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बाजारवाद और मीडिया: क्योंकि सच नहीं बदलता, इसलिए नहीं बदलना चाहिए पत्रकार का जमीर

क्या बाजारवाद के दौर का मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो रहा है या फिर वाकई मीडिया पर बाजारवाद हावी हो चुका है. क्या मायने हैं बाजारवाद के और कैसे इस दौर में रहते हुए मीडिया अपनी स्वतंत्रता बनाये रखे है, पढ़िए इस लेख में

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प्रतीकात्मक इमेज [ GettyImages ]
प्रतीकात्मक इमेज [ GettyImages ]

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सदियों पहले किसी महानुभाव ने पेट को पापी कह दिया. आज तक पेट ऐसा विलेन बना बैठा है कि उसे भरने की हर जुगत पाप की श्रेणी में आ जाती है. भले ही पेट केवल एक अंग है, जहां चटोरी जीभ से होकर खाना पहुंचता है और शरीर के बाकी अंगों तक ज़रूरी रसायन को निचोड़ कर पेट ही भेजता है. कहने का तात्पर्य यह कि हमारी दुनिया में किसी भी चीज़ को लेकर एक सोच बन जाती है और फिर उस लेबल को हटा पाना नामुमकिन सा हो जाता है. ऐसा ही एक लेबल बाजार के माथे पर चस्पा है.

मीडिया और बाजार के नाजुक रिश्ते को समझने से पहले चंद सच को स्वीकार करके चलना होगा. मीडिया समाज का चौथा स्तम्भ होने के साथ- साथ एक व्यवसाय भी है. मीडिया स्कूलों से निकलने वाले छात्र समाज सुधार के साथ-साथ रोटी भी कमाना चाहते हैं. मीडिया का विस्तार बाजारवाद के दौर में ही सम्भव हो पाया है. मीडिया के विस्तार से मीडिया की आज़ादी बढ़ी है. लेकिन इसके साथ ही तैयार हो गई है, वह पतली-सी रेखा, जो मीडिया के बाजारी और बाजारू होने का फर्क तय करती है, जहां ख़बरें बाजार के मिजाज से लिखी जाती हैं, जहां स्पॉन्सर के पैसों की खनक, आवाज की धमक तय करती है.

तो क्या बाजारवाद के दौर का मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो रहा है. या फिर वाकई मीडिया पर बाजारवाद हावी हो चुका है. क्या मायने हैं बाजारवाद के और कैसे इस दौर में रहते हुए मीडिया अपनी स्वतंत्रता केवल राजनीतिक विचारधारा से नहीं, बल्कि बाजार से भी बनाये रखे. इन सवालों के जवाब सैद्धांतिक हैं, उन्हें व्यावहारिक बनाना मौजूदा युग के मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है.

मीडिया एक ऐसा थानेदार है, जिसकी खबर लेने वाला कोई नहीं था. हाल के दिनों में मीडिया ही चोर पकड़ने वाली पुलिस बना. मीडिया ही सजा सुनाने वाली अदालत. निष्पक्ष रहने का पाठ पढ़ाने वाला मीडिया एकतरफा फैसले सुनाने लगा.अब यह सर्वशक्तिशाली होने का अहसास है या फिर बाजार के कुछ ऐसे समीकरण, जहां ऐसा करना मजबूरी बन चुका है.

पर आज भी देश के सुदूर कोनों में बैठे लोग मीडिया से न्याय की आस लगाते हैं. जो पुलिस प्रशासन के सताये, राजनेताओं के ठगे हैं, वे मीडिया की ओर ही ताकते हैं. यह मीडिया का परम दायित्व है कि उन उम्मीदों पर खरा रहे और मीडिया की तमाम आलोचना के बीच भी अगर लोगों की वह उम्मीद जिन्दा है, तो यह बाजारवाद के दौर में मीडिया की बहुत बड़ी उपलब्धि है.

आज मीडिया को बाजारवाद के कठघरे में खड़ा किया जाता है, तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन साथ -साथ यह उतना ही ज़रूरी भी है. चूंकि अगर बदलाव प्रकृति का नियम है, तो सकारात्मक बदलाव वक्त का तकाजा.

मीडिया के सन्दर्भ में क्या है बाजारवाद
अठारहवीं सदी की शुरुआत में अखबार में पहली बार पैसे देकर एक विज्ञापन छपा था. यह एक ऐसे क्रांतिकारी युग का आरम्भ था, जहां धीमे-धीमे छपाई के खर्च की चिन्ता खत्म होने वाली थी. पत्रकार अब केवल अपने उद्देश्य की चिन्ता कर सकते थे, जन-जन तक पहुंचने का जरिया मिल चुका था. आनेवाले दशकों में मीडिया का स्वरूप ज्यों-ज्यों बदला, विज्ञापन भी रंग-रूप बदल-बदल कर ढलते गये. बाजार का विस्तार हुआ. बाजारवाद का जन्म हुआ.

बाजारवाद की दस्तक पहले हमारी भावनाओं पर हुई, या फिर हमारे सिद्धान्तों पर, यह बहस का विषय है, क्योंकि बच्चे को वक्त नहीं दे पाने की सूरत में मां-बाप उसे एक कीमती खिलौना देकर भावनाओं की भरपाई करने लगे. शायरी की जगह स्माइली ने ले ली. गैरज़रूरी चीज़ों से अलमारियां पटने लगीं. समाज बदल गया और बदलते समाज को आईना दिखाता मीडिया भी बदल गया.

अगर परिभाषा के हिसाब से चलें, तो यहां जिस न्यूज मीडिया की चर्चा हम कर रहे हैं, वहां खबरों के चयन में बाजार हावी होने के आरोप लगे । यह महज एक अहसास है या हकीकत, इस पर हम आगे चर्चा करेंगे. पहले न्यूज मीडिया और बाजारवाद के रिश्ते को समझते हैं, खासकर टेलीविज़न न्यूज.

टीआरपी एक ऐसा शब्द है, जिसका इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है, पर यह है बेहद गूढ़. व्यवसाय की बारीकियों में न जाते हुए आसान शब्दों में समझें तो किसी चैनल को कितने लोग देख रहे हैं, यह टीआरपी से पता चलता है. किसी भी शो की टीआरपी तय करती है कि वह सफल है या नहीं. जैसे कभी एक्शन फिल्मों का दौर आता है और कभी रोमेंटिक फिल्मों का. उसी तरह कभी लोग अजब-गजब न्यूज के शो अधिक देखते हैं, कभी हार्ड पोलिटिकल डिबेट.

