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सुभाष चंद्र बोस जयंती: सेवा, साहस और नेतृत्व से भरे नेताजी के बचपन की प्रेरक कहानी

डॉ. सुधीर आजाद रचित बाल नाटक “बालनायक: सुभाष” की प्रष्ठभूमि एक अत्यंत उदात्त, उद्भट तथा गंभीर भाव-संश्लेषण से ओतप्रोत परिदृश्य प्रस्तुत करती है, जिसके केंद्र में उत्कल-प्रदेश (वर्तमान ओडिशा) का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष-स्थल कटक अवस्थित है, जहां की वायु में पूर्वजों के सदियों पुराने जाज्वल्य ऐश्वर्य, अनंत राष्ट्रीय चेतना, अटूट सामाजिक समरसता एवं मनोरम नैसर्गिक छटा का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है.

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सुभाष चंद्र बोस के बचपन की कहानी (फाइल फोटो)
सुभाष चंद्र बोस के बचपन की कहानी (फाइल फोटो)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अतुलनीय योद्धाओं में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है. उनके व्यक्तित्व में अद्वितीय ओज, तप, आत्मबल और राष्ट्रप्रेम का समन्वय दृष्टिगोचर होता है. किंतु हमारा समाज प्रायः उन्हीं के वयस्क जीवन, उनके वीरतापूर्ण कर्मों, राजनीतिक द़ृष्टिकोणों, तथा असाधारण सेनानायकत्व को ही प्रमुखता से याद करता है. उनके बचपन के प्रेरणास्पद प्रसंगों पर कम ही प्रकाश डाला गया है, जबकि बाल्यकाल ही वह आधारभूमि है जहां व्यक्तित्व के सूत्र जागृत होते हैं. बाल-मन सरल, संवेदनशील एवं जिज्ञासु होता है. उसे यदि आरम्भ से ही अनुकरणीय चरित्र-चित्रण, परोपकार, नेतृत्व-क्षमता एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का पाठ दिखलाया जाए, तो उसमें चमत्कारिक एवं दीर्घकालिक परिवर्तन की संभावना फलित होती है. डॉ. सुधीर आजाद रचित बाल नाटक “बालनायक: सुभाष” की रचना इसी भावभूमि पर बने कर्त्तव्य-पथ की यात्रा है. 

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डॉ. सुधीर आजाद रचित बाल नाटक “बालनायक: सुभाष” की प्रष्ठभूमि एक अत्यंत उदात्त, उद्भट तथा गंभीर भाव-संश्लेषण से ओतप्रोत परिदृश्य प्रस्तुत करती है, जिसके केंद्र में उत्कल-प्रदेश (वर्तमान ओडिशा) का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष-स्थल कटक अवस्थित है, जहां की वायु में पूर्वजों के सदियों पुराने जाज्वल्य ऐश्वर्य, अनंत राष्ट्रीय चेतना, अटूट सामाजिक समरसता एवं मनोरम नैसर्गिक छटा का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है. उसी कटक के विस्तीर्ण परिवेश में यह नाट्यकथा जन्म लेती है, जिसमें काल-खंड उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण से बीसवीं शताब्दी के आरंभिक काल तक का है, जब संपूर्ण देश अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी शक्तियों के दमनचक्र से निर्वहन करते हुए भी अपनी जड़ों में रक्षित सांस्कृतिक गरिमा और सामूहिक चेतना का अदृश्य शंखनाद धारण किए हुए था, तथा इसी मनोभूमि पर भयानक प्लेग महामारी ने उभरकर जनमानस में दहशत, अव्यवस्था और विषाद की काली घटा फैला दी थी. 
फलस्वरूप कटक के विविध मुहल्लों में त्राहि-त्राहि का भीषण वातावरण व्याप्त था. 

