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मैं हूं उनके साथ खड़ा जो बुनियादी सुख से वंचित हैं: विनोद कुमार शुक्ल

यह शख्स शब्दों से जादू रचता है, लेकिन उसके व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक सरलता है. वह है लेखक- विनोद कुमार शुक्ल.

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Vinod Kumar Shukla
Vinod Kumar Shukla

कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते

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यह शख्स शब्दों से जादू रचता है, लेकिन उसके व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक सरलता है. दुबला-पतला शरीर, बच्चों सी निश्छल आंखें. रायपुर साहित्य महोत्सव के पहले दिन यह लेखक पाठकों के बीच छाया रहा. उम्र अब 77 हो गई है. कमर कुछ झुक गई है और अब आंखों से भी कुछ कम दिखाई देता है. लेकिन चाल में तेजी, उत्साह और चमक बरकरार है. ये हैं 'दीवार में एक‍ खिड़की रहती थी' और 'नौकर की कमीज' जैसे उपन्यासों के लेखक और 'सब कुछ होना बचा रहेगा' जैसी रचनाओं के कवि- विनोद कुमार शुक्ल.

रायपुर साहित्य महोत्सव में उनका काव्य-पाठ खत्म होते ही स्कूल के बच्चों से लेकर प्रौढ़ पुरुष तक बातचीत के लिए उन्हें घेर लेते हैं. सब तरह-तरह के सवाल पूछ रहे हैं और वह बड़े धैर्य से सबका जवाब दे रहे हैं. बारहवीं में पढ़ने वाला एक लड़का उन्हें बता रहा है कि कैसे उसे अपने एक दोस्त के घर में 'नौकर की कमीज' किताब कबाड़ में पड़ी मिली थी. उसे पढ़ने के बाद से वह उनसे मिलना चाहता था.

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इतने सारे प्रशंसकों और व्यस्तताओं के बीच भी वक्त निकालकर विनोद कुमार शुक्ल ने इंडिया टुडे से बातचीत की. पेश है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश:

आपके जमाने में तो इतने लिटरेचर फेस्टिवल नहीं हुआ करते थे. साहित्य की दुनिया में आए इस बदलाव को आप किस तरह देखते हैं?
फिलहाल तो मैं यही मान रहा हूं कि कहीं-न-कहीं इससे साहित्य को आगे बढ़ने का मौका मिल रहा है. लेखकों को अपने बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचने का मौका मिल रहा है. लेखक और पाठक के बीच संवाद हो रहा है. हालांकि ऐसा नहीं है कि इसे लेकर मैं बिल्कुल आशंकित नहीं हूं. या मैंने आंखें मूंदकर यह विश्वास कर लिया है कि सब कुछ बहुत अच्छा है. ये तो सच ही है कि आजकल लोग कुछ कम सुनने और कम देखने लगे हैं. ऐसे में साहित्यिक मेलों में ही अगर कुछ सुनने और देखने का अवसर हो तो क्या बुरा है.

क्या जब लिटरेचर फेस्टिवल का चलन नहीं था, तब लेखक-पाठक संवाद का आयाम इतना व्यापक नहीं हुआ करता था?
उसका रूप दूसरा था. ऐसा नहीं है कि बिल्कुल नहीं था. लेकिन बीच में एक ऐसा दौर भी आया, जब संवाद टूटने लगा था. इस तरह के साहित्यिक आयोजन इस संबंध को नए तरीके से परि‍भाषित कर रहे हैं. मैं तो ये मानता हूं कि चीजें बदलती रहती हैं. साहित्यिक आयोजनों का स्वरूप भी बदल रहा है.