इसमें कोई दो राय नहीं कि हर टीवी न्यूज चैनल टीआरपी को महत्त्व देता है, क्योंकि एडवर्टाइजर्स चैनल की साख को इन्हीं अंकों से मापते हैं. लिहाजा अगर रेवेन्यू चाहिए तो टीआरपी बढ़ाना ज़रूरी है और टीआरपी बढ़ानी है तो वह दिखाना होगा, जो लोग देखना चाहते हैं, यानी एक नजरिये से देखिए, तो बाजारवाद का अक्स नज़र आने लगा.

मीडिया के कर्तव्य कहीं निर्धारित नहीं थे, पर अपेक्षा हमेशा ही रही है कि खबरें वे दिखाई जाएं, जिनसे लोगों का सरोकार हो, जिससे लोगों का भला हो. उदाहरण के तौर पर क्या कंगना रनोट और ऋतिक रोशन की चौराहे की लड़ाई से किसी का भला जुड़ा है, क्या मीडिया चैनलों और अखबारों के उन बड़े बॉसेज को यह नहीं मालूम, जो करीब चार दशक से पत्रकारिता कर रहे हैं? क्या लड़ाई से किसी का सरोकार होना चाहिए? जाहिर है छात्र होने के बावजूद आपको इन सवालों के जवाब मालूम होंगे, पर इसके व्यावहारिक पहलू को समझना भी ज़रूरी है.

सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है? अगर न इससे किसी का लेना-देना है, न किसी का कोई फायदा है, तो इस खबर को कौन देखता है? सवाल यहां आकर पेचीदा हो जाता है, क्योंकि इस खबर को लोग देखते हैं और बड़ी संख्या में देखते हैं.

लाइव मिन्ट को 2008 में दिए एक इंटरव्यू में स्टार इंडिया के तत्कालीन मुखिया उदय शंकर ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर पूछे एक सवाल के जवाब में कहा था, ‘‘हमें दो चीज़ों के बीच भेद करने की आवश्यकता है. पहला यह कि क्या ऐसी खबरें जान-बूझकर दिखायी जा रही हैं या फिर काबिलीयत की कमी और अज्ञानता की वजह से किया जा रहा है. मेरा खयाल है भारतीय न्यूज मीडिया में ये दोनों चुनौतियां मौजूद हैं. केवल टीवी नहीं, बल्कि प्रिंट में भी.’’

यह वह दौर था, जब टीवी स्क्रीन पर अजब-गजब खबरों का बोलबाला था. साफ है उस दौर में लोग ऐसी खबरें देख रहे थे, यानी इन खबरों का बाजार था. अब यहां एक बार फिर इस बात को दोहराना ज़रूरी हो जाता है कि बाजार शब्द के उल्लेख भर से कोई भी चीज़ बुरी नहीं हो जाती. मीडिया समाज का आईना है तो बाजार भी प्रतिबिम्ब है.

ऐसे में यहां एक निजी अनुभव का जिक्र इस मामले पर प्रकाश डालने के लिए ज़रूरी है. भारत के स्वतंत्रता सेनानियों पर टीवी के लिए कोई विस्तृत सीरीज नहीं बनी थी. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद के किस्से तो सबने सुने थे, पर बाधा जतिन, प्रफुल्ल चाकी जैसे सेनानियों की कहानी कमोबेश अनसुनी थी. लिहाजा वंदेमातरम नाम के शो के तहत आजतक चैनल पर स्वतंत्रता सेनानियों के किस्से सुनाये गये. शो को आलोचकों से बढ़िया रिस्पांस मिला, पर टीआरपी नहीं मिली. पांच शो के बाद उस सीरीज को बंद करना पड़ा. दूसरी तरफ ‘गांव आज तक’ नाम के शो में अलग-अलग गांव की समस्याएं, उपलब्धियां बतायी गयीं, पर टीआरपी तब-तब मिलती, जब कोई तेंदुआ, भालू गांव में घुस आने की खबर होती या फिर मारपीट की खबरें होतीं.

तो इसका क्या मतलब निकालें, लोगों को शहीदों या सड़क, बिजली की खबरों से कोई सरोकार नहीं, इससे किसी का कोई फायदा नहीं? क्योंकि कोशिश तो की गई कि ‘अच्छी’ खबरें दिखायी जाएं, पर इन ‘अच्छी’ खबरों को देखने वाले कम थे.

सीधी-सी बात है, उन खबरों का बाजार नहीं था. इनमें लोगों की रुचि नहीं थी. छात्र होने के नाते आपके मन में सवाल उठेगा कि फिर भी हमें करना तो वही चाहिए, जो तय मानकों के हिसाब से सही हो. इसका जवाब यह है कि जब आपकी बात कोई सुनेगा ही नहीं, तो सन्देश कितना भी सही हो, अपना मकसद पूरा ही नहीं कर सकता. इसीलिए दिखाया वही जाना चाहिए, जिसका बाजार हो, पर सन्देश के साथ छेड़छाड़ बिल्कुल नहीं की जानी चाहिए.

बाजार खबरों का रुख भले ही तय करे, खबरों का स्वरूप कभी न तय करे. तब बाजारवाद का दौर तो रहेगा, पर बाजारवाद कभी मीडिया पर हावी नहीं हो सकेगा.

बाजारू बनाम बाजारी
अगर आप सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं तो पत्रकारिता के छात्र होने के नाते दो शब्द आपको बेहद परेशान करते होंगे. पहला है पेड मीडिया. दूसरा है प्रेस्टीट्यूट.

ये शब्द हर उस मीडियाकर्मी या संगठन के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, जिन पर किसी विचारधारा को प्रायोजित करने का आरोप लगाना हो. यह दूसरी बात है कि आरोप खुद कितने सही या गलत होते हैं, यह सन्देह के घेरे में रहता है.

अपने आरोपों को तोड़े जाने का दर्द एक दफा तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री, जनरल (रिटायर्ड) वी. के. सिंह ने मीडिया पर प्रेस्टीट्यूट का पलटवार करके निकाला था. तब से हिन्दुस्तान में यह शब्द बेहद प्रचलित हो गया, पर यह शब्द उनका आविष्कार नहीं. अमेरिका की पत्रिका ट्रेंड्स जरनल के प्रकाशक जेराल्ड सेलेंट ने प्रेस्टीट्यूट शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले किया था.