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बापूपाड़ा की अहम है भूमिका

अज्ञान, भीरुता और दुर्व्यवस्था के कारण मृत्यु का तांडव-नर्तन लोगों की आशाओं को चूर-चूर कर रहा था. इसी दारुण विडंबना में हाहाकार मचाते समय ने एक ओर समस्त नगर को भयाक्रांत कर रखा था, दूसरी ओर बापूपाड़ा नामक सुव्यवस्थित, स्वच्छ, अनुशासन-बद्ध और सुशिक्षित जनों का निवास-स्थल बाकी स्थानों से भिन्न उदहारण प्रस्तुत कर रहा था. जिसके अत्यल्प परिसर में वकीलों, अध्यापकों, विचारकों, समाज-सुधारकों और अनुशासनपरायण नागरिकों की बहुलता थी, जो अपने आसपास के पर्यावरण को प्रामाणिक रूप से स्वच्छ, स्वस्थ एवं सुरक्षा से परिपूर्ण रखने में सदैव सतर्क रहते थे. वहां की गलियां अति-प्रसन्न, स्वच्छ, सुगंधित पुष्पावच, श्वेत धवल चूनों से रंजित दीवारों से सुसज्जित, मांज-धोकर धुले हुए घरों के प्रांगण, तथा छप्परों तक व्यवस्थित प्रबुद्धता की एक मोहक छवि उकेरते थे, जिसके कारण अनेक बाहर के आगंतुक भी आश्चर्यकंपित होकर सोचा करते थे कि आखिर इस बस्ती ने ऐसा कौन-सा मंत्र साध लिया है, जो महामारी के उग्र संक्रमण की विभीषिका भी यहां घोर प्रकोप न फैला सकी. फलतः यही अनुशासित, सतर्क और संस्कारित प्रांत “बापूपाड़ा” इस नाटकीय पूर्वपीठिका में केंद्रीय भूमिका निभाता है. 

कदाचित् इस स्थान को “विजय-दीप” या “आशा के दीपस्तंभ” की संज्ञा भी दी जा सकती है, क्योंकि यहीं की समग्र समाज-चेतना नाटक के मुख्य बाल-नायक सुभाष के भावी कर्मपथ को आलोकित करती है. वह सुभाष जो मात्र बारह वसंतों का होने पर भी अपने उदारहृदय, सहृदय, परोपकारी, निर्भीक तथा अनुशासनबद्ध व्यक्तित्व के लिए संपूर्ण मुहल्ले में लोकप्रिय था. इसी बालक सुभाष में एक अदम्य जिजीविषा का संचार प्रतिपल होता था. उसके हृदय में प्लेग-ग्रस्त लोगों के लिए करूणा और संवेदना का अनूठा संगम जन्म ले चुका था, और उसी उत्कट प्रेरणा से वह उनसभी मित्रों को एकत्रित करता है, जो उसकी तरह निडरता से सेवा-भावना का निर्वहन करना चाहते हैं. 

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बोस ने बचपन में की सेवा दल की स्थापना

परिणामस्वरूप सुभाष ने एक “सेवा-दल” की स्थापना की, जिसमें रमेश, गोपी, रवि, दीनू, शिवा, इत्यादि कई बालक सम्मिलित होकर बापूपाड़ा से यह प्रतिज्ञा करते हैं कि वे निकटवर्ती क्षेत्रों में जाकर न केवल लोगों को औषधि एवं प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध करवाएंगे, अपितु सफाई, व्यवस्था तथा नैतिक समर्थन भी प्रदान करेंगे, ताकि जनसमुदाय के मन में पनपती हताशा व निराशा को विखंडित करके आशा और जीवन-दृष्टि की नूतन लहर जाग्रत की जा सके. क्योंकि प्लेग की विभीषिका ने समूचे नगर को वैसी ही त्रासद परिस्थिति में डाल दिया था, जैसी कभी प्रलयंकारी बाढ़ या विकट सूखे ने की हो, परंतु बापूपाड़ा की अनुशासनप्रियता व शुचिता इस संकट को चुनौती देती प्रतीत होती थी, और यहीं से प्रारंभ होती है “बालनायक: सुभाष” की नाटकीय यात्रा, जिसमें नगर का एक अन्य प्रमुख भाग, “उड़िया बाजार”, केंद्र में आता है, जो प्राचीन काल से व्यापारिक गतिविधियों का द्योतक, रंग-बिरंगी दुकान-श्रृंखलाओं से सुसज्जित, सांस्कृतिक समृद्धि का न्यास, एवं अपनी जीवंतता के लिए ख्यात था. 

किंतु महामारी की चपेट में आकर अब वहीं बाजार दुर्दशाग्रस्त, कचरे के ढेर और गंदे जल भराव से त्रस्त, मच्छरों के प्रचुर प्रकोप का शिकार, तथा भीषण बीमारी का प्रत्यक्ष स्थल बन चुका था, अतएव सुभाष व उसके बाल-सहयोगियों ने उस उड़िया बाजार को ही अपनी पहली कर्मभूमि बनाने का संकल्प लिया. चूंकि वहां के लोग दैन्य अवस्था में जीवन-यापन कर रहे थे, उनके चेहरों पर भय व अविश्वास की परछाई थी, उनके दुर्व्यवस्थित परिवेश ने महामारी को और अधिक भयंकर बना दिया था. 