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साहित्य प्रतिरोध की आवाज और विधा है. प्रतिरोध यथास्थिति और सत्ता के खिलाफ. फिर सत्ता ही साहित्य को बढ़ावा देने में इतनी रुचि क्यों लेती है?
सिस्टम को भी इसका फायदा मिलता है. इसकी सबसे बड़ी वजह तो ये है कि ऐसा करने से कम-से-कम सत्ता निष्पक्ष दिखाई देती है. वास्तव में भले ही न हो, लेकिन इससे प्रतिरोध की आवाजों के प्रति निरपेक्ष होने का एक भ्रम तो पैदा होता ही है और हमेशा से ऐसा होता रहा है. हर युग में, हर समाज ने प्रतिरोध की साहित्यिक आवाजों को भी आश्रय दिया है. हमें इस पूरे मसाइल को अलग तरीके से देखने की जरूरत है. किसी लेखक के लिए ये एक मौका है अपनी बात कहने का, बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचने का. ये सिर्फ एक मंच है. इस मंच पर जाना चाहिए और अपनी बात कहने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहिए.

क्या इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मंच किस राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है?
बहुत ज्यादा तो नहीं. खास तौर पर जब मंच का मकसद अपने विचारों को दूसरों पर थोपना और उसका प्रसार करना न हो तो. हां, अपनी राजनीतिक, वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं छोड़नी चाहिए. मेरी जो सोच है, वही रहेगी. उससे विचलन संभव नहीं.

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आपकी राजनीतिक प्रतिबद्धता क्या है?
मैं हर उस व्यक्ति के साथ हूं, जो हाशिए पर है और जिंदगी के सबसे निचले पायदानों पर धकेल दिया गया है. जो सभी बुनियादी सुखों और अधिकारों से वंचित है.

आजकल क्या नया लिख रहे हैं?
अभी किशोरों का उपन्याास लिखकर खत्म किया है – 'रासा यासि और त'.

इसके बारे में कुछ बताइए.
ये तीन बेटियों की कहानी है. 24 अलग-अलग कहानियां हैं, जो आपस में जुड़कर एक उपन्याास की शक्ल ले लेती हैं. बेटियों की बात है इसमें. इससे ज्यादा कुछ नहीं बताऊंगा. पढ़ने के लिए इंतजार करो.

बेटियों की आवाज काफी मुखर हो रही है आजकल. आपने सुना ही होगा हरियाणा वाली घटना के बारे में, जिसमें दो लड़कियों ने छेड़खानी करने वाले दो लड़कों को बस में बेल्ट से पीटा.
हां सुना. टीवी पर देखा था. हालांकि टीवी पर उसका दूसरा पक्ष भी दिखा रहे हैं, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि अगर लड़कियां प्रतिरोध कर रही हैं तो यह बहुत अच्छा है. अगर वो लड़कियां गलत साबित भी हो जाएं, तो भी उनसे बहुत सारी दूसरी लड़कियों को हिम्मत तो मिली ही है. फिर सही लड़कियां, सही वजहों से गलत के खिलाफ आवाज उठाएंगी. मुझे तो यह बदलाव देखकर बहुत खुशी होती है.

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विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता, ताकि सनद रहे
सबसे गरीब आदमी की
सबसे कठिन बीमारी के लिए
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्‍टर आए
जिसकी सबसे ज्‍यादा फीस हो

सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्‍टर
उस गरीब की झोपड़ी में आकर
झाड़ू लगा दे
जिससे कुछ गंदगी दूर हो
सामने की बदबूदार नाली को
साफ कर दे
जिससे बदबू कुछ कम हो

उस गरीब बीमार के घड़े में
शुद्ध जल दूर म्‍युनिसिपल की
नल से भर कर लाए
बीमार के चीथड़ों को
पास के हरे गंदे पानी के डबरे
से न धोए
बीमार को सरकारी अस्‍पताल
जाने की सलाह न दे
कृतज्ञ होकर
सबसे बड़ा डॉक्‍टर सबसे गरीब आदमी का इलाज करे
और फीस मांगने से डरे

सबसे गरीब बीमार आदमी के लिए
सबसे सस्‍ता डॉक्‍टर भी
बहुत महंगा है

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