विष्णु खरे अद्भुत कवि, लेखक और चिंतक थे. बड़े कद के संपादक, आलोचक और अनुवादक भी. उनसे बात करना हमेशा एक विचारोत्तेजक और चिर-स्मरणीय अनुभव होता. इसलिए मन बार-बार उनके पास जाने को ललकता था. फिर एक बड़ी बात यह कि विष्णु खरे से किसी भी विषय पर बात करो, तो साहित्य, संस्कृति, समाज और लोक खरेवन के इतने जाने-अजाने संदर्भ खुलते चले जाते कि बातों की रौ में न समय का कुछ पता चलता और न स्थान का. जैसे आप देहातीत होकर किसी नई ही दुनिया में जा पहुंचे हैं, जहां काल के साथ आपकी एक अबाध यात्रा शुरू हो जाती है, जो देशकाल के बहुत से परिचित संदर्भों को पीछे छोड़ती हुई, एक नई और आश्चर्यों भरी खोज में बदल जाती है.
शायद इसलिए कि विष्णु खरे की हर कविता, हर विचार, हर चिंता और भीतरी जद्दोजहद शुरू चाहे जहां से भी हो, अंततः वह मानव खरेवन के बहुत व्यापक संदर्भों तक चली जाती है. इसीलिए विष्णु खरे की कविता ही नहीं, उनका दृष्टिबोध या 'विजन' भी अन्य साहित्यिकों से बहुत अलग है, और इसीलिए उनका साहित्यिक कद भी औरों से बहुत ऊंचा नजर आता है, जिसके शीर्ष को छू पाना हर किसी के बस की बात नहीं है.
विष्णु खरे से मेरे बहुत इंटरव्यू हैं, जो 'पहल' सरीखी पत्रिकाओं में छपकर खासे चर्चित हुए हैं. यहां तक कि खुद विष्णु खरे के पास उन विचारोत्तेजक इंटरव्यूज पर देश के कोने-कोने में फैले लेखकों, पाठकों और साहित्य रसिकों के इतने सराहना भरे फोन और चिट्ठियां आईं कि वे खुद भी आश्चर्यचकित थे. मेरे लिए तो यह सुखद और एक अत्यंत विरल अनुभव था ही. लगा, श्रम अकारथ नहीं गया. हर बार विष्णु खरे से होने वाली बातचीत कोलंबस की नई खोज-यात्रा सरीखी रोमांचक लगती. इसलिए जब मैंने विष्णु खरे दारा अनूदित फिनलैंड का महाकाव्य 'कालेवाला', जो स्वयं में एक बृहत् और महदाकार कृति है- पढ़ा, तो मन में सवालों पर सवाल उठे और मन एक बार फिर उनसे बात करने के लिए ललक उठा.
आज से कोई पच्चीस बरस पहले, सन् 1999 में यह दिलचस्प बातचीत हुई, जिसके लिए मेरे मन में उत्सुकता भरे सवालों का पूरा एक पिटारा था. आखिर विष्णु खरे ने फिनलैंड के इस महदाकार राष्ट्रीय काव्य का अनुवाद करना क्यों पसंद किया? क्या यह एक थकाऊ काम नहीं था! फिर अनुवाद कार्य के दौरान किस तरह के अनुभव उन्हें हुए? क्या इससे गुजरते हुए उन्हें अपने यहां के रामायण और महाभारत सरीखे विश्व-प्रसिद्ध महाकाव्य याद आए? और अगर आए, तो इस फिनी महाकाव्य में उनसे क्या भिन्नता या समानता उन्होंने अनुभव की?...फिर इस महाकाव्य का नायक वैनामोयनिन हमारे महाकाव्य के उदात्त नायकों से काफी भिन्न भी है. विष्णु खरे को उसने किस रूप में फैसिनेट किया या नहीं किया!
ये सारे सवाल थे- कुछ और भी, जो उत्तर की तलाश में थे, और इसके लिए मन दौड़-दौड़कर विष्णु खरे के पास जा रहा था.
फिर एक और आश्चर्य की बात यह है कि 'कालेवाला' कोई बना-बनाया महाकाव्य न था, बल्कि यह एक तरह से बनाया गया महाकाव्य है. इसके रचनाकार लोनरोट ने फिनी लोक मानस में घुमड़ती बहुत सारी कथा-अनुकथाओं को मिलाकर, तथा काफी गुरुतर संपादन कार्य द्वारा फिनलैंड का यह पहला और असाधारण महाकाव्य 'कालेवाला' तैयार किया. पर लोनरोट को इस कार्य की जरूरत क्यों पड़ी, और इसके लिए प्रेरणा-भूमि उसके भीतर कैसे तैयार हुई-इस जैसे ढेरों सवाल थे. सवालों पर सवाल, जो मुझे व्यग्र कर रहे थे, और जब 'कालेवाला' पर बातचीत शुरू हुई तो सचमुच मैंने अपने आपको काल और इतिहास के एक अथाह प्रवाह में महसूस किया, जहां नए और खरेवंत अनुभवों का एक अपरंपार खजाना सा खुल जाता है.
