उसने मेरा हाथ देखा और सिर हिला दिया,
'इतनी भाव प्रवीणता
दुनिया में कैसे रहोगे!
इसपर अधिकार पाओ,
वरना
लगातार दुख दोगे
निरंतर दुख सहोगे!'
यह उपेन्द्रनाथ अश्क की एक कविता की शुरुआती लाइनें हैं. पर ऐसा अश्क ही लिख सकते थे. इसलिए कि उनमें पंजाब और मुंबई, खेत-खलिहान और शहर एक साथ जिंदा थे. वह व्यापारी भी थे और लेखक भी. उर्दू के भी थे और हिंदी के भी...पंजाब के तो वह थे ही, पर कितने....उनके लेखन की तरह ही उनका जीवन भी यहां से वहां तक फैला हुआ है....काफी समय व्यवस्थित सा लगने के बावजूद बेतरतीब सा.
उपेन्द्रनाथ अश्क का जन्म पंजाब के जालंधर में 14 दिसंबर, 1910 को एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वह 6 भाइयों में दूसरे नंबर पर थे. पिता पंडित माधोराम स्टेशन मास्टर थे. उस जमाने में स्टेशन मास्टर की तनख्वाह ज्यादा नहीं थी. पर उनके पिता ने अपनी आय का असर अपने बच्चों की पढ़ाई पर नहीं पड़ने दिया. उपेन्द्रनाथ अश्क ने जालंधर से ही मैट्रिक और वहीं के डीएवी कॉलेज से बीए किया. पंजाब के दूसरे बच्चों की तरह ही बचपन से ही अश्क भी अध्यापक, लेखक, संपादक, वक्ता, वकील, अभिनेता, डायरेक्टर बनने और रंगमंच तथा फ़िल्म में जाने के सपने देखा करते थे.
बीए पास करते ही उपेन्द्रनाथ अश्क अपने ही स्कूल में अध्यापक हो गए पर, 1933 में उसे छोड़ दिया. कुछ समय बाद जीविकोपार्जन हेतु वह साप्ताहिक पत्र 'भूचाल' से जुड़ गए. उसका संपादन किया. उसी दौरान एक अन्य साप्ताहिक 'गुरु घंटाल' के लिए प्रति सप्ताह एक रुपए में एक कहानी भी लिखकर दी. पर यह सब ज्यादा दिन नहीं चला. 1934 में अचानक सबकुछ छोड़छाड़ लॉ कॉलेज में दाखिला ले लिया. 1936 में लॉ ग्रेजुएट हो गए. पर नियति उनके लिए कुछ और ही लिख रही थी. उनकी शादी तब तक हो चुकी थी, पर वैवाहिक जीवन का आनंद उठाते उससे पहले ही पत्नी बीमार हो गईं. लंबी बीमारी के बाद वह चल बसीं.
यह आजादी आंदोलन वाला दौर था. बाहर जितनी हलचल थी, अश्क के जीवन में उससे कम झंझावात नहीं थे. इस उथलपुथल वाले दौर का प्रभाव उनकी रचनात्मक प्रतिभा पर भी पड़ा. जालियांवाला बाग जैसी घटनाओं ने उनके बाल मन पर गहरा प्रभाव डाला था. पर लेखक के तौर पर वह प्रगतिशील आंदोलन के असर में थे और परिवर्तनकामी मूल्य-चेतना के प्रति झुकाव, उस आंदोलन की देन थी. उनकी कहानियां मानवीय नियति के प्रश्नों, जीवन की विडंबनाओं, मध्यवर्गीय मनुष्य के दैनंदिन जीवन की गुत्थियों के चित्रण के कारण नागरिक जीवन के हर पहलू से संबद्ध थीं और सामान्य पाठकों की अपनी कहानियां लगतीं थीं.
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1936 के बाद अश्क के लेखक व्यक्तित्व का अति उर्वर युग प्रारम्भ हुआ. 1941 में उन्होंने दूसरी शादी कर ली. उसी साल 'ऑल इंडिया रेडियो' में नौकरी भी ज्वाइन की. पर उसे भी छोड़ दिया. 1945 के दिसंबर में फ़िल्म जगत का न्योता पा वह फ़िल्मों में लेखन के लिए मुंबई पहुंच गए. 1947-1948 में अश्क जी निरंतर अस्वस्थ रहे. पर यह उनकी साहित्य सर्जना का स्वर्ण-काल था. 1948 से 1953 तक अश्क दंपति के जीवन में संघर्ष बना रहा. पर इन्हीं दिनों प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य के विशिष्ट कथाकार उपेन्द्रनाथ अश्क का जन्म हुआ. हिन्दी- उर्दू के इस बहुविधावादी रचनाकार ने यक्ष्मा के चंगुल से निकलकर मुंबई से इलाहाबाद की शरण ले ली. इलाहाबाद में अश्क ने 'नीलाभ प्रकाशन गृह' की व्यवस्था की. यहीं उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, लेख, संस्मरण, आलोचना, नाटक, एकांकी, कविता आदि लिखे.
