22 मई 2015 को वाणी प्रकाशन की स्थापना के 51 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में इंडिया इंटरनेशनल में 'वाणी प्रकाशन स्थापना दिवस समारोह' सम्पन्न हुआ. कार्यक्रम में 'कहानी किताब की' (Ethnographic History of Books) विषय पर वरिष्ठ पत्रकार और प्रसार भारती की पूर्व निदेशक मृणाल पाण्डे, वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री आशीष नन्दी और विकासशील समाज अध्ययन पीठ के फेलो और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक अभय कुमार दुबे के मध्य परिचर्चा सम्पन्न हुई.
कार्यक्रम को आरम्भ करते हुए वाणी प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने वाणी प्रकाशन के 51 वर्षों के साहित्यिक सफर के उतार चढ़ावों को अंकित करते हुए आगे आने वाले समय की बौद्धिक, व्यावसायिक, तकनीकी योजनाओं पर प्रकाश डाला.
कार्यक्रम के प्रथम चरण में अभय कुमार दुबे ने कहा, 'किताबों के इतिहास की एथनोग्राफी करना असम्भव है, क्योंकि इसका धरातल बहुत विस्तृत और विविध है जिसे किसी एक इकाई से मापा नहीं जा सकता. किताबों की दुनिया अथाह है और इसका हर एक भाग खुद बड़ा इतिहास समेटे हुए हैं. उन्होंने कहा कि इसमें वह सब आ जाते हैं, जो किताब से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े हैं. चाहे वह प्रकाशक, लेखक, पढ़ने वाला या छपाईखाने में किताबें छापने वाला. इसी तरह किताबों का वर्गीकरण भी अलग-अलग है.'
आशीष नंदी ने अपने विचार रखते हुए लिखित बनाम मौखिक परम्परा के सवाल को सभ्यतिक स्तर पर उठाया. उन्होंने कहा कि शिक्षित का मतलब स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा से सम्पन्न लोग ही नहीं होते बल्कि परम्परा ज्ञान से सम्पन्न लोग भी शिक्षित होते हैं.
कार्यक्रम में वाचिक परम्परा और लिपिबद्ध दस्तावेज़ों के संदर्भ में भी चर्चा हुई. वाचिक परम्पराओं को लिपिबद्ध करने से उन्हें एक बड़ी पृष्ठभूमि, बड़ी दुनिया मिलेगी और साथ ही एक महत्वपूर्ण सवाल उभरकर आया कि वाचिक परम्पराओं को लिपिबद्ध करने से कहीं वाचिक परम्पराओं का अस्तित्व ही समाप्त न हो जाये.
साथ ही कार्यक्रम में वक्ताओं और श्रोताओं के बीच वर्तमान समय की तकनीकी दुनिया को लेकर भी संवाद हुआ. तकनीक की दुनिया एथनोग्राफी की दुनिया को विस्तृत कर रही है. और साथ ही यह सवाल भी उभरा कि यदि वाचिक परम्परा, लिपिबद्ध योजनाएं और तकनीकी के बीच एक पुल बनाया जाएगा, तो वह कैसे बनेगा और क्या वाचिक परम्पराओं को लिपिबद्ध करने में वही अर्थ मिल पायेगा जो उनका मूल अर्थ है.