यहां एक बार फिर से यह बता देना जरूरी है कि 'कालेवाला' फिनलैंड का राष्ट्रीय महाकाव्य है, जिसके केंद्र में वैनामोयनिन का बड़ा अद्भुत और करिश्माई चरित्र है. वह वीर और साहसी है, बुद्धिमान है और बड़ी से बड़ी मुसीबतों से हार नहीं मानता, तो साथ ही गीत-संगीत की महान संपदा उसके पास है. नीति, नैतिकता और सांस्कृतिक परंपरा की उसे गहरी समझ है. वह सृष्टि के विकास का महानायक है, जो बहुत सारी नई-नई हैरतअंगेज चीजें खोजता है, लोगों की भलाई और मदद के लिए बहुत से कठिन और साहसी काम करता है, जिससे उसके खरेवन में एक अलग सा आकर्षण आ गया है. एक बार 'कालेवाला' पढ़ लें, तो आप वैनामोयनिन के व्यक्तित्व के दुर्वह आकर्षण से बच नहीं सकते. वह हजार भुजाओं से आपको अपनी ओर खींचने वाला अद्भुत नायक है.
इस मानी में वैनामोयनिन तो एक महान चरित्र है ही, 'कालेवाला' भी खरेवन की एक संपूर्ण कल्पना और बड़े व्यापक विजन, व्यापक फलसफे के कारण हर किसी को आकर्षित करने और साथ बहा ले जाने वाला महाकाव्य है. खरेवन का हर पक्ष, हर पहलू वहां बड़ी भव्यता और धज के साथ देखने को मिलता है. इस लिहाज से 'कालेवाला' को पढ़ते हुए रामायण और महाभारत की याद न आए, यह हो नहीं सकता. यहां तक कि उसे पढ़ते हुए अपने बहुत सारे लोककाव्यों के चरित्र भी याद आते हैं. बेशक आल्हा-ऊदल भी, जिसे गाए जाने की हमारे यहां सैकड़ों बरस पुरानी बड़ी अद्भुत परंपरा है, और आज भी देश के अलग-अलग हिस्सों में वह किसी न किसी रूप में नजर आ जाती है. फिर बुंदेलखंड तो उसकी अपनी जमीन ही ठहरी.
पर इससे भी बड़ी बात यह कि विष्णु खरे 'कालेवाला' की प्रकृति और उत्स की चर्चा करते हुए, भारत के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद तक जा पहुंचते हैं, और ऋग्वेद के संबंध में उनकी एक अलहदा सी सोच या वैचारिक दृष्टि भी सामने आती है-
"आर्यों का भी ऋग्वेद जो है, दरअसल क्या है? ऋग्वेद को हम धार्मिक पुस्तक मानते हैं. ऋग्वेद धार्मिक पुस्तक नहीं है. ऋग्वेद एक कविता की पुस्तक है, जिसे डेढ-दो सौ ऋषियों ने बनाया है और वह एक हजार वर्ष में बनी है. वह कोई ऐसा नहीं है कि कल बन गया वेद, न! उसके लिए आर्य कहां से शुरू हुए, मध्य एशिया से, यहां तक आते-आते वेद बना है. उसमें स्मृतियां हैं, संघर्ष है, उसमें देव-दानव संघर्ष है. पता नहीं क्या-क्या है....ठीक वही चीज आपको 'कालेवाला' में एक छोटे पैमाने पर मिलती है...!"
'कालेवाला' में आदिम समाज की उपस्थिति है, जिसमें सभ्यता के शुरुआती चरण के साथ बहुत कुछ नया बन भी रहा है. नया और आश्चर्यों भरा भी, जिससे हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति को भी फिर से एक नए नजरिए के साथ देखने का अवसर मिलता है. वैनामोयनिन का चरित हो या 'कालेवाला' की विस्मयपूर्ण घटनाएँ, वे एक साथ इतनी भावोत्तेजक और विचारोत्तेजक हैं कि उन्हें पढ़ते हुए देर तक हम मुग्ध और अवाक से रह जाते हैं.
लिहाजा इस चर्चा के दौरान विष्णु खरे को स्वभावतः महाभारत और वैदिक काल की याद आती है और फिर आपसी तुलना में 'कालेवाला' का प्रभाव और उसकी भावभूमि जैसे एकाएक खुल पड़ती है-
"आप देखेंगे 'कालेवाला' में कि लगता है, ऐसे जैसे लगभग महाभारत काल या कि वैदिक काल सरीखा समाज है, लोग भटक रहे हैं, घूम रहे हैं, लड़ रहे हैं, हार रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, मिन्नतें कर रहे हैं, लोहा ईजाद कर रहे हैं, दुश्मनों को हरा रहे हैं, कभी दुश्मनों से भाग भी रहे हैं...!"