अर्बन डिक्शनरी के मुताबिक ‘फ्रीलांस पत्रकार और मुख्यधारा से अलग मीडिया में काम करने वाले पत्रकार, अमूमन प्रेस्टीट्यूट शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए करते हैं, जो सरकार या संस्थाओं के पक्ष में आंख मूंद कर खबरें देते हैं और पत्रकार होने के नाते निष्पक्ष रहने की ज़िम्मेदारी नहीं निभाते.

पर भारत में इस शब्द का दायरा कुछ और बढ़ाकर सरकार के विरुद्ध खबरें चलाने वालों पर भी इसे लागू किया जाता है और धीरे-धीरे यह शब्द हर उस पत्रकार या संगठन के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है, जो किसी के भी विरुद्ध खबरें चलाए. यह कहना गलत नहीं होगा कि आज के दौर में कमोबेश हर पत्रकार किसी न किसी खेमे की नज़र में बाजारू है.

अब पेड मीडिया को भी समझ लें. पेड मीडिया जिस सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है, वह अनुपयुक्त है, क्योंकि इसका शाब्दिक अर्थ है एडवर्टाइजिंग के जरिये प्रचार, पर भारत में इसका इस्तेमाल यह कहने के लिए किया जाता है कि अमुक पत्रकार या संगठन ने पैसे लेकर खबर चलायी. यहां पर यह भी समझ लें कि यह एडवर्टोरियल की बात नहीं, बल्कि पत्रकारिता में भ्रष्टाचार का आरोप है.

यानी कुल मिलाकर यह जनता की मीडिया के उस रूप पर झल्लाहट है, जहां उसे यह प्रतीत होता है कि मीडिया अपने सिद्धान्तों को छोड़कर बाजारू हो गया है, पर बाजारवाद के युग में मीडिया पर विमर्श के दौरान हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार और बाजारवाद एक बात नहीं हैं. इसलिए बाजारी और बाजारू का फर्क खड़ा होता है.

बाजारू वह है, जो बिकाऊ है, जिसका पत्रकारिता के मूल्यों से, सिद्धान्तों से कोई लेना-देना नहीं, जो मीडिया को केवल व्यवसाय समझता है. मसलन चुनाव के वक्त पर पैसे लेकर किसी पार्टी विशेष के पक्ष में खबरें चलाना, या जिस पार्टी की सरकार हो, उसकी कमियों को भी नज़रअन्दाज करना ताकि संरक्षण मिले. बड़े कॉरपोरेट घरानों से एड मिलने के लालच में उनकी त्रुटियों पर पर्दा डालना.

दूसरी ओर बाजारी वह है, जो बाजार की समझ से परिपूर्ण है. जो जनता की नब्ज को समझता है और जनता के लोकप्रिय होकर बाजार का चहेता बनता है. इसके लिए वह प्रायोजित खबरें नहीं दिखाता, पर लोगों के सरोकार की खबरों को इस दिलचस्प अन्दाज में दिखाता है कि लोग उससे नज़रें नहीं फेर सकते.

इन दोनों शब्दों में केवल एक मात्रा का फर्क है, लेकिन जरा-सी हेर-फेर से जमीन-आसमान का फर्क आ जाता है. यहां सम्पूर्ण मीडिया नहीं, बल्कि अलग-अलग चैनलों और अखबारों के हिसाब से देखना होगा, क्योंकि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जो बाजारी नहीं हो पाता, वह बाजारू होने का शॉर्टकट अपना लेता है.

यह इस क्षेत्र की बड़ी दुविधा रही है कि क्या किसी पार्टी की विचारधारा से जुड़े होने का भ्रम किसी चैनल या अखबार को बाजारू बनाता है ? क्योंकि हिन्दुस्तान में भले ही पोलिटिकल लीनिंग, यानी चैनल/अखबार के राजनीतिक झुकाव को लेकर तस्वीर स्पष्ट नहीं होती, पर अमेरिका में इस बाबत एक दिलचस्प सर्वे किया गया. PEW रिसर्च सेंटर की स्टडी ने यह जानने की कोशिश की, कि अलग-अलग राजनीतिक राय रखने वाले लोग, किस टीवी/मीडिया को देखते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक अधिकतर कंजर्वेटिव विचारधारा वाले फॉक्स न्यूज देखते हैं और लिबरल्स मिले-जुले मीडिया पर निर्भर हैं. इनमें अव्वल है न्यूयॉर्क टाइम्स, तो क्या इसे इन मीडिया का पक्षपात समझें या फिर देखने वालों का भ्रम.

केवल भारत में ही मीडिया को लेकर एक नयी छटपटाहट नहीं देखी जा रही, बल्कि बाजारवाद से हमसे पहले दो-चार हो चुके अमेरिका में यह चर्चा दशकों से जारी है. ‘व्हाय अमेरिकन्स हेट द मीडिया एंड हाउ इट मैटर्स’ में जॉनाथन एम. लाड लिखते हैं, ‘‘एक निष्पक्ष, ताकतवर और व्यापक तौर पर सम्मानित न्यूज मीडिया अब इतिहास की बात है. 1950 से 1979 के बीच एक ऐसा दौर ज़रूर था, जब संस्थागत पत्रकार गणराज्य के शक्तिशाली रक्षक थे, जो राजनीतिक संवाद में सर्वोच्च स्तर बनाये रखते थे.’’

हालांकि लाड आगे लिखते हैं, ‘‘अधिकांश मामलों में किसी एक मीडिया को दुष्प्रचार की वजह से पक्षपात का दाग झेलना पड़ता है. हकीकत इससे अलग होती है.’’

किसी मीडिया हाउस के बाजारू न होने का दायित्व उसके हर एक पत्रकार पर भी होता है. जिन मूल्यों और सिद्धान्तों के लिए पत्रकारिता जानी जाती है, उसे लागू रखना व्यक्तिगत तौर पर हर पत्रकार की ज़िम्मेदारी होती है. यह भी याद रखना ज़रूरी है कि कोई भी चैनल या न्यूज मीडिया जब अपने स्तर को इतना गिराता है कि समाज में अधिकतर लोग उसे बाजारू मानने लगते हैं, तो उसका बाजार खुद-ब-खुद खत्म हो जाता है.