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हैदरअली के व्यवहार बदलने का किस्सा

इसी संदर्भ में नाटक के कथानक को एक विरोधी किंतु महत्वपूर्ण चरित्र मिलता है—हैदरअली, जो पूर्व में अनेक बार बापूपाड़ा के बच्चों से झगड़ा-टंटा कर चुका था, जिसके दुर्व्यवहार, उग्रता और आपराधिक मनोवृत्ति के कारण उसे उड़िया बाजार का एक भयप्रद गुंडा माना जाता था.  किन्तु इस घोर विपत्ति की घड़ी में वह स्वयं पारिवारिक त्रासदी से दो-चार हो रहा था, उसकी पत्नी व पुत्र भयंकर बीमारी से पीड़ित थे, और इस संकट ने उसके मन में भीषण क्रोध, प्रतिशोध तथा कुंठित मानसिकता को जन्म दिया था, जिसके वशीभूत होकर हैदरअली ने सोच लिया कि यदि बापूपाड़ा के लड़के उड़िया बाजार में आएंगे, तो वह उन्हें वहां टिकने नहीं देगा. वह उन्हें दुश्मन समझकर भगाने पर उतारू हो जाता है, यही परिस्थितियां नाटक में तनाव और संघर्ष के प्रस्थान बिंदु को निरूपित करती हैं, क्योंकि एक ओर हैदरअली का पूर्वाग्रह व दुर्भावना, दूसरी ओर सुभाष और उसके दल का निष्कलंक निःस्वार्थ सेवा-उद्देश्य और तीसरी ओर उड़िया बाजार के निरीह, असहाय व व्याकुल लोग, जिनके भीतर जीने की उत्कट चाह तो थी, परंतु वे द्वंद्वग्रस्त थे- क्या ये बाहरी (बापूपाड़ा) के लड़के सचमुच सहायता करने आए हैं, या इनके आने से कहीं विपत्ति और न बढ़ जाए. इस प्रकार का संशय, भय एवं प्रतिरोध वातावरण को और भी उलझा देता था. 

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इन सब के बीच सुभाष अपनी अपूर्व मानवीयता, दृढ़ता और निडरता का परिचय देता हुआ, अपने मित्रों संग सफाई-अभियान, चिकित्सकीय यथासंभव सहायता और नैतिक संबल प्रदान करने का अनथक प्रयास करता है. वह स्वयं गंदगी के ढेर में हाथ डालकर सफाई करता है, लोगों को दिखाता है कि संक्रमण को रोकना है तो इस दुर्दशाग्रस्त आवरण से मुक्ति पानी ही होगी, साथ ही वह बीमारों को पानी पिलाता, काढ़ा पिलाता, नीम व औषधीय जड़ी-बूटियों का प्रयोग करके प्राथमिक उपचार का प्रबंध भी करता है. यहां डॉक्टर त्रिलोकनाथ या वैद्यनारायण जैसे कुछ सहायक पात्र भी नाटक में आते हैं, जो सुभाष व उसके दल को चिकित्सा-सम्बंधित दिशा-निर्देश देने में सहायक होते हैं. परंतु हैदरअली अपने निजी संकट से ग्रस्त होने के बावजूद हठ पर अड़ा है. वह नहीं चाहता कि सुभाष उसके घर के आसपास फटके, क्योंकि उसे सुभाष में पूर्व परिचित शत्रु ही दिखाई देता है. जबकि सुभाष को उसके हृदय में छिपे दर्द व व्यथा का आभास है, इसीलिए वह निरंतर प्रयत्नशील है कि कैसे हैदरअली के मन में उपजी कटुता को समाप्त किया जाए. 

डॉ. सुधीर आजाद के “बालनायक: सुभाष” में अनेक मार्मिक दृश्य उभरते हैं, ज्यों-ज्यों सुभाष अपने दल सहित सेवा में जुटा रहता है, त्यों-त्यों उसकी निस्वार्थ, करुणामय भावना उभरकर सामने आती है वह नाटकीय उत्कर्ष का एक बिंदु बन जाती है, जब हैदरअली की पत्नी (आफ़रीन) व बेटे (अलीजाह) की स्थिति अति गंभीर हो जाती है. कोई चिकित्सक उनके घर में जाने को तैयार नहीं और हैदरअली भी कभी सहायता मांगने की झिझक नहीं तोड़ पाता, किंतु अंततः सुभाष ही हिम्मत जुटाकर उनके द्वार पहुंचता है. किसी भी तरह अपने सहयोगियों के साथ उन दोनों बीमारों की देखभाल करता है, दवाइयों का प्रबंध करवाता है. उन्हें अस्पताल या वैद्य के पास ले जाने का अथक प्रयास करता है. तब कहीं हैदरअली को वास्तविकता का भान होता है, वह देखता है कि जिस बालक को वह अब तक कोरा शत्रु, प्रतिद्वंद्वी या घृणित प्रतिद्वंदी मानता रहा, वही उसके घर के भीतर, उसके रोगग्रस्त परिवारीजनों के लिए अपना तन-मन झोंक रहा है. यह क्षण उसके हृदय-परिवर्तन का बीज बनता है. वह विस्मित, विकल और पश्चात्तापपूर्ण होकर समझता है कि समस्त द्वेष, घृणा, अहंकार और प्रचंडता, सेवा-भाव के समक्ष निष्प्रभ सिद्ध होती है. 