यह वर्णन मानो कुछ ही सतरों में 'कालेवाला' की समूची कथावस्तु और यति-गति को हमारी आँखों के सामने ले आता है.
यों वैनामोयनिन और 'कालेवाला' की अपील सार्वदेशिक है, और एक साथ हजारों दिलों में वे जगह बनाते हैं, वहां सैकड़ों बरसों से चुप-चुप सोई या ऊंघती हजारों चरित कथाओं को दिलों में ताजा करते हुए!
एक बड़े विजन और बड़ी धुन वाले कल्पनाशील लेखक लोनरोट को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने फिनी लोककाव्यों के बीच विद्यमान इस महाकाव्य को खोज निकाला और उसे बड़ी खूबसूरत तरतीब देकर, इस महाकाव्य को मौजूदा रूप में सामने रखा.
फिनलैंड ने किसी महाकाव्य के न होने पर भी अपना एक नया महाकाव्य गढ़ लिया. यह अपने आप में बड़ी चकित करने वाली और अनुकरणीय बात है. पर इसकी तुलना में अपने समाज को देखें तो हमें यह देखकर खेद होता है कि आल्हा-ऊदल और सिंहासन बत्तीसी सरीखी बहुचर्चित लोकगाथाओं को हमारे यहां वैसे सम्मान के साथ देखने-परखने और शुद्ध पाठ के साथ सामने लाने की कोशिश नहीं की गई, जैसा होना चाहिए था. बल्कि उन्हें अपढ़ जनता या मामूली पढ़े हुए लोगों के हिस्से आने वाले पटरी छाप साहित्य के हवाले कर दिया गया, जहां उन्हें बड़े खराब पीले पन्नों पर भ्रष्ट छपाई में देखकर खरे खराब होने लगता है. अपने देश और समाज की इस महान लोक संपदा का ऐसा बुरा हाल! क्या यह एक कृतघ्न समाज की निशानी नहीं है?
इस पर विष्णु खरे का जवाब गौर करने लायक है. वे कहते हैं-
"यदि हम कृतघ्न समाज न भी हों, तो हम कम से कम एक आलसी समाज तो हैं ही. जैसे आप देखिए, इस शताब्दी की शुरुआत में राहुल सांकृत्यायन ने कितना काम किया, कामतापसाद गुरु ने काम किया, हरिऔध ने काम किया, देवेंद सत्यार्थी हमारे बीच में 91 वर्ष के होने के बावजूद खरेवित हैं, वे अपने आप में एक प्रतिभा हैं. रवींद्रनाथ ठाकुर ने यह काम किया. आप सोचिए, कितने लोकगीत उन्होंने इकट्ठे किए....यह कबीर को स्थापित करने वाले दरअसल रवींद्रनाथ ठाकुर हैं, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर. अब दिक्कत यह हो रही है कि उतनी मेहनत कौन करे और उतनी दिलचस्पी कौन ले? उस तरह का दिमाग आप कहां से लाएँ कि आप जाएँ और ये...ये चीजें आपको लेनी हैं, यह समझ...?"
यहां तक कि इसके साथ ही उन्होंने हमारे दौर के विलक्षण कथाकार विनोदकुमार शुक्ल को भी याद किया, जिनके उपन्यासों को पढ़ते हुए अकसर लगता है, जैसे वे हिंदी के समकालीन कथा साहित्य में अपने ढंग की एक कसबाई लोक शैली बनाने की एक बिल्कुल अलहदा सी कोशिश कर रहे हों.
अलबत्ता, आगे बढ़कर चुनौतियों को स्वीकार करने वाले हिंदी के बड़े कवि-आलोचक और धुनी अनुवादक विष्णु खरे ने वर्षों के अथक श्रम से 'कालेवाला' का हिंदी में काव्यानुवाद किया. इस बारे में कोई ढाई दशक पहले, सन् 1999 में दूरदर्शन के लिए उनसे बातचीत हुई थी. इसमें एक महाकाव्य के रूप में 'कालेवाला' के दुर्वह आकर्षण, खुलेपन, विस्तार और बहुत सारी विशेषताओं की चर्चा हुई, तो संदर्भवश भारतीय महाकाव्यों और लोककाव्य पर भी बड़ी रसपूर्ण बातचीत हुई, जो आज भी खासी मौजूँ है.
प्रस्तुत है यह अनौपचारिक लेकिन बेहद विचारोत्तेजक बातचीत अपने अविकल रूप में.