इस विमर्श की ज़रूरत क्यों ?
अंग्रेजी में कहा जाता है, ‘डोन्ट शूट द मैसेंजर’ यानी सन्देश लाने वाले को मत मारो. क्या मौजूदा बहस सन्देशवाहक से ऐसी नाराजगी है कि उसे बदनाम किया जा रहा है या फिर वाकई पत्रकारिता के मूल्य इतना गिर गये हैं कि इस विमर्श की ज़रूरत आन पड़ी है.

दरअसल युग बाजारवाद का है, तो यहां ज़रूरत दिन-रात दिखने की भी है और 24 x 7 की इस दुनिया में हर एक मिनट कुछ अलग दिखाने का दबाव है. कई दफा जब राजनीतिक घटनाक्रम शून्य बटे सन्नाटा होते हैं, जब कुछ इतना बड़ा नहीं हो रहा होता, जिसमें लोगों की दिलचस्पी होगी, तब अमूमन खबरों की तलाश चंद ऐसे नमूने लेकर आती है, जो लोग देखते तो हैं, पर शिकायत भी खूब होती है.

मसलन गुड़िया नाम की एक लड़की के लिए स्टूडियो में पंचायत बैठाना और स्टूडियों में ही फैसला करना कि उसे किस पुरुष के साथ जीवन बिताना चाहिए. टीआरपी छप्पर फाड़, पर पत्रकारिता के सिद्धान्तों को लेकर मतभेद हो सकते हैं. इसी तरह गड्ढे में गिरे नन्हे प्रिंस का लगातार कई दिनों तक लाइव रेस्क्यू ऑपरेशन. बड़ी खबर न होने की मजबूरी कई दफा न्यूज सेंस को भी गड्ढे में गिरा देती है, पर बाजार का तकाजा है, वर्ना चौबीस घंटे क्या चले ?

ये ऐसी खबरें थीं, जो अगर वाकई लोगों को पसन्द नहीं आतीं, तो टीवी बन्द करने का विकल्प मौजूद था, पर किसी ने ऐसा किया नहीं. शिकागो बूथ के प्रोफेसर जेसी एम शापिरो ने 2010 में अपने रिसर्च पेपर में लिखा, ‘‘आमतौर पर अखबारों के लेखों में नज़र आने वाली विचारधारा इस बात पर निर्भर करती है कि लोग क्या पढ़ना चाहते हैं. यह अखबार मालिकों की निजी राय नहीं होती है.’’

प्राइवेट मीडिया के लिए सफलता दर्शक रेटिंग पर निर्भर है, इस बात पर नहीं कि दर्शकों को प्रोग्राम अच्छा या पर्याप्त लगा कि नहीं. बाजार केवल उस मीडिया को तवज्जो देता है, जिनकी टीआरपी ऊंची है. इस बात से बाजार को कोई लेना-देना नहीं कि अमुक चैनल को देखने वाले या अखबार को पढ़ने वाले लोग कितने जागरूक, कार्यक्रम का विश्लेषण कितना सटीक था, दर्शक कितने सन्तुष्ट हुए.

कई जानकार मानते हैं कि दर्शकों की तादाद पर फोकस करने के चक्कर में मीडिया दर्शकों की क्वालिटी पर ध्यान देना भूल जाता है. मीडिया फ्रीडम नाम की किताब के मुताबिक, ‘‘खेल की खबरों की लय-ताल, राजनीतिक उठा-पटक का रोमांचक लाइव कवरेज, विदेशों में लड़े जा रहे युद्ध अब घर की महफूज चारदीवारी में उपलब्ध हैं- 80 के दशक के अंत तक न्यूज प्रोग्राम में जानकारी और मनोरंजन के इस मिश्रण को इंफोटेनमेंट कहा जाने लगा-’’ आज इंफोटेनमेंट के इस जॉनर को लोग खबरों के रूप में पूर्णतः स्वीकार कर चुके हैं. यह पहलू भी बाजारवाद की ही देन है, पर कितने लोग क्रिकेट की मनोरंजक मैच रिपोर्ट या सीरिया में चल रही हिंसा के विश्लेषण को बाजार से जोड़ते हैं, यह जानना दिलचस्प होगा. हिन्दुस्तान के दर्शक विदेशों की अपेक्षा अधिक उदार हैं.

मीडिया में बाजारवाद के एक ऐसे प्रभाव की भी चर्चा विदेश में है, जिसे शायद भारतीय दर्शक सालों से बगैर सवाल किए कुबूल कर चुके हैं. इस युग में दर्शकों को खींचने के लिए मीडिया को अति सरलीकरण का दोषी माना जाता है. अपनी किताब ‘द इंटरप्ले ऑफ इंफ्लूएंस- न्यूज, एडवर्टाइजिंग, पॉलिटिक्स एंड द इंटरनेट’ में कैथलीन हॉल जेमीसन लिखती हैं कि टीवी न्यूज की खबरों को पांच में से एक श्रेणी के हिसाब से बनाया जाता है.

*    दिखावा बनाम हकीकत
*    छोटा आदमी बनाम बड़ा आदमी
*    अच्छाई बनाम बुराई
*    दक्षता बनाम अक्षमता (चुस्ती बनाम सुस्ती)
*    अद्भुत बनाम साधारण

कैथलीन के मुताबिक दुनिया में सब कुछ श्वेत या श्याम की श्रेणी में आता है, यह अवधारणा ही गलत है. यह समाज की सोच को सरल बनाने की बजाय उलझा देता है. मीडिया दरअसल केवल एक ऐसा ढांचा देने की कोशिश करता है, जिसे आसानी से बाजार में बेचा जा सके, जिसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सके.

भारत में अगर मीडिया और बाजारवाद पर चर्चा होती है, तो यह उस पहलू को उजागर करने की कोशिश है कि हमारे देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं को क्या दिलचस्प खबरों की वजह से नज़रअन्दाज किया जाता है.

कैसे बनाएं सन्तुलन
क्या मीडिया बाजारवाद के चंगुल में फंस चुका है, क्या खबरों का वजूद, खबरों की अहमियत, केवल बाजार के तराजू में तौले जाते हैं, क्या केवल टीआरपी तय करती है कि किस खबर को किस रूप में पेश किया जाएगा ?

