मुख्य रायपुर शहर से तकरीबन 40 किलोमीटर दूर नया रायपुर शुक्रवार को पूरे दिन साहित्यिक हलचलों से गुलजार रहा. तकरीबन 10 एकड़ में फैले पुरखैती मुक्तांगन में सजे चार मंडपों में साहित्यिक विमर्श, आलोचना, लोक बोलियों और कविताओं की आवाजें गूंजती रहीं.
रायपुर साहित्यिक महोत्सव गजानन माधव मुक्तिबोध मंडप के अधिकांश सत्र पहले दिन कविता को समर्पित रहे. सुबह के सत्र की शुरुआत विनोद कुमार शुक्ल और नरेश सक्सेना के काव्य पाठ के साथ हुई. संचालन एकांत श्रीवास्तनव का था. इस कड़ी का अगला सत्र हिंदी के जाने-माने कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' को समर्पित था. इसी साल इस ऐतिहासिक कविता के 50 साल पूरे हुए हैं.
कविता पर बात करते हुए हिंदी लेखकों नरेश सक्सेना, लीलाधर मंडलोई और प्रभात त्रिपाठी ने मुक्तिबोध के जीवन और रचना कर्म को याद किया. नरेश सक्सेना ने कहा कि मुक्तिबोध से पहले हिंदी के सभी बड़े और महत्वपूर्ण कवि उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले थे. चाहे वे धर्मवीर भारती हों, हरिवंशराय बच्चन हों या रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह या कुंवर नारायण हों. लेकिन मुक्तिबोध के बाद से यह परिदृश्य बिलकुल उलट गया.
विनोद कुमार शुक्ल से बातचीत पढ़ें
'प्रतिरोध का साहित्य' नामक सत्र स्त्रियों के प्रतिरोध के स्वर के नाम रहा. इस सत्र में अर्चना वर्मा, रमणिका गुप्ता, जया जादवानी, सुमन केशरी और गीताश्री के वक्तव्यों और सवालों का मुख्य केंद्र एक पुरुष प्रधान समाज में स्त्री प्रतिरोध के स्वर थे. रमणिका गुप्ता ने स्त्रियों के साथ समाज के हाशिए पर पड़े अन्य वर्गों जैसे दलितों और आदिवासियों के प्रतिरोध के स्वर को भी समाहित किया. गीताश्री ने अपने वक्तव्य में कहा कि साहित्य हमें उन मकबरों से आजाद करता है, जिसमें इंसानों को कैद कर दिया गया है.
इस आयोजन के महत्वपूर्ण सत्रों में से एक था पदुमलाल पुन्नाधलाल बख्शी मंडप में हुआ काव्यपाठ का सत्र- 'कविता की कई जुबान'. इस सत्र में मराठी, उड़िया, सिंधी और अंग्रेजी भाषाओं के कवियों ने अपनी-अपनी भाषाओं में काव्यपाठ किया और फिर उसका हिंदी तर्जुमा भी पढ़ा. इस सत्र में मराठी में हेमंत दिवटे , उड़िया में पारमिता सतपथी, सिंधी में जया जादवानी और अंग्रेजी में मेनका शिवदासानी ने अपनी कविताएं पढ़ीं.
इस मंडप में सुबह हुए सत्र 'क्या लुप्त हो जाएगा लोक' में पीयूष दईया, भानु भारती, आराधना प्रधान और रफीक मसूदी ने लोक भाषा और संस्कृति के विविध आयामों पर बातचीत की. इस सत्र को संबोधित करते हुए पीयूष दईया ने कहा, 'हम यहां लोक के बारे में बात कर रहे हैं और इस पूरी बातचीत से दरअसल लोक ही अनुपस्थित है. लोक के बारे में भी हम बात कर रहे हैं. हम शहरी और आधुनिक लोग.' मुकुटधर पांडेय मंडप में दिन भर चले सत्र छत्तीसगढ़ी कला, संस्कृति, सिनेमा और रंगमंच को ही समर्पित रहे .
शाम हो रही थी और सभी मंडपों में सत्र अपनी समाप्ति की ओर थे. पूरे दिन काफी वैचारिक गहमा-गहमी का माहौल रहा था. शाम होते-होते व्यंग्य पर हुए एक सत्र की हल्की-फुल्की बातचीत ने माहौल को बिल्कुल हल्का कर दिया. बदलते परिवेश में व्यंग्य सत्र में अशोक चक्रधर ने अपनी हल्की -फुल्की बातों और व्यंग्यों से खूब हंसाया.