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प्रकाश मनु- विष्णु खरे, 'कालेवाला' मैंने तीन बार पढ़ा, एक बार पूरी तरह और दो बार अंशों में, अपने प्रिय अंशों को. हर बार मैं पहले से कुछ ज्यादा चकित हुआ. एक तो इसमें जो आदिम स्मृतियों की गंध है, बेतरह लपेट लेने वाली, जिससे हमारी सभ्यता के चेहरे थोड़ी देर के लिए उतर जाते हैं. एक बड़ा ही सुखकर और विरल किस्म का अनुभव. और दूसरा, इससे अनुवाद की शक्ति सामने आई. इतना बड़ा काव्य-ग्रंथ हमारे दौर में इससे पहले शायद ही कभी अनूदित हुआ हो और इसे पढ़ते हुए ऐसा बिल्कुल नहीं लगा कि आप कोई अनूदित ग्रंथ पढ़ रहे हैं. तो यह जो बड़ा काम जिसे ऐतिहासिक महत्त्व का काम कह सकते हैं, इसे करने की प्रेरणा आप में कैसे जागी?
विष्णु खरे- (एक पल के लिए कुछ सोचते हैं, फिर एकाएक रौ में आकर) इसकी कहानी यह है प्रकाश खरे, कि बचपन में मेरा बहुत ज्यादा रुझान हमारे जो अपने भारतीय महाकाव्य हैं यानी महाभारत और रामायण और उनमें ज्यादा महाभारत, उसमें बहुत रहा है, उसके प्रति. तो मैं संसार के सारे महाकाव्यों के प्रति आकृष्ट हूं, इस तरह से आप देखें. यानी ये यूनान के महाकाव्य हैं या ये रोम के हैं, या अन्य यूरोपियन देशों के हैं. इसका जो किस्सा है, वह इस तरह है कि मैं जब हंगारी कविताओं का अनुवाद कर रहा था 1980 में, तो यह शायद आपको मालूम होगा कि हंगारी भाषा और फिनिश भाषा ये एक विशेष भाषा-परिवार से आती हैं, जिसे फिनो-अग्रिक भाषा कहा गया है. तो जब मैं इसका अनुवाद कर रहा था हंगारियन कविता का, तो यह बात फिनिश दूतावास में कुछ लोगों को मालूम पड़ी कि मैं हंगेरियन से अनुवाद करता हूं.
हालाँकि वह उनका भ्रम था, क्योंकि मैं हंगेरियन तो जानता नहीं हूं कि हंगेरियन से उसे अनुवाद करूँ, अंग्रेखरे के माध्यम से करता हूं. तब भी उन्होंने कहा कि भाई, यदि आपकी दिलचस्पी हंगेरियन कविता में है तो हमारे पास एक महाकाव्य है, जो कि फिनिश भाषा में है. आप उसे देख लें, यदि आप अनुवाद करना चाहें तो हमें बतलाएँ. जब मैंने इस महाकाव्य जिसका कि मूल नाम 'कालेवाला' है, कलेवा नाम का एक जिला है, वहां की कथा है यह बेसिकली...
प्रकाश मनु- खरे.
विष्णु खरे- तो जब मैंने 'कालेवाला' का अंग्रेखरे अनुवाद पढ़ा, जो एक किर्बी नाम के सज्जन हैं, उन्होंने आज से ठीक सौ साल पहले किया था अंग्रेखरे में. वह मुझे दिया गया. मैंने जब वह अनुवाद पढ़ा तो मैं जैसा कि आप कह रहे हैं कि आपको एक चमत्कार या चकित होने जैसी कैफियत होती है, तो ठीक वही मेरा अनुभव रहा. मैंने कहा कि भई, यह क्या चीज पढ़ रहा हूं मैं और यह कहां था अब तक, और इसके बारे में हमें पता क्यों नहीं है? क्योंकि एक जो मोटी सी बात है, वह यह कि मूलतः 'कालेवाला' भी संघर्षों, युद्धों और मानव की प्रगति के बारे में है.
तो मैंने कहा कि यह तो बहुत...बहुत करीब है महाभारत से और यही नहीं, इसका जो नायक है वैनामोनिन, उसमें आप चाहें तो महाभारत के बहुत सारे योद्धाओं को देख सकते हैं. उसमें कृष्ण भी हैं, अर्जुन भी है, सात्यकि भी है, कहीं दुर्योधन, कर्ण भी मिल जाते हैं. तो मैंने कहा, ठीक है मैं उसको करूँगा, लेकिन जैसा कि आप जानते हैं, ये 24 हजार पंक्तियों का महाकाव्य है...
प्रकाश मनु- खरे हां, यही बात चकित करती है!
विष्णु खरे- उन्होंने मुझसे कहा कि आप इसे एक साल में कर दीजिए. मैंने कहा, एक साल में करना तो असंभव है, लेकिन मैं इसके लिए कुछ वक्त लूँगा. खैर, उन्होंने मुझे वक्त दिया, यानी 1984-85 में मैंने काम शुरू किया इस अनुवाद पर और होते-होते यह खत्म हुआ 1989 में, यानी 4-5 साल लग गए. लेकिन यह इसलिए संभव हुआ कि महाभारत मैंने बचपन से लेकर अब तक, आप उस पर यकीन करें या न करें, मैंने सैकड़ों बार पढ़ा है.