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इसी अंतर्बोध के साथ हैदरअली अपनी कट्टरता त्याग देता है, सुभाष के साहस और मानवता के प्रति नतमस्तक हो जाता है, और नाटक एक ऐसे मुकाम पर पहुंच जाता है, जहां द्वेष का विसर्जन, प्रेम का जागरण और सेवा का श्रेयस्कर परिणति के रूप में प्रतिफलित होता है. 

मानवीय आदर्शों, नीतिगत तत्वों और राष्ट्रप्रेम की दिव्य झांकी 

डॉ. सुधीर आजाद का “बालनायक: सुभाष” का आंगन न केवल  ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आधारभूमि को संजोए हुए है, बल्कि इसमें बाल-साहित्यिक संवेदनाओं के साथ-साथ मानवीय आदर्शों, नीतिगत तत्वों और राष्ट्रप्रेम की दिव्य झांकी भी अंतर्निहित है. क्योंकि चिर युवा नायक सुभाष, जिसे इतिहास में भविष्य का महान सेनानायक, स्वाधीनता-प्रेमी क्रांतिकारी और अद्वितीय राष्ट्र-पुरुष बनना था. उसकी बाल-छवि में इस नाटक के माध्यम से परिलक्षित होता है कि महानता के अंकुर बचपन में ही फूट पड़ते हैं. जब एक संवेदनशील बच्चा समाज के क्लेश से द्रवीभूत होकर अपने साधनों व साहस के साथ आगे बढ़ता है, तभी वह भावी यशस्वी व्यक्तित्व को आकार देता है. उधर, बापूपाड़ा का पृष्ठभूमिगत स्वरूप (जहां शुचिता और अनुशासन की दुहरी नींव है) इस संदेश को विस्तार देता है कि सामाजिक वातावरण भी बाल-व्यक्तित्व को संवारने में परोक्ष भूमिका निभाता है. वहीं उड़िया बाजार की अराजकता, गंदगी और भयावह स्थिति न केवल भौतिक स्तर पर महामारी को पोषित करती है अपितु मानसिक अवरोधों, ऊहापोह, कटु संघर्षों को भी जन्म देती है. 

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चूंकि दोनों स्थानों का भेद स्पष्ट रूप में उभरता है, अतः नाटक की संपूर्ण गति और कथा-वस्तु के मध्य एक ऐसा द्वैत रचता है, जो अंततः एकता और सामंजस्य में परिणत होता है. क्योंकि जब बापूपाड़ा के नन्हे सेवाभावी बच्चे उड़िया बाजार की नैराश्य-पूर्ण गलियों में उजाले की किरण बनकर उतरते हैं, तब धीरे-धीरे लोगों का भरोसा बढ़ता जाता है. संदेह अवश्य होता है, किंतु सुभाष की सत्यनिष्ठा, विनम्रता और निस्वार्थ कर्मशीलता सभी को प्रभावित करने लगती है तथा जिन्हें कभी मनुष्य-जाति पर भरोसा न रहा, वे भी अहिस्ता-अहिस्ता अपनी सोच बदलते हैं. इस प्रकार महामारियों के कालखंड का संपूर्ण यथार्थ, भूख-प्यास-बीमारी का विषाद, भीड़-भाड़ वाली गंदगी में पनपती असाध्य पीड़ाएं, समाज में व्याप्त अंधविश्वास, अज्ञान अथवा शक्ति के नाम पर सतत दमनकारी दृष्टिकोण—सब एक साथ सजीव हो उठते हैं. किंतु इनके बीच बाल-मन की जिजीविषा, पवित्रता व सौहार्द्र की भावना उस अंधकार को चुनौती देती है, जिससे इस नाटक का निहित संदेश उभरता है कि नन्ही उम्र का यह नायक लोक-मंगल हेतु प्रयत्न करने में सक्षम है. उम्र की मर्यादा उसकी प्रेरणा में बाधा नहीं बनती और यह सत्य स्वयं आगे चलकर इतिहास के महानायक होने की संभावनाएं इंगित करता है. 