आजतक के मैनेजिंग एडिटर सुप्रिय प्रसाद कहते हैं, ‘‘दिन की जो सबसे बड़ी खबर है, वह सारे चैनल कमोबेश एक ही वक्त पर दिखा रहे होते हैं.  आपके चैनल पर ही उस खबर को देखने के लिए दर्शक क्यों आएंगे, इसकी कई वजहें हो सकती हैं. पहली है, आपके चैनल की छवि, यानी अगर लोग आपको सबसे तेज मानते हैं, तो उन्हें मालूम है पूरी खबर जानने के लिए कहां जाना है, पर कई दफा खबरों का ट्रीटमेंट भी दर्शकों को खींचकर अपनी ओर ले आता है.’’

स्पष्ट है, खबरों को दिखाने के लिए जब चैनलों की होड़ है, तो दर्शक खींचने की होड़ होना भी लाजमी है. इस वक्त मीडिया इंडस्ट्री में क्या चल रहा है, इसे लेकर लोगों का अलग-अलग आकलन है, जो कहीं सही, कभी भ्रम से बोझिल है, पर क्या होना चाहिए- सन्तुलन कैसे बनाना चाहिए, यह अहम है.

खबर को रोचक बनाने के सकारात्मक उपाय आजमाये जाने चाहिए. मसलन संसद की बहस दिखाते हुए यदि कामकाज का लेखा-जोखा भी दिखाया जाए, तो खबर को सन्दर्भ मिलेगा. किसी सदस्य की कही हुई कोई बात, अगर पूर्व में कही उन्हीं की किसी बात से उलट है, तो इससे भी नजरिया मिलेगा. ऐसी चीज़ों को वैल्यू एडिशन कहा जाता है और ये दर्शकों के लिए दिलचस्प होने के साथ साथ ज्ञानवर्द्धक भी होती हैं.

खबरों में पक्षपात को लेकर अमेरिका का एक उदाहरण भी दिलचस्प है. 2008 में जॉर्ज डब्लू बुश के प्रेस सेक्रेटरी स्कॉट मैक्कलीलन ने अपनी किताब में इस बात को स्वीकार किया कि वे वरिष्ठों के निर्देश पर नियमित रूप से मीडिया को ऐसी खबरें लीक किया करते थे, जो पूरी तरह से सच नहीं होती थीं. इन खबरों को मीडिया तथ्य के तौर पर पेश किया करता था. मैक्कलीलन ने लिखा कि प्रेस मोटे तौर पर सच्चाई दिखाना चाहता है और सच के साथ है, पर अधिकतर पत्रकार और नेटवर्क व्हाइट हाउस की जी हुजूरी करते हैं. भारत में शायद इतनी सच्चाई से कोई नेता या राजनीतिज्ञ ऐसी बातों को कुबूल नहीं करेगा.

यह भी समझने की आवश्यकता है कि खबर का दायरा राजनीति से शुरू होकर राजनीति पर खत्म नहीं होता. खेल से लेकर सेना, फिल्मों से लेकर सामाजिक मुद्दे, सभी खबर हैं. चौबीस घंटे के दायरे में इन सभी खबरों का सटीक मिश्रण कई समस्याओं का निवारण है. मुश्किल तब खड़ी होती है, जब किसी भी एक तरह की खबर पर ज़रूरत से ज्यादा फोकस किया जाता है. किसी जुर्म का ब्यौरा दिया जाए, तब तक वह खबर है, पर हर आधे घंटे पर उस वारदात की बारीकियां बताना कई दफा सनसनी की श्रेणी में चला जाता है. मीडिया को इससे बचने की ज़रूरत है.

खबरों को पेश करना एक चैनल में प्रोड्यूसर्स की ज़िम्मेदारी होती है, यानी स्क्रिप्ट की भाषा कैसी है, स्टोरी को कैसी तस्वीरों, कैसे म्यूजिक के साथ पेश किया जा रहा है, यह प्रोड्यूसर तय करते हैं, पर सन्तुलित रहने का बड़ा दायित्व रिपोर्टर पर होता है, जो खबर लेकर आते हैं. लाइव टीवी के दौर में यह बड़ा खतरा है कि बगैर अच्छी तरह विचार किए किसी खबर की कमेंट्री करनी है. किसी प्रेस वार्ता में कही सौ बातों में कौन-सी बात है, जिसे हाइलाइट करना है. जो बातें रिपोर्टर लाइव कहते हैं, यानी जिनमें सोचने-समझने का वक्त न के बराबर होता है, अमूमन यही चैनल की लाइन लैंथ का अन्दाजा लोगों के दिमाग में छोड़ते हैं. इसीलिए खबर को केवल एक खबर की तरह ट्रीट करना, अपना नजरिया बताने से बचना, ये चंद ऐसे मंत्र हैं, जिन पर अगर संवाददाता कायम रहें, तो मीडिया पक्षपात के अधिकतर आरोपों से अपना दामन बचा पाएगा.

दरअसल अखबारों में खबरों के लिए बाकी पन्ने और राय रखने के लिए एडिटोरियल होता है, पर चौबीस घंटे के टीवी न्यूज चैनलों में बहस के शो भी होते हैं, जहां टिप्पणी करते हुए एंकर राय ही रखता है, तो हर रिपोर्ट के बाद उस खबर पर एक कमेंट करना भी आम हो चुका है, यानी टीवी मीडिया का हर मिनट अब सम्पादकीय से बोझिल है.

सन्तुलन का एक और पहलू मीडिया स्टडीज की बुनियादी सीख में शुमार है. वह यह कि किसी भी खबर का केवल एक पहलू नहीं दिखाना चाहिए. अगर विवाद हो, तो हर पक्ष की बात सामने रखी जाए. अगर कोई बात करने से इन्कार करे तो इस बात को भी स्पष्ट सुबूत के साथ लोगों के समक्ष रखा जाए, ताकि फैसला चैनल न दे, बल्कि दर्शक ले सकें.

मिसाल के तौर पर अगर सरकार अपने किसी कामकाज के बखान के तौर पर कोई रिपोर्ट पेश करे, तो यह रिपोर्टर की ज़िम्मेदारी है कि वह उन लोगों से भी बात करे, जिनके लिए काम करने का दावा किया गया है. अगर लोग सन्तुष्ट हैं, तब भी.अगर लोग सरकार के दावों को खारिज करते हैं, तब भी, हालांकि झटपट न्यूज के दौर में कई दफा इन बातों को नज़रअन्दाज कर दिया जाता है. खबर की गहराई तक उतरने में नाकामी निष्पक्षता पर गहरा प्रहार करती है.