प्रकाश मनु- हां, आप कहते थे पहले.
विष्णु खरे- तो चूँकि उसको पढ़ने का अभ्यास है और वह तो एक लाख श्लोकों का है. इससे पाँच गुना है वह, 'कालेवाला' से. तो यदि उसे पढ़ने का अभ्यास है और उसको पढ़ने में रुचि है और बार-बार रुचि है और बार-बार मैं उसके पास जाता हूं. तो मैंने कहा, 'कालेवाला' भी सध सकता है...!
प्रकाश मनु- (अचानक बीच में टोकते हुए) क्षमा करें, बीच में टोक रहा हूं विष्णु खरे....यह 'कालेवाला' इस हिसाब से क्या विरल किस्म का महाकाव्य नहीं लगता, आपको, या एक विरल किस्म का उदाहरण नहीं लगता कि और जो महाकाव्य लिखे गए, उससे भिन्न एक प्रकिया इसके रचे जाने की है? यानी एक राष्ट्रीय काव्य की जरूरत फिनलैंड में महसूस की गई और फिर वीरगाथात्मक कविताओं को मिला करके यह राष्ट्रीय काव्य बना. क्या यह आपको बहुत चकित करने वाली बात नहीं लगती कि आज के वक्त में जबकि भौतिक अनुसंधानों पर इतना जोर दिया जा रहा है, तब कोई देश अपनी सांस्कृतिक पहचान या राष्ट्रीय अस्मिता के लिए एक राष्ट्रीय महाकाव्य की जरूरत महसूस करे? एक तो यह, और दूसरा यह कि इस तरह से जो महाकाव्य बनेगा, क्या वह एक जबरदस्ती का महाकाव्य नहीं लगेगा...? यानी महाभारत की तुलना में क्या वह कुछ कम विकसित या अल्प विकसित, इस प्रकार का भी लग सकता है? यह मैं जानना चाहता हूं.
विष्णु खरे- यह बात तो सही है कि यह कहीं लिखित नहीं था, लेकिन वैनामोयनिन की कहानियां, इलमारिनिन की कहानियां, ये सब फिनलैंड के लोकखरेवन में बिखरी हुई थीं. अब इसमें इसका जो संकलनकर्ता है, जिसका नाम एलियास लोरनोट है, जो एक डाक्टर था, मेडिकल डाक्टर पेशे से. लेकिन उसको एक दिलचस्पी थी ऐसी चीजें इकट्ठी करने की, उसने किया. जैसे अपने यहां देवेंद्र सत्यार्थी खरे को है. इस तरह का यह काम था, वैसे पागलपन का. तो उसने कई बरसों तक घूमते हुए और सैकड़ों-हजारों लोगों के साथ, लोकगायकों के साथ मिलकर, बैठकर उनसे वे गीत सुनकर उनको रिकार्ड करके, वह सारी लय, वह सारा संगीत सुनकर उसने उसको एक तरतीब दी....
अच्छा, यह आपने सवाल बहुत अच्छा उठाया कि महाकाव्य की जरूरत क्यों है? अब यह जो प्रश्न है न, यह हमें सालता नहीं, क्योंकि हमारे पास दो महाकाव्य तो बने-बनाए हैं. उसके बाद भी ऐसी पुस्तकें हैं जिनको आप महाकाव्य कह सकते हैं और हर भाषा में हैं महाकाव्य, और अभी तक लिखे जा रहे हैं. तो हमारे यहां महाकाव्यों का टोटा नहीं है. हुआ यह कि यूरोप में जो जर्मन महाकवि गोएथे थे, उन्होंने विश्व साहित्य की एक परिकल्पना की और उनका सिद्धांत है कि जिस राष्ट्र के पास अपना महाकाव्य नहीं है, वह राष्ट्र नहीं है. उनका सिद्धांत यह था कि यदि एक जनता अपने आप को राष्ट्र कहलाना चाहती है तो उसके पास कम से कम अपना एक महाकाव्य तो जरूर होना चाहिए.
प्रकाश मनु- नहीं, लेकिन अगर वह जबरदस्ती का महाकाव्य है, बनाया गया महाकाव्य, तो क्या वह कुछ अल्प विकसित महाकाव्य न लगेगा...?
विष्णु खरे- (हैरानी से) नहीं, जबरदस्ती कहां है!
प्रकाश मनु- या उसमें कुछ एक बनावटीपन, यह नहीं लगेगा?
विष्णु खरे- नहीं, देखिए वह तो ऐसा है...
प्रकाश मनु- (बीच में टोकते हुए) जैसे कि सांगोपांग विकास जिस तरह से रामायण या महाभारत में चरित्रों का दिखाई पड़ता है, शायद वैसा यहां 'कालेवाला' में नजर न आए.
