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अभी छोटा सा ही था अब्बास

एक कविता, पेशावर में आतंकियों की शर्मनाक हरकत के बाद.

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Peshawar attack
Peshawar attack

उसकी तोतली जुबान ने अम्मी बोलना सीख लिया था
मुश्किल से वो अब्बू बोल पाता था
बाज़ार में उसकी नाप के जूते भी तो नहीं मिलते
फिर क्यों उसके माथे पे तुमने कर दिया सुराख
 
सोचा था, इसी सर को छाती से लगाकर उसकी अम्मी ने दुलारा होगा
सोचा था, घर में बदमाशियां करने पे अब्बू ने प्यार से उसे फटकारा होगा
दीदी ने दौड़ते-भागते होमवर्क करवाया होगा
दादी ने जाने से पहले छोटू की बलाएं ली होंगी
फिर क्यों उसके छोटे से सीने को सुराखों से भर दिया तुमने?
 
अभी सचमुच बहुत छोटा सा ही तो था अब्बास
 
अभी तो नाक से बहती सर्दी को उसने आस्तीन से पोंछना सीखा
अभी तो अम्मी की रजाई से निकलकर मुश्किल से अलग सोना सीखा
अभी तो लड़खड़ाते कदमों से वो चलना सीख रहा था
 
अभी तो सचमुच बहुत छोटा था अब्बास

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यह कविता हमारे सहयोगी मिहिर ने लिखी है.

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