अतएव डॉ. सुधीर आज़ाद के  ‘बालनायक’ में हमें साहित्यिक सौंदर्य से परिपोषित, वर्णनात्मक वैभव में लिपटा एक ऐसा परिवेश मिलता है, जहां बालक सुभाष के उद्यम, सेवा-भाव, संगठन-कौशल, प्रबंधन, मानवीय करुणा, तथा उसके मन में गहराई तक विद्यमान मूल्यवत्ता का उद्भव सूत्रतः अंकित होता है. वहीं हैदरअली जैसे संकटग्रस्त एवं आक्रोशी व्यक्ति की मानसिक अंतर्दशा पर भी गहरा प्रकाश पड़ता है—वह अपने व्यक्तिगत दु:ख, पत्नी-पुत्र की रुग्णावस्था और स्वयं के जन्मे रोष को कैसे व्यक्तिगत प्रतिशोध की आग में सुलगाकर दूसरों को अपने निकट आने से रोक देता है. लेकिन अंत में मानवता की शीतल बयार ही उसके अंतस की कठोर पर्तों को भेदकर करुणा और स्नेह का स्रोत प्रस्फुटित करती है. 

एकजुट होकर रहने का मिलता है संदेश

इस बाल-नाटक का समूचा कथानक, उस संक्षिप्त परिदृश्य में भी, मानो अनंत मानवीय गुणों का दिग्दर्शन कराता है- स्नेह, साहस, सहयोग, अनुशासन, स्वस्थ जीवन-पद्धति, आत्मबल, सहिष्णुता, उदारता, और अंततः मनुष्यता की महत्ता और यह सब केवल कुछ पात्रों के माध्यम से, जो परस्पर विरोधी परिस्थितियों में अपना-अपना धर्म निभाते हुए, धीरे-धीरे एक दूसरे के प्रति समझ विकसित कर लेते हैं. फलस्वरूप प्रतिगामी शक्तियां प्रेम के समक्ष नतमस्तक हो जाती हैं. समाज में नवीन आशा एवं पुनरुत्थान की भावनाएं जाग्रत होती हैं, उसी का सुंदर निष्कर्ष इंगित होता है, जहां प्रतीक रूप में बापूपाड़ा की उज्ज्वलता एवं उड़िया बाजार का मलिनता-प्रपंच एक दूसरे से जुड़कर सह-अस्तित्व की परिपक्व कथा रचते हैं, जिसके गर्भ से नाटक आगे विकसित होता है. 

इसीलिए कहा जा सकता है कि डॉ. सुधीर आज़ाद का “बालनायक: सुभाष” बाल-नायकत्व एवं सामाजिक चेतना के उद्भव-स्थल के रूप में भी अपनी प्रासंगिकता स्थापित करता है, साथ ही स्वच्छता और अनुशासन की उपयोगिता, सौहार्द्र-भावना की अपरिहार्यता तथा सेवा की अपरिमेय श्रेष्ठता को प्रतिपादित करता हुआ यह बाल-साहित्य के उच्च आदर्शों का रेखांकन करता है, जिसमें पाठक, दर्शक अथवा श्रोता को अनुभूति होती है कि बाल-मन कितना उर्वर हो सकता है. कैसे एक सुकुमार आयु में भी कोई बालक पूरे नगर के कल्याण का विचार कर सकता है, कैसे वह संगठन द्वारा उस विचार को साकार भी कर सकता है और कैसे वह समाज में निहित वैमनस्य को मिटाने में सहायक बन सकता है - ये सब प्रश्न व इनका समाधान इस पूर्वपीठिका के गर्भ में निहित है, जहां इतिहास और कल्पना का समिश्रण साहित्यिक सुषमा के साथ प्रस्तुत होता है, जिसके फलस्वरूप पाठक या दर्शक आरंभ से ही उत्सुकता एवं भावसिक्त एकाग्रता के साथ इस बाल-नायक के पथ का अवगाहन करने को तत्पर हो उठता है, और इसी रीति से नाटक की सम्यक् आधारभूमि निर्मित होती है, जहां साहचर्य, साहस और सौंदर्य के प्रसार से एक असाधारण कृति का बीजारोपण संभव होता है, जो न केवल बाल-सुलभ थिएटर, अपितु संपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति के धरातल पर प्रेरणा का दीप प्रज्वलित करती है. क्योंकि यदि महज़ एक किशोर अपनी पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से प्रेरित होकर, महामारी के विकट समय में, गंदगी तथा मृत्यु-भय के घेरे में उतरकर सहायता की मशाल थाम लेता है, तो इससे बड़ी मानवता की सीख क्या हो सकती है,. यही विचार इस नाटक  को अद्भुत गाम्भीर्य प्रदान करता है. 