विष्णु खरे- लेकिन आप यह भी तो देखें न, जैसे अपना ऋग्वेद है...
प्रकाश मनु- हां.
विष्णु खरे- ऋग्वेद को डेढ़-दो सौ ऋषियों ने लिखा है. यह आपको कैसे मालूम कि वाल्मीकि की रामायण सिर्फ वाल्मीकि ने ही लिखी है? इसके प्रमाण हैं कि उसके कई लेखक हैं, हैं न! तुलसीदास का जो रामचरित मानस है, वह दरअसल मूल ग्रंथ नहीं है. उसका अधिकांश वाल्मीकि रामायण का अनुवाद है. तो महाकाव्य को एक व्यक्ति के द्वारा लिखा गया एक मोनोलिथिक ग्रंथ मानना भी गलत है, जैसे हमारे यहां आल्हा...आल्हा महाकाव्य. अभी अगर आप बुंदेलखंड में जाएँ तो बुदेलखंड के हर शहर में अलग-अलग आल्हा गाया जाता है. लेकिन उसको मिला के एक आल्हा बनता है और बनना चाहिए.
तो लोनरोट ने ठीक यही काम किया. वह गाँव-गाँव गया, दूर-दराज के गाँव तक, जहां स्लेज के कुत्ते भी नहीं पहुंच सकते थे, वहां गया वह. उसको यदि मालूम पड़ता कि एक कोई पागल गायक है कहीं, जिसके पास डेढ़ सौ पंक्तियां हैं 'कालेवाला' की, तो वह जाता था, रिकार्ड करता था.
तो इस तरह से यह चमत्कार उपलब्ध तो था, लेकिन लोक खरेवन में बिखरा हुआ था. लोनरोट का जो कमाल है, वह एक संपादक का कमाल है कि उसने इस...इस पूरे महाकाव्य की कहानी के बीच में एक तार खोजा. उसको एक तरतीब दी और बाकायदा फिनलैंड सरीखे देश को एक महाकाव्य दिया, क्योंकि यह आप न भूलें, हम लोग आज का यूरोप देखते हैं और समझते हैं कि यूरोप बहुत तरक्की हमेशा करता रहा होगा. यूरोप अंधकार में था 700 ई.पू. में और जब हमारे यहां अशोक और मौर्यों का साम्राज्य था, तब तो वहां सिर्फ भेड़ियों का राज्य था और यूरोपीय आदमी एक जानवर की तरह रहता था. वहां सभ्यता तो ये रोम वाले ले गए हैं 200 बी.सी. में. उससे पहले था क्या वहां? तो जब...ये सारी जनताएँ जागीं, जब इनमें ईसाइयत का प्रवेश हुआ और जो रोमन रेनेसाँ है, जब वह पूरे यूरोप में गया, तो इन सब जातियों को चिंता हुई कि हमारी किताबें कहां हैं, हमारी परंपरा कहां है, हमारे गीत कहां हैं, हमारा संगीत कहां है, हमारा साहित्य कहां है...?
उसको लेकर यह जो कोशिश शुरू हुई, उसमें फिर गोएथे ने एक पलीता लगा दिया कि अगर तुम्हारे पास महाकाव्य नहीं है तो तुम राष्ट्र ही नहीं हो. तो उन्होंने कहा, ठीक, हम ले के आते हैं!...इसमें कुछ जालसाजियां भी हुई हैं यूरोप में. लेकिन वे जालसाजियां पकड़ी गईं. लेकिन 'कालेवाला' के बारे में यह कोई नहीं कह सकता कि जालसाखरे है.
प्रकाश मनु- अच्छा, 'कालेवाला' में अगर यह देखें कि इसके चरित्र, या कथानक, घात-प्रतिघात या 'कालेवाला' का मैसेज, या कि 'कालेवाला' का एक खास तरह का आदिम और जादुई वातावरण, मतलब क्या चीज थी जो आप पर छा गई और अनुवादक के रूप में आपको एक चुनौती की तरह से महसूस हुई...?
विष्णु खरे- (कुछ सोचते हुए) एक तो यह है कि देखिए, 'कालेवाला' का जो समाज है, वह एक बनता हुआ और कच्चा, इन ए रॉ जिसको कहते न, जैसे हम लोग कोई कच्ची सब्खरे खाते हैं, तो इस तरह का समाज है और इस कविता में भी कच्चापन मौजूद है सारा. यानी एक सभ्यता है जो अभी विकसित हो रही है. उसमें लोग खेती करना सीख रहे हैं, उसमें लोग जंगल साफ करना सीख रहे हैं, उसमें लोग लोहा गलाना सीख रहे हैं. वहां भट्ठियां बन रही हैं, उसमें कुछ अखरेब किस्म की मशीनें बन रही हैं. फिर यह है कि जमीन को लेकर, जर को लेकर एक संघर्ष भी है. एक ताकत ऐसी है जो कि शायद पापमयी ताकत है और यह वैनामोयनिन की जो ताकत है, वह एक पुण्यमयी ताकत है, जैसा कि अपने रामायण और महाभारत में है कि रावण जो है, वह पाप का प्रतीक है, राम पुण्य के प्रतीक हैं. कौरव जो हैं, वे पापी हैं, पांडव जो हैं, वे पुण्यवान हैं.
