साहित्य आजतक, 2017 के दूसरे दिन दूसरे सत्र में लेखक अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडेय और अलका सरावगी ने शिरकत की. इस दौरान इन हस्तियों ने साहित्यिक विमर्श किया. अशोक वाजपेयी ने सोशल मीडिया पर कहा, आजकल सोशल मीडिया नाम की एक विचित्र व्यवस्था है, जो पता नहीं कितनी सोशल है और कितनी मीडिया. आज-कल फैसला सुनाया जाने लगा है. जबकि आपका काम सिर्फ सच्चाई बताना है.
आगे साहित्य में सफलता-असफलता के सवाल पर अशोक वाजपेयी ने कहा, गजानन माधव मुक्तिबोध विफलता के सबसे बड़े प्रतिमान थे. कभी उनके जीवित रहते उनका कविता संग्रह नहीं छपा. उनके पास कभी इतना पैसा नहीं हुआ कि चेक काट सकें. लेकिन बाद में वो इतने सफल हुए कि उनका नाम आज भी चल रहा है. हमें सार्थकता और सफलता के बीच अंतर करना चाहिए. मैं तो विफल हूं. सार्थक भी नहीं हूं. दरअसल, साहित्य का काम व्यक्तगित विवेक को उकसाना भी है. साहित्य का काम विचलित करना भी है. साहित्य ने चोट भी की है. जैसे कबीर ने सबसे ज्यादा पंडितों को बुरा कहा.ईश्व-अल्ला सबके बारे में लिखा.
उपन्यासकार मैनेजर पांडे ने कहा, मुक्तिबोध हिन्दी भाषी क्षेत्र के नहीं थे. उनकी काव्य पर मराठी का भी असर है. नागार्जुन या केदारनाथ अग्रवाल की जो भाषा थी, वो मुक्तिबोध की नहीं थी. मुक्तिबोध उन कवियों में से थे जो समझते थे कि कविता समझने के लिए सारा प्रयास कवि ही नहीं, पाठक को भी करनी चाहिए. कविता समझने के लिए आपको कई चीजें जुटानी पड़ती हैं; जैसे उस कविता की परंपरा क्या है, कहां से बात आती है वहां, भाषा की संरचना क्या है. बिंब आदि कहां के हैं.
अलका सरावगी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए साहित्यिक कृतियों पर सिनेमा रचे जाने के सवाल पर कहा, कुमार साहनी कलीकथा पर फिल्म बनाना चाहते थे. लेकिन वे जो बना रहे थे, वो मुझे समझ नहीं आई. बालाजी ने भी कॉन्टेक्ट किया, लेकिन मैंने इंकार कर दिया. सिनेमा साहित्य अलग-अलग चीजें और माध्यम हैं.