साथ ही, ओड़िया संस्कृति की मोहक झलक, कटक नगर की प्राचीनता, वहां के हाट-बाज़ारों की विविधतापूर्ण भीड़, लोगों की रहन-सहन एवं महामारी के कारण उत्पन्न कठोर सच्चाइयों को रेखांकित करने से नाटक के परिवेश-निर्माण पूर्णता को प्राप्त होता है. फलतः “बालनायक: सुभाष” का आरंभिक कलेवर पाठक को सुस्पष्ट रूप में समझा देता है कि यह नाटक केवल मनोरंजनार्थ नहीं, अपितु बालकों के नैतिक, भावनात्मक तथा बौद्धिक विकास के हेतु लिखा गया है, जहां न सिर्फ़ कथानक की सरसता है, बल्कि गहन सामाजिक संदेश एवं सांस्कृतिक गौरव का अदम्य संचार भी सन्निहित है. 

बाल सुभाष की महान यात्रा का विवरण

डॉ. सुधीर आजाद का “बालनायक: सुभाष” नाटक सारभूत रूप से इतिहास, प्रेरणा, सेवा, नेतृत्व, अनुशासन, साहस, प्रेम और आत्म-सम्मान के तत्त्वों से आपूरित उस दिव्यभूमि का चित्रण करता है, जहां से बालक सुभाष की महान यात्रा आरंभ होती है. साथ ही हैदरअली के मनोमंथन, उड़िया बाजार के दारुण दु:ख, बापूपाड़ा की अनुकरणीय स्वच्छता और मानव-सेवा से ओतप्रोत लोग, सब मिलकर एक ऐसा नाटकीय उद्यान रचते हैं, जहां कलियों-सी सरल बाल-भावनाएं खिलकर एक दिव्य पुष्प की भांति प्रस्फुटित होती हैं. यह पुष्प मानव-मूल्यों की सुगंध फैला देता है, जो पूर्वाग्रह, घृणा व महामारी के नारकीय घटाटोप को हरकर समाज में नवचेतना की लहर संचारित करती है. अंतत: यही प्रस्थान है नाटक की पूर्ण कथा का और यही इस एकपंक्तीय भूमिका (जो वस्तुतः यहां विस्तृत रूप में लिखी गई है) का कर्तव्य भी, कि वह पाठक-दर्शक की जिज्ञासा और संवेदनशीलता को अपने सम्मोहक एवं संयत विवरण से जागृत करे. यह नाटक अपने चरमोत्कर्ष में भावगंगा से उपजी मानवीयता, एकता और रचनात्मकता का पूर्ण आस्वाद  देता है  तथा बाल-नायक के दिव्य श्रम, त्याग और अंतःप्रेरणा को पाठकगण हृदयंगम कर पाते हैं. 

यह नाटक मौलिक बाल-साहित्यिक रचना का सुदृढ़ आलोकस्तंभ बनकर नाटक को प्रकाशमान करता है. किसी भी बाल नाटक को प्रभावशाली एवं गुणवत्तापूर्ण बनाने हेतु कुछ अनिवार्य नाटकीय तत्वों का सम्यक् समावेश अपेक्षित होता है. केन्द्रीय पात्र: सुभाष – एक बालक जिसमें करुणा, उत्साह, साहस एवं नेतृत्व-क्षमता का सम्यक् संयोग है. उसके आचरण में सरलता और विनम्रता तो है ही, साथ ही, समाज में परिवर्तन लाने की प्रबल आकांक्षा भी है. प्रतिपक्षी पात्र: हैदरअली – आरम्भिक विरोध, क्रोध एवं द्वेष से भरा व्यक्तित्व, जो प्रतिकूल परिस्थिति का सामना कर रहा है. किंतु अंत में वही हृदय-परिवर्तन का ज्वलंत उदाहरण बनता है. अन्य पात्र – बाल-मित्रगण, बापूपाड़ा के प्रबुद्ध वयस्क, उड़िया बाज़ार के भयाक्रांत परन्तु सहयोगी अथवा संदेहशील लोग, डॉक्टर, शिक्षक, समाजसेवक इत्यादि. इन सबके माध्यम से नाटक में विविध स्वभावों एवं भावनात्मक दृश्यों का अंकन हुआ है.

यह नाटक सहज एवम सरल हिन्दी में रचा गया है, परन्तु इसके संवादों में रेखांकित गुणवत्ता है कि बच्चे भी उनमें बालसुलभ उत्साह और सरल भाव-सम्प्रेषण को अनुभव कर सकें. कभी-कभी स्पष्टता के लिए अल्पविरामों तथा छोटे-छोटे वाक्य-विन्यासों का प्रयोग किया गया है, ताकि मंचीय प्रस्तुति में प्रवाह बना रहे. सम्यक् स्थानों पर विशिष्ट शब्दावली, संस्कृतनिष्ठ पदों तथा ओड़िया परिवेश की झलक को प्रकट करने वाले नामों का विवेकी उपयोग दिखाई देता है.