तो इस तरह का एक आदिम संघर्ष जो आपको मिलता है, तो आपको लगता है कि जब आप अपने यहां देखते हैं अपने ट्राइबल्स को, आदिवासियों को, तो मुझे बार-बार लगता है कि इन लोगों में कहीं कोई 'कालेवाला' तो नहीं मौजूद है? इनका 'कालेवाला' क्या है? क्या किसी ने कोशिश की, कि इनका जो अपना महाकाव्य है, क्योंकि अब तो वो दूषित हो गया उनसे. लेकिन आज से 1200 वर्ष पहले या 2000 वर्ष पहले भीलों का या मुंडा का...?
प्रकाश मनु- खरे, संभवतः उनका अपना कोई 'कालेवाला' रहा हो...
विष्णु खरे- (अपनी रौ में आकर, थोड़े आविष्ट स्वर में) जैसे कि आर्यों का भी ऋग्वेद जो है, दरअसल क्या है? ऋग्वेद को हम धार्मिक पुस्तक मानते हैं. ऋग्वेद धार्मिक पुस्तक नहीं है. ऋग्वेद एक कविता की पुस्तक है, जिसे डेढ-दो सौ ऋषियों ने बनाया है और वह एक हजार वर्ष में बनी है. वह कोई ऐसा नहीं है कि कल बन गया वेद, न! उसके लिए आर्य कहां से शुरू हुए, मध्य एशिया से, यहां तक आते-आते वेद बना है. उसमें स्मृतियां हैं, संघर्ष है, उसमें देव-दानव संघर्ष है. पता नहीं क्या-क्या है....ठीक वही चीज आपको 'कालेवाला' में एक छोटे पैमाने पर मिलती है, क्योंकि देखिए महाभारतकालीन जो समाज है, वह तो बहुत विकसित है. 'कालेवाला' का जो समाज है, वह अभी संघर्ष कर रहा है विकसित होने के लिए, और तभी उसके मार्ग में इतनी दिक्कतें आ रही हैं, इतना संघर्ष हो रहा है.
तो वह जो एक जद्दोजहद 'कालेवाला' में है, जो एक आमना-सामना है मुश्किलों से, हर तरह की बाधाओं से, और किस तरह से आदमी कितने बीहड़, कितने वीरानों में संघर्ष करके मानवीयता प्राप्त करता है, वह जो एक गरिमा है मानव की. तो 'कालेवाला' में ऐसा बहुत कुछ है, जो कि हमारा भी ठीक उतना ही है.
प्रकाश मनु- तो क्या 'कालेवाला' को मनुष्यता के सांस्कृतिक विकास की कथा कहा जा सकता है, जो कि थोड़े भिन्न रूप में शायद 'कामायनी' में रही हो. क्योंकि वहां भी मनु सृष्टि के प्रारंभकर्ता हैं, यहां वैनामोयनिन है. वहां भी वे फसलें उगाते हैं, एक नई सभ्यता को जन्म देते हैं. यहां वैनामोयनिन चाहे भिन्न प्रकार का चरित्र है, लेकिन लगभग वही काम कर रहा है.
विष्णु खरे- (एक प्रसन्न सहमति के साथ) हां प्रकाश खरे, यह तुलना तो आप चाहें तो हमारे पुराणों के मनु से कर सकते हैं, जब जल-प्रलय हो गया था और मनु ने फिर से सृष्टि शुरू की थी. या कि बाइबल के हजरत नूह से कर सकते हैं और आप निस्संदेह प्रसाद के मनु से भी शुरू कर सकते हैं, क्योंकि ऐसी शुरुआतें हर समाज में हुई हैं. यदि आप दक्षिण अमरीका चले जाएँ तो रेड इंडियंस के महाकाव्य ऐसे ही हैं, जहां ठीक से जद्दोजहद चल रही है. हर जगह आदमी नए सिरे से शुरू करता है और इसे सिर्फ एक सांस्कृतिक विकास मानना ही पर्याप्त नहीं है, मैं समझता हूं कि इसमें ज्ञान का भी प्रारंभ है. हां, किस तरह से आग लगी, आग बनी...
प्रकाश मनु- (उसी रौ में बात आगे बढ़ाते हुए) या साम्पो गढ़ी गई...!