पहले वह उर्दू में लिख रहे थे. उर्दू में 'नव-रत्न' और 'औरत की फ़ितरत' उनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे, पर मुंशी प्रेमचंद की सलाह पर 'अश्क' ने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया. 1933 में प्रकाशित उनके दूसरे कहानी संग्रह 'औरत की फितरत' की भूमिका मुंशी प्रेमचन्द ने ही लिखी थी. हिंदी के पहले संग्रह 'जुदाई की शाम का गीत' जब 1933 में छपा, तो उसकी अधिकांश कहानियां उर्दू में पहले ही छप चुकी थीं.
अश्क जी ने खुद भी माना था कि 1936 के पहले की उनकी कृतियां औसत थीं. पर 1936 के बाद अश्क अपने शबाब पर आ गए. इस काल में उनका आलोचक ग्रंथ 'उर्दू काव्य की एक नई धारा' ऐतिहासिक नाटक 'जय पराजय', एकांकी, 'पापी', 'वेश्या', 'अधिकार का रक्षक', 'लक्ष्मी का स्वागत', 'जोंक', 'पहेली' और 'आपस का समझौता' सामाजिक नाटक, 'स्वर्ग की झलक', कहानी संग्रह 'पिंजरा' की सभी कहानियां, 'छींटें' की कुछ कहानियां और कविता संग्रह 'प्रात प्रदीप' की सभी कविताएं दो-ढाई साल के अंदर ही लिखी गईं. नाटक 'अलग अलग रास्ते' भी इसी दौर में आया.
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चाहे वह 'गिरती दीवार' और 'गर्म राख' नामक उपन्यास हो या नाटक 'छठा बेटा', 'अंजोदीदी' और 'क़ैद' अश्क ने हर क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ी. उनकी 'भंवर', 'चरवाहे', 'चिलमन', 'तौलिए' और 'सूखी डाली' जैसी रचनाएं एकांकी कला का उच्च उदाहरण हैं. इन रचनाओं के पीछे अश्क जी की सृजन क्षमता, पारखी नजर, भाषा पर पकड़, समाज की समझ और संवेदना से भरी चुहलभरी सोच का भी बड़ा हाथ है. इलाहाबाद की दो घटनाओं का उल्लेख इसे समझाने के लिए काफी है. साहित्य जगत की बड़ी चर्चित घटनाओं में इनकी गिनती होती है.
इलाहाबाद की बात है. एक बार एक साहित्यप्रेमी छात्रा ने उपेन्द्रनाथ अश्क से ऑटोफ बही पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा, अश्क जी जो लेखक के साथसाथ प्रकाशक भी बन चुके थे, मार्केटिंग के तरीके अपना चुके थे. उन्होंने ऑटोग्राफ देते हुए लिखा, 'पुस्तकें खरीद कर पढ़ो- अश्क'. कहते हैं धर्मवीर भारती भी वहीं बैठे थे. जब छात्रा ने उनसे ऑटोग्राफ देने के लिए कहा, तो उन्होंने ऑटोग्राफ के साथ लिखा- पुस्तक खरीदने का पता- नीलाभ प्रकाशन, खुसरो बाग, इलाहाबाद. यह पता उपेन्द्रनाथ अश्क के प्रकाशन संस्थान का था.
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दूसरी घटना इससे कुछ अलग थी, पर थी मजेदार. अश्क जी ने आर्थिक हालातों को मजबूत करने के लिहाज से परचून की दुकान खोली. तब का मीडिया राजनीति के साथ-साथ साहित्यिक अखाड़ेबाजी में भी खूब रस लेता था. सो खबर छपी कि अश्क का लेखन-प्रकाशन से मोह भंग हो गया है और वह परचून बेच रहे. अनुवाद, टाइपिंग और टेलीप्रिंटर वाले उस दौर में परचून कब चूना हुआ और परचून की दुकान चूने की दुकान में तब्दील होते हुए, लाइम के साथ मिल गई और फिर इसमें वाटर भी मिल गया मुंबई और दिल्ली में खबर आयी कि उपेंद्रनाथ अश्क इलाहाबाद में नींबू पानी बेच रहे हैं. मित्रों ने फोन किया, और मामला साहित्यकार की दुर्दशा से जुड़ गया. आंदोलन की तैयारी भी हो गई और सरकारी सहायता की मांग शुरू होती उससे पहले ही अश्क जी ने खुद ही स्थिति स्पष्ट कर दी.
उपेन्द्रनाथ अश्क साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, उर्दू-हिंदी सबके थे. साल 1965 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1972 में 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था. उनका निधन 19 जनवरी, 1996 को हुआ, पर उससे पहले वह इतना कुछ रच गए थे कि आज तक याद किए जाते हैं.