डॉ. सुधीर आजाद ने “बालनायक: सुभाष” कथानक का विकास क्रमशःऔर स्वाभाविक रूप से किया है. उद्घाटन में बापूपाड़ा की स्वच्छ, सुव्यवस्थित बस्ती में सुभाष और उसके मित्रों का परिचय, उनकी नैतिक एवं समाजसेवी प्रवृत्ति का संकेत. योजनाबद्धता लिए उड़िया बाज़ार में व्याप्त महामारी के समाचार और वहां जाकर सेवा करने का निश्चय. संघर्ष में हैदरअली का विरोध, स्थानीय निवासियों का संदेह, गंदगी और रोग का डर, आदि. उत्तरोत्तर विकास में  सुभाष और साथी दल का अनवरत सेवा-भाव, लोगों का सहयोग, तथा अंततः हैदरअली के हृदय में परिवर्तन एवम नाटक की परिणति में  सभी मिलकर महामारी से लड़ने का प्रयास करते हैं, समाज में एकता का पुनः संचार होता है, तथा बाल नायक के रूप में सुभाष की यशस्विता प्रतिपादित होती है.

स्वच्छता को लेकर लोगों को किया जागरूक

रंगमंचीय तत्त्वों में मंच-सज्जा के अंतर्गत एक ही मंच पर दो प्रमुख परिदृश्यों (बापूपाड़ा व उड़िया बाज़ार) का घूर्णनशील अथवा प्रकाश-परिवर्तन से सहज परिवर्तन संभव है. प्रकाश एवं ध्वनि का संयोजन भी प्रभावी एवम विषयानुरूप है. प्लेग के विभीषिकामय वातावरण को गहरा करने हेतु धुंधले, हरे-पीले प्रकाश का प्रयोग उड़िया बाज़ार में. जबकि बापूपाड़ा में उज्ज्वल, स्वच्छ प्रकाश. नाटक के भावनात्मक प्रसंगों में वाद्ययंत्रों (बांसुरी, मृदंग, वायलिन) का मध्यम स्वरमान और भयावह दृश्यों में झींगुरों की आवाज़, मच्छरों का भिनभिनाना, कराह के क्षीण स्वर की सहायता से वातावरण में वास्तविकता का संचार करते हैं.

समीक्षा-पटल पर यह नाटक बच्चों की मानसिकता एवं मनोवैज्ञानिक अवयवों को सुदृढ़ता से सम्बोधित करता है. समीक्षा के आयाम निम्नानुसार विचारणीय हैं. आज भी विश्व विविध महामारियों, प्राकृतिक विपदाओं, सामाजिक कुरीतियों से जूझता रहता है. ऐसी स्थिति में परोपकार, संवेदनशीलता और संगठित जागरूकता की एक नाट्य-शिक्षा अत्यंत सामयिक एवं आवश्यक है. नाटक मनोवैज्ञानिक स्तर पर डर और सहयोग के द्वंद्व को उभारता है, जिससे बाल दर्शक-श्रोता यह समझ पाते हैं कि भय का सामना करने के लिए सूचना, जागरूकता और एकता, ये तीनों कारक अनिवार्य हैं.

विद्यार्थियों के उर्वर मस्तिष्क के लिए  इस नाटक की मूल उपादेयता विद्यार्थियों के मानसिक, भावनात्मक एवं नैतिक विकास को प्रेरित करने में निहित है.  नाटक में प्रमुख रूप से सुभाष जैसे बालक के संघर्ष एवं संकल्प को देखकर विद्यार्थी सहजता से कह उठते हैं—“यदि वह कर सकता है, तो हम क्यों नहीं?” इस प्रेरणा का बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि बच्चा अपने समवयस्क नायक का अनुकरण करना सरल समझता है. नाटक छात्रों को बताता है कि तात्कालिक व्यक्तिगत सुख से बढ़कर समाज का सुख-शांति महत्त्वपूर्ण है. जिस प्रकार सुभाष और उसके मित्र अपनी व्यक्तिगत सुविधा, खेल-कूद छोड़कर सेवा कार्य में रत होते हैं, इससे निस्वार्थ सेवा-भाव जागृत होता है. आज के शिक्षा-सरणियों में नैतिक शिक्षा का अभाव प्रायः रेखांकित किया जाता है. यह नाटक एक प्रकार से नैतिक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करता है—करुणा, अनुशासन, वचन-पालन, सहिष्णुता और साहस के संगम से विद्यार्थी प्रेरित होते हैं.