खबरों में सन्तुलन कोई रॉकेट साइंस नहीं है. आवश्यक केवल यह है कि पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धान्तों को याद रखा जाए. उन्हीं सरल सिद्धान्तों में सन्तुलन की कुंजी है. उन्हीं में बाजारवाद के युग में, बाजार से मुक्त रहने का समूचा सबक समाया है.

कमाई का जरिया
वैचारिक आज़ादी का एक बड़ा आधार है आर्थिक आज़ादी. इस बुनियाद पर क्या भारतीय मीडिया आज़ाद है ? इसे समझने के लिए हमें न्यूज चैनलों का बिजनेस मॉडल समझना होगा और उस मॉडल को समझने से पहले हमें हिन्दुस्तान में न्यूज चैनलों का विस्तार भी देखना होगा.
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में न्यूज मीडिया ने अप्रत्याशित बढ़त देखी. नये नियम-कानून बाजार के लिए उपयुक्त थे. लाइसेंस फीस कम थी. लिहाजा ब्रॉडकास्ट मीडिया ने अचानक उछाल देखा. करीब तीस साल पहले, जहां भारत में एक टीवी स्टेशन था, चंद सालों में कई सौ चैनलों का विस्तार हो गया.

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 तक भारत में 438 मनोरंजन और 410 न्यूज चैनल थे. हालांकि एक तरफ चैनलों की संख्या बढ़ रही थी, दूसरी ओर वैश्विक मंदी और घरेलू अर्थव्यवस्था की धीमी चाल मीडिया इंडस्ट्री के पांव का पत्थर साबित हो रहे थे. मंदी का विपरीत असर एडवटाइजिंग रेवेन्यू पर हुआ और घनघोर प्रतिस्पर्धा वाले बाजार में बड़ी तादाद में मीडियाकर्मियों की नौकरियां गयीं. कई चैनल बंद हो गये, तो कई बंद होने के कगार पर झूलते रहे.

किसी भी नये चैनल को लॉन्च करने के लिए फंड की ज़रूरत होती है. यह फंड निवेशकों की शक्ल में आता है, लेकिन निवेशकों की भूमिका यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि आनेवाले डेढ़ से दो साल तक चैनल निवेशकों पर ही निर्भर होता है. अगर धीरे-धीरे चैनल लोकप्रिय हो जाता है और दर्शकों को आकर्षित करने लगता है तो करीब करीब दो साल में वह ब्रेक इवन कर लेता है, यानी ऐसी स्थिति हासिल कर लेता है, जहां न मुनाफा है, न नुकसान. इसके बाद एडवर्टाइजर्स आने लगते हैं और चैनल मुनाफा कमाने लगता है.

लेकिन यह एक आदर्श स्थिति है. भारत में टीवी न्यूज चैनलों की संख्या इतनी अधिक है कि हर ओर होड़ है. कई चैनल ब्रेक इवन करने में ही चार साल से अधिक लगा देते हैं. न तो निवेशकों में इतना संयम है, न चैनल में काम करनेवालों में उतना धैर्य.

बहरहाल हाल के वर्षों में कई ऐसे चैनल लॉन्च किए गये, जिनमें राजनेताओं, बिल्डरों का पैसा लगा था. कई ऐसे लोगों के नाम भी निवेशक सूची में दिखे, जिनकी कमाई का जरिया ही सन्देहास्पद था. अधिकतर मामलों में इन लोगों ने इसीलिए पैसे लगाये, क्योंकि अपना एजेंडा साधने की इनकी निजी ज़रूरत थी. जाहिर है एक चैनल ही नहीं, बल्कि पूरे बाजार पर इसका प्रभाव पड़ा. दरअसल टीवी इंडस्ट्री के नियंत्रण नियम इतने लचर हैं कि कई दफा इसे मनी लॉन्डरिंग के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, ताकि ब्लैक मनी को व्हाइट किया जा सके.

आइए, अब हम टीवी इंडस्ट्री के बिजनेस मॉडल को समझें. अधिकतर विकसित टीवी मार्केट में 70 प्रतिशत कमाई सब्सक्रिप्शन से आती है और 30 फीसदी एडवर्टाइजिग रेवेन्यू से, लेकिन इतने सालों बाद भी भारत में इसका उलटा है.

भारत में एक न्यूज चैनल का औसतन 95 प्रतिशत रेवेन्यू विज्ञापन से आता है और 5 प्रतिशत केबल सब्सक्रिप्शन से. इसमें भी अगर कोई बड़ा न्यूज चैनल है, तो उसे पे चैनल होने की सहूलियत मिलती है और सब्सक्रिप्शन रेवेन्यू हासिल होता है, पर छोटे चैनलों के मामले में कई दफा सब्सक्रिप्शन रेवेन्यू न के बराबर होता है.

यानी अंततः लड़ाई टीआरपी की रह जाती है. चैनल चलाना है तो लोकप्रियता के पैमाने पर खुद को साबित करने की ज़रूरत उठती है. कई दफा जब टीआरपी की लड़ाई भीषण हो जाती है तो चैनल कन्टेंट को ऐसे स्तर पर ले जाने को मजबूर हो जाते हैं, जो केवल टीवी रेटिंग हासिल करने के लिए दिखाया जाता है. बड़े नेटवर्क खुद को इस जद्दोजहद से तो बचा लेते हैं, पर टीवी न्यूज इंडस्ट्री में उस दौर को कौन भूल पाया है, जब अचानक अजब-गजब और अंधविश्वास की सनसनीखेज खबरें छा गई थीं और कमोबेश सभी चैनल भेड़चाल में लग गये थे.

इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारिता लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है, पर भारत में चैनलों का बिजनेस मॉडल उन्हें ज़रूरत से ज्यादा बाजार पर निर्भर कर देता है. यहां न्यूज चैनलों की अनगिनत समस्याएं हैं. सब्सक्रिप्शन से आमदनी न के बराबर है. प्रतिस्पर्धा अत्यधिक है और एडवर्टाइजर्स के पास अनेक विकल्प हैं, यानी रेवेन्यू को लेकर मोलभाव की शक्ति चैनलों की कम और एडवर्टाइजर्स की ज्यादा होती है. तो क्या एडवर्टाइजिंग पर हद से ज्यादा निर्भर होना, न्यूज मीडिया की निष्पक्षता को कठघरे में खड़ा करता है ? यहां निर्मल बाबा के उस दौर को याद करिये, जब वह चाट-गोलगप्पे की चटनी से गम्भीर से गम्भीर समस्या का इलाज दे देते थे. जिस वक्त इस विवाद को न्यूज चैनलों ने दिखाया, उस वक्त लगभग सभी चैनलों पर वे एड देते थे. फिर भी यह खबर दिखाई गई.

