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दर्पण साह के कविता-संग्रह 'लुका-झांकी' से दो कविताएं

ब्लॉगर और युवा कवि दर्पण साह का कविता-संग्रह 'लुका-झाँकी' जल्द ही प्रकाशित होने वाला है. यह किताब 25 फरवरी 2015 से सभी ऑनलाइन स्टोरों पर रीलिज़ होगी. फिलहाल किताब की प्रीबुकिंग चालू है. यहां पेश हैं दर्पण के कविता संग्रह 'लुका-झाँकी' से दो कविताएं...

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Darpan Shah
Darpan Shah

किताब का नाम : लुका-झाँकी (कविता-संग्रह)
लेखक : दर्पण साह
पृष्ठ : 144
मूल्य : 100 रुपये
प्रकाशन : हिंद युग्म
कवरः पेपरबैक

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ब्लॉगर और युवा कवि दर्पण साह का कविता-संग्रह 'लुका-झाँकी' जल्द ही प्रकाशित होने वाला है. यह किताब 25 फरवरी 2015 से सभी ऑनलाइन स्टोरों पर रीलिज़ होगी. फिलहाल किताब की प्रीबुकिंग चालू है. यहां पेश हैं दर्पण के कविता संग्रह 'लुका-झाँकी' से दो कविताएं...

1) सर्क्युलर रिवॉल्यूशन
जब
विश्व समाज सुधार की बात कर रहा था
जब
पूरे संसार में क्रांतियाँ हो रही थीं
जब
सारे देश जल रहे थे
और जब
एक अनंत काल तक
चलने वाले युद्ध की तैयारियाँ चल रही थीं
उस हर तब
मैं प्रेम में था
वो सब मुझे धिक्कार रहे थे
मेरे इस कुकृत्य के लिए
मुझे तब भी लगा
प्रेम
- सारी समस्याओं का हल है
मैंने एक वैश्या के होठों को चूमा
और एक सैनिक की चिता में दो फूल चढ़ाए
मैंने एक भिखारी के लिए दो आँसू बहाए
और फिर मैं
एक अस्सी साल के बूढ़े के
बगल में बैठकर
बाँसूरी बजाने लगा
न मैं कृष्ण था न नीरो

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(B)
अगर वादा करते हो
ये क्रांति अंतिम है
तो भी मैं प्रस्तुत नहीं हूँ इसके लिए
क्योंकि मुझ देखने हैं
इसके दीर्घकालिन परिणाम

अगर कहते हो
ये चैन से बैठने का समय नहीं
और सारे राजनेताओं, कारपोरेटों ने छीन ली तुम्हारी रोटी
तो बताओ
कहाँ से खरीदे तुमने हथियार?

जो तुम्हारी आत्महत्याओं के जिम्मेवार थे
तुम बन रहे उनकी हत्याओं के जिम्मेवार
सत्ता में जब तुम आओगे
तो क्या एक और क्रांति नहीं होगी
तुम्हारे खिलाफ

अगर तुम धर्म की खातिर लड़ रहे हो
तो बोलो
तुम्हारे ईश्वर ने क्यूँ बनाए अन्य धर्म
तुम जैसे अच्छे लोगों को
ड्रग्स की डोज़ दी है तुम्हारे ईश्वर ने

बोलो कहाँ लड़ा जा रहा है संपूर्ण विश्व के लिए युद्ध
ऑल इन्कलूज़िव
सर्वजन हिताय

है एक ऐसी जगह
लेकिन उसके लिए पहले
बाँसूरी बजाना सीखना होगा

2) कैफ़े कैपचीनो

तेरा लम्स-ए-तवील कि जैसे
कैफ़े कैपचीनो

ऊपरी तौर पर
ज़ाहिर है जो उसका
कितना फैनिल
कितना मखमली
यूँ कि होठों से लगे पहली बार
वो चॉकलेटी स्वाद कभी
तो यकीं ही न हो
कुछ छुआ भी था
क्या कुछ हुआ भी था?

जुबाँ को अपने ही होठों से फ़िराकर
उस छुअन की तसल्ली करता रहा था दफ़'तन
कुछ नहीं और कुछ-कुछ के बीच का कुछ
एक जाज़िब सा तसव्वुफ़

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तेरा लम्स-ए-तवील
और उसकी पिन्हाँ गर्माहट
जुबाँ जला लिया करता था
उस न'ईम त'अज्जुब से कितनी ही दफ़े

जब भी होती थी
पहली बार में कहाँ नुमायाँ होती थी वो

तेरा लम्स-ए-तवील
जिसका ज़ायका उसके मीठेपन से न था कभी
उम्मीदों की कड़वी तासीर हमेशा रही थी
बहुत देर तक
आज तक चिपकी हुई है रूह से जो

तेरा लम्स-ए-तवील
बेशक माज़ी की नीम बेहोशी का चस्मक
मगर जिसने ख्वाबों के हवाले किया हर बार

बस इख़्तियार नहीं रहता
इसलिए
उसे जज़्ब कर लिया
आख़िरी घूँट तक
वरना यूँ तो न था कि
तिश्नगी कमतर हुई हो उससे

तेरा लम्स-ए-तवील
कि जैसे कैफ़े कैपचीनो

लम्स-ए-तवील: दीर्घ स्पर्श, तिश्नगी: प्यास, तसव्वुफ़: mystical, त'अज्जुब: आश्चर्य, न'ईम: आनंद, चस्मक: Disillusion, जाज़िब-मनमोह

दर्पण साह के बारे में
पूरी तरह से विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़े हुए दर्पण साह की परवरिश पहाड़ों की नैसर्गिक खूबसूरती की बीच हुई. होटल मैनेजमेंट के इस विद्यार्थी ने लिखना बहुत ही देर से साल 2008 में दिल्ली आने पर ब्लॉग लिखने से शुरू किया. प्राची के पार, पैलाग व बैरंग जैसे ब्लॉग उनके द्वारा संचालित किए जा रहे हैं. समय समय पर इनके लेख और कविताएं 'समालोचन', 'पाखी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और अन्य अखबारों में प्रकाशित होती रही हैं.

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