बच्चों को सीख देने के लिए तैयार हुआ नाटक

बाल नाटक की सफलता केवल पठन-पाठन तक सीमित नहीं रहती, अपितु उसका वास्तविक प्रभाव मंच-प्रस्तुति में निहित होता है. यह नाटक मंचन की दृष्टि से बहुप्रासंगिक है. है. प्रत्येक दृश्य में संवाद अधिक लंबे न होकर विशिष्ट ध्येय को संप्रेषित करते हैं, अतः मंच पर गति बनी रहती है. बच्चों के लिए लंबा-लंबा संवाद बोझिल हो सकता है, जबकि यहां प्रायः दृश्य-प्रवाह तीव्र गति से आगे बढ़ता है. किसी भी शिक्षण-सत्र या गतिविधि में बालकों को व्यावहारिक शिक्षा देना हो, तो “बालनायक: सुभाष” एक उत्तम माध्यम बन सकता है. 

सारतः “बालनायक: सुभाष” एक ऐसा बाल नाटक है, जो प्रेरणास्रोत एवं मूल्य-परक संदेशों से समृद्ध है. यद्यपि यह प्लेग जैसी विपत्ति के प्रसंग को छूता है, किन्तु इसका केंद्रीय उदात्त संदेश कहीं व्यापक है—“मनुष्य मनुष्य के काम आए, परस्पर द्वेष और प्रतिशोध से ऊपर उठकर मानवता की रक्षा करें.” सुभाष के रूप में एक छोटा-सा बालक भी बड़े-बड़े सामाजिक सुधार एवं साहसिक कार्यों का प्रारम्भ कर सकता है—यही तो महत्ता है बाल-शक्ति की, जिसके भीतर युगांतकारी परिवर्तन की क्षमता निहित होती है.

नाटक की भाषा, पात्र, संवाद और रंगमंचीय गरिमा—सब कुछ मिलकर बालकों के रचनात्मक आकाश को एक नई उड़ान देते हैं. वे न केवल जिज्ञासा से भर जाते हैं, बल्कि आत्मान्वेषण के लिए प्रेरित होते हैं—“क्या मैं भी कभी ऐसा नायक बन सकता हूं? क्या मैं भी अपने आस-पास को स्वच्छ, स्वस्थ, सुंदर बना सकता हूं? क्या मैं भी किसी जरूरतमंद की मदद कर सकता हूं?” ऐसे प्रश्न उन्हें बाल्यकाल से ही लोक-कल्याण की दिशा में प्रवृत्त होने के लिए उत्प्रेरित करते हैं.

प्रस्तुत नाटक अपने सभी रंग-तत्त्वों, मंचीय कौशलों, तथा भाषिक सम्पदा के साथ, विद्यार्थियों को एक साथ मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक तथा भावनात्मक क्षितिज पर उच्चतर सार्थकता प्रदान करता है. इसीलिए यह कहा जा सकता है कि ‘बालनायक: सुभाष’ का मंचन मात्र एक कलात्मक प्रदर्शन नहीं, अपितु एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक चेतना और नैतिक भाव-जागरण का सेतु है, जो बालकों को न सिर्फ़ कथानक भर से, बल्कि उनके अंतर्मन में गहराई से स्पर्श करता है.

डॉ. सुधीर आजाद ने “बालनायक: सुभाष” बाल नाटक इसी उद्देश्य से रचा है—कि किशोरवय विद्यार्थियों को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की उदारता, समर्पण एवं दृढ़निश्चय का परिचय उनके शैशवकाल के एक संभावित ऐतिहासिक-सांस्कृतिक प्रसंग के माध्यम से दिया जा सके. एवम जो कोई भी इस नाटक के विराट भावलोक में प्रवेश करे, वह अपने भीतर निहित बाल-हृदय की निर्मलता को पुनः जागृत होने दे. अस्तु, डॉ. सुधीर आज़ाद की अंतर्निहित वैचारिक ईमानदारी, राष्ट्र और प्रकृति के प्रति समर्पण तथा विशुद्ध संवेदनशीलता, इन सबका सामंजस्य उन्हें भारतीय साहित्य-परिदृश्य में अद्वितीय रूप से स्थापित करता है. अतः यदि देश और समाज आने वाले दशकों में अपनी विरासत को सुदृढ़ करने व अगली पीढ़ियों को जागरूक बनाने का कर्तव्यबोध संजोता है, तो निःसंदेह डॉ. सुधीर आज़ाद जैसे साहित्य-मनीषियों का प्रकाश-स्तंभ वहां सर्वदा पथप्रदर्शन करता रहेगा.

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