इसी तरह जब कोका कोला और पेप्सी में पेस्टीसाइड की खबर सामने आयी, तब ये दोनों कम्पनियां भारत में सबसे बड़ी एडवर्टाइजर्स थीं. इसके बावजूद विवाद को अन्जाम तक पहुंचाया गया. यानी बिजनेस मॉडल एक ओर है और न्यूज मीडिया की निष्पक्षता दूसरी ओर, लेकिन पक्षपात के खतरे से इन्कार नहीं किया जा सकता, साथ ही ये सभी उदाहरण सब पर लागू नहीं किए जा सकते. ऐसी परिस्थितियों में हर चैनल का अपना रुख होता है.

सेल्फ रेग्यूलेशन
हमारे देश में हर उद्योग पर नियंत्रण के लिए संस्थाएं हैं. टेलीकॉम के लिए ट्राई है. स्टॉक मार्केट के लिए सेबी है, पर समाज के चार खम्भे अपना नियंत्रण स्वयं करते हैं.

मीडिया स्वायत्त है. सामाजिक सरोकार, दायित्व तय करने का जिम्मा मीडिया का अपना है. हदें भी स्वयं तय की जाती हैं. अखबारों की अपनी संस्था है. टीवी चैनलों का है एनबीए. एनबीए यानी न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन प्राइवेट टीवी न्यूज और करेंट अफेयर्स ब्रॉडकास्टर्स का संगठन है. यह पूरी तरह से सदस्यों द्वारा फंडेड है. मई, 2016 तक देश के 23 चैनल एनबीए के सदस्य थे.

एनबीए की वेबसाइट पर कामकाज का विवरण कुछ इस प्रकार है. ‘‘एनबीए सरकार के समक्ष मीडिया की विस्तार लेती इंडस्ट्री की एकीकृत और विश्वनीय आवाज पेश करता है.’’

एनबीए का दूसरा पहलू है आत्म निमंत्रण, जिसके लिए वह कोड ऑफ एथिक्स एंड ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स के जरिये गाइडलाइन्स जारी करता है. ये दिशा निर्देश सभी सदस्य चैनलों को मान्य हैं और वे इसका अनुकरण करते हैं.

क्वालिटी कंट्रोल में एनबीए की भूमिका अहम है, खासकर अगर किसी चैनल के कन्टेंट पर किसी दर्शक को आपत्ति है, तो इस शिकायत को दूर करने का जरिया बनता है एनबीए. दर्शक सीधा उस चैनल से शिकायत कर सकते हैं. अगर चैनल इसका संज्ञान नहीं लेता या फिर चैनल के उठाये कदम से दर्शक सन्तुष्ट नहीं होता, तो वह एनबीए से शिकायत कर सकता है. अगर फिर भी 14 दिनों के भीतर चैनल जवाब नहीं देता, तो उस चैनल को एनबीए द्वारा शो कॉज नोटिस जारी किया जा सकता है.

एनबीए में ज्यूरी ऑफ पीयर्स सजा तय करने का अधिकार रखते हैं. यह 9 सदस्यीय अथॉरिटी है, जिसके मौजूदा अध्यक्ष पूर्व चीफ जस्टिस (रिटायर्ड) जेएस वर्मा हैं. एनबीए के पास अधिकार है गलती करने वाले न्यूज चैनलों को पेशी के लिए बुलाने का. सुनवाई के बाद अगर गलती साबित होती है, तो चेतावनी देने का अधिकार भी एनबीए के पास है. गलत खबर दिखाने या एनबीए के दिशा-निर्देश का उल्लंघन करने के मामले में उक्त चैनल पर फाइन भी लगाया जा सकता है और उन्हें प्राइम टाइम में अपनी गलती के लिए स्क्रीन पर लिखित माफी मांगने का फरमान सुनाया जा सकता है.

अन्धविश्वास को बढ़ावा देती एक खबर चलाने का दोषी पाये जाने पर 18/4/2012 के एक आदेश के जरिये न्यूज 24 को स्क्रीन पर लिखित माफी मांगनी पड़ी थी. इसी तरह टाइम्स नाउ पर 11/3/2016 के ऑर्डर के जरिये छेड़खानी के आरोप झेल रहे एक व्यक्ति के पक्षपातपूर्ण इंटरव्यू के लिए पचास हजार का फाइन लगाया गया था. इस फैसले को लिखते हुए टिप्पणी की गई थी, ‘‘एनबीए को अहसास है कि क्यों अति उत्साहित मीडिया कभी-कभी न्याय दिलाने की कोशिश में अन्याय कर देता है. इसका आसान जवाब है, टीआरपी.’’

8 साल में एनबीए ने कुल 41 फैसले दिए हैं, लेकिन देश में कई न्यूज नेटवर्क हैं, जो एनबीए के सदस्य नहीं हैं. जो हैं भी, उन पर एक सीमा तक ही एनबीए का जोर चल सकता है. फिर भी बाजारवाद के युग में खबरों से खिलवाड़ रोकने की कोशिश सराहनीय है. पर नियंत्रण एक ओर है, दूसरी ओर है दायित्व. गलती करने पर सजा के डर से गुणवत्ता पर कंट्रोल रहेगा, इसमें दो राय नहीं, लेकिन अब वक्त आ चुका है कि एक कदम आगे बढ़ाया जाए.

कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी की तरह, मीडिया सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी एक नियम के तौर पर लागू की जा सकती हैं, ताकि दिलचस्प शोज और रोजमर्रा की खबरों के साथ लोगों के हित की खबरों को भी उतनी ही तवज्जो दी जाए.

मसलन पंजाब की धरती में पल रहे कैंसर की ख़्ाबर साल में एक बार स्पेशल के तौर पर न दिखायी जाए, बल्कि उसे अन्जाम तक पहुंचाया जाए. किसी दूर-दराज के स्कूल में अगर बच्चे बिना छत के खुले में पढ़ने को मजबूर हैं, तो केवल सवाल न उठें, परन्तु जवाबदेही तय करने तक ख़बर चले.