विष्णु खरे- (प्रसन्न सहमति के स्वर में) या साम्पो गढ़ी गई, जिसमें ये सिक्के बनाए जा रहे हैं या चाँदी निकाली जा रही है. ये जो सब चीजें हैं, ये एक बड़ा रहस्यमयता का आवरण निर्मित करती हैं.
प्रकाश मनु- (बात आगे बढ़ाते हुए) या लोहे का जैसे विकास हुआ...
विष्णु खरे- (प्रसन्न स्वर में) खरे, लोहे का विकास हुआ. जैसे, वो जो पूरा प्रसंग है, अब उसमें आप देखें तो काफी गीतात्मकता है, लेकिन कहीं एक तथ्यात्मकता भी है. जैसे कि हम लोग कहते हैं कि भाई, ऋग्वेद में जो ऋचाएँ हैं, वे सिर्फ अग्नि या इंद्र और वरुण के बारे में नहीं हैं, उनके पीछे कुछ और बातें भी हैं...
प्रकाश मनु- हां.
विष्णु खरे- (बात पूरी करते हुए) ठीक यही बात 'कालेवाला' में भी है. मैं आप चाहें तो एक अंश पढ़ देता हूं, जिसमें कि लोहे के आविष्कार का वर्णन है....अब आप देखिए कि उसमें वैनामोयनिन जो कि इसका नायक है, वृद्ध आदमी है वो, उसको वृद्ध कहा जाता है, जैसे कि हर वृद्ध को होना चाहिए...
प्रकाश मनु- (बीच में टोककर) पर वह ऐसा लगता है, जैसे वृद्ध ही पैदा हुआ हो.
विष्णु खरे- (धीरे से सिर हिलाते हुए) खरे, वह वृद्ध पैदा ही हुआ है. तो वह कहता है कि (सामने रखी पुस्तक उठाकर, एक विशिष्ट लय में कविता पढ़ते हैं)-
तब वृद्ध वैनामोयनिन ने इन शब्दों में उत्तर दिया-
लोहे का जन्म मैं खूब जानता हूं
और कैसे इस्पात पहले गढ़ा गया था.
हवा पुरातन माँ है, जल सबसे बड़ा भाई है,
लोहा उससे छोटा भाई है और अग्नि उनके बीच में है
उक्को स्रष्टाओं में सबसे शक्तिशाली ने
ऊपर वर्ग में रहने वाले ईश्वर ने
हवा से जल को अलग किया, महाद्वीपों को जल से अलग किया
तब अशुभ लोहा जन्मा था, अनिर्मित, अविकसित.
उक्को शीर्षस्थ परिमंडलों के ईश्वर ने
अपने सर्वशक्तिमान हाथ आपस में रगड़े
और फिर अपने बाएँ घुटने पर उन्हें दबाया
और तीन कुमारियां उत्पन्न हुईं, सृष्टि की तीन सुंदर दुहिताएँ
लोहे के जंग की माताएँ और नीले मुँह वाले इस्पात की धायें.
डगमगाते हुए पैरों से कुमारियां चलीं नन्हे बादलों की किनारियों पर
और उनके सुविकसित स्तन झर रहे थे और उनके कुचाग्र
बहुत दर्द कर रहे थे, नीचे धरती पर उनका दूध बह चला,
उनके स्तनों से उफनकर बहते हुए भराव से
धरती पर दूध और दूध दलदलों पर, दूध शांत जल पर...
(फिर पुस्तक को मेज पर रखते हुए) तो इस तरह से यह प्रसंग काफी लंबा जाता है. मैं अभी कल ही कठोपनिषद् पढ़ रहा था. उसमें इतनी चीजें समान हैं कि जल कैसे बना और जल कैसे अग्नि से अलग हुआ और अग्नि से बाकी चीजों के साथ...यह सारा का सारा सिलसिला है, मैं आपसे बता रहा हूं.
प्रकाश मनु- हां, वे स्थल जिनमें वैनामोयनिन नहीं है, 'कालेवाला' के वे स्थल पढ़ने में मुझे दिक्कत आई....वैनामोयनिन के बगैर 'कालेवाला' की कल्पना करना मुश्किल होती है. लेकिन यह वैनामोयनिन कहीं न कहीं अभागा भी है, क्या ऐसा आपको लगता है? और इस लिहाज से वे चरित्र जिनसे आप उनकी तुलना कर रहे हैं, आपने अभी तुलना की, कृष्ण से या और दूसरे पात्र हैं, उनसे वह बहुत भिन्न भी कहीं लगता है.
विष्णु खरे- (कुछ सोचकर, वैनामोयनिन के चरित्र में गहरे उतरते हुए) देखिए, वैनामोयनिन जो है, वह एकायामी पात्र नहीं, उसमें कई तत्व हैं. इस अर्थ में कि कहीं तो वह कृष्ण की तरह बाँसुरी बजाता है या संगीत उत्पन्न करता है और उससे पूरी सृष्टि को मुग्ध कर देता है, है न. यह भी है कि उसकी बहुत गहