लोट लगाने लगा, ट्रे इधर फेंकी, दूधदानी उधर फेंकी. तभी मेरी मां ने दौड़कर चीनी मिट्टी के एक टी पॉट को अपने सीने से चिपका लिया और चिल्लाईं- हबीब इसे न तोड़ना.
फिर क्या हुआ
फिर क्या होना था. बेचारे टी पॉट की तकदीर अच्छी थी, वो बच गया. हमारा परिवार बिल्कुल पागल था. हर समय घर में हल्ला-गुल्ला मचा रहता था. दो पागल तो अब नहीं रहे. मैं उस पागल परिवार की आखिरी बची हुई निशानी हूं.
आजकल आप क्या कर रही हैं?
थिएटर का काम संभाले हुए हूं. म्यूजिक कॉन्सर्ट करती हूं. फोक म्यूजिक में काम कर रही हूं और ज्यादा करना चाहती हूं, लेकिन और ऊर्जा की कमी है.
'नया थिएटर' क्या कर रहा है आजकल
हम नाटक कर रहे हैं. 'चरणदास चोर' से लेकर 'कोणार्क' और 'वैशाली की नगरवधू' तक चल रहा है. पुराने नाटकों को भी जहां तक हो सके, बचाने की कोशिश है. हालांकि पुराने सारे लोग तो अब रहे नहीं. चुनौतियां भी काफी हैं, किसी तरह नया थिएटर की आत्मा को जिंदा रखा जाए.