ऐसा नहीं है कि मीडियाकर्मी ऐसे काम नहीं करना चाहते, जिससे समाज में एक सुन्दर परिवर्तन आये, परन्तु कई दफा वे प्रतिस्पर्धा के सामने मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि एक चैनल सुधार की ख़बरें दिखाये और दूसरा उसी वक्त सनसनीखेज समाचार, तो घाटा किसका होगा, यह बताने की आवश्यकता नहीं, पर अगर सीएसआर की तरह अगर एमएसआर आया तो प्रतिस्पर्धा पर भी तो यह नियम लागू होगा, साथ ही जो दर्शक मीडिया पर सवाल उठाते हैं कि केवल सनसनीखेज ख़बरें दिखाई जाती हैं, उन दर्शकों की भी परख हो जाएगी कि कहीं केवल सनसनीखेज ख़बरें देखी तो नहीं जातीं ?

पाप, पुण्य, पत्रकारिता
एक पत्रकार की भूमिका क्या है, एक सन्देशवाहक की ? जो कुछ उसके आस-पास घट रहा है, वह ख़बर लोगों तक पहुंचाने की या फिर जो घट रहा है, वह अच्छा है या बुरा, यह भी बताने की. यह सवाल पेचीदा है, क्योंकि अगर टीवी स्क्रीन पर आप एक बहू को बुजुर्ग सास की निर्मम पिटाई करते देखते हैं, तो एंकर का संयम आपको परेशान कर सकता है. अगर किसी शो में कोई राजनेता सफेद झूठ बोलकर बचने की कोशिश कर रहा हो, तो उसे न रोकना पक्षपात के दायरे में आएगा.

लेकिन सीमा रेखा भला कौन तय करेगा ? स्टेट ऑफ महाराष्ट्र VS. राजेन्द्र जे. गांधी [(1997) 8SCC 386] केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘प्रेस, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या जनान्दोलन का ट्रायल, रूल ऑफ लॉ के विपरीत है.’’

सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य मामले में मीडिया ट्रायल पर व्यथा जतायी. मनु शर्मा VS. स्टेट [(NCT of Delhi) - 2010 (6) SCC 1 (Paras 301 and 299)] मामले में कोर्ट ने कहा, ‘‘किसी आरोपी की मासूमियत की अवधारणा, कानूनी अवधारणा है. इसे शुरुआत में ही मीडिया ट्रायल के जरिये नष्ट नहीं करना चाहिए. ख़ासकर तब, जब जांच जारी हो. अगर ऐसा किया जाता है, तो यह न्याय के बुनियादी सिद्धान्तों के विरुद्ध होगा और आरोपी को संविधान के आर्टिकल 21 के तहत मिलने वाली सुरक्षा का अतिक्रमण भी होगा. संविधान के आर्टिकल 19 (1)(a) के तहत मिलने वाली फ्रीडम ऑफ स्पीच का इस्तेमाल बेहद सावधानी और ध्यानपूर्वक किया जाना चाहिए, ताकि न्याय की राह में बाधा न आये और अदालतों में विचाराधीन मामलों पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े.’’

अदालतों की इतनी तल्ख टिप्पणियों के बावजूद मीडया ट्रायल का चलन जारी रहता है. छोटे-से लेकर बड़े मामलों में न्यूज ब्रेक के साथ ही दोषी तय कर लिया जाता है. हो सकता है कि सालों मामला चलने के बाद उस शख्स को बाइज्जत बरी कर भी दिया जाए, पर मीडिया ट्रायल में दोषी पाये जाने के बाद उस शख्स की सार्वजनिक छवि खंडित हो चुकी होती है.

फिर क्या पत्रकारों को किसी भी सूरत में स्टैंड लेने से बचना चाहिए, क्या बाजारवाद के इस युग में जब चैबीस घंटे के हर पल कोई न कोई नयी तस्वीर चैनलों पर चल रही होती है, सीधी-सपाट ख़बरें ही दी जाएं ? फिर लाइव टीवी पर, जब फौरी कमेंट्री चल रही होती है, तो सही-गलत पर नियंत्रण किसका हो और फिर इससे भी महत्त्वपूर्ण सवाल कि सही-गलत का फैसला आखिर कौन करे ?

पत्रकार की भूमिका का सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण मुमकिन नहीं, क्योंकि जो एक समुदाय के लिए निष्पक्ष होगा, वह दूसरे के लिए जहरीला विश्लेषण होगा. जो ख़बर एक पार्टी को सच्ची लगेगी, वह दूसरी पार्टी के लिए झूठी होगी. इसीलिए बाजारू ख़बरों के तमगे से बचने के लिए हम पत्रकारिता के बुनियादी नियमों के पालन पर ही लौटें. अपने सोर्स से मिल रही ख़बरों की सभी पक्षों से पुष्टि करवायी जाए. ख़बर लिखते वक्त अन्दाज से अधिक महत्त्व तथ्यों को दिया जाए और टिप्पणी के लिए जानकारों की मदद ली जाए.

हमें मंजूर हो न हो, वक्त बदल चुका है और बदले हुए वक्त ने सब कुछ बदल दिया है. अब एक महीने का नवजात करवट ले लेता है. दो साल के बच्चे मोबाइल, टेबलेट, आईपैड में महारत हासिल कर चुके हैं. धरती का पारा उलट-पुलट हो चुका है, तो पत्रकारिता भी बदली है, ख़बरों का कलेवर भी और ख़बर देखने वालों की पसन्द भी.

लेकिन जो कभी नहीं बदलना चाहिए, वह है एक पत्रकार की अन्तरात्मा, एक पत्रकार का जमीर, क्योंकि लाख आरोप लगा दिए जाएं, लाख नियम-कायदे तय कर दिए जाएं, जो सही है और जो सच है, उसकी परिभाषा कभी नहीं बदलेगी.

# आजतक की एक्जीक्यूटिव एडिटर श्वेता सिंह का यह लेख वर्तिका नंदा द्वारा संपादित पुस्तक 'मीडिया और बाजार' से लिया गया है. इस पुस्तक का प्रकाशन सामयिक बुक्स ने किया है, और 176 पृष्ठ की इस पुस्तक के पेपरबैक संस्करण का मूल्य 200 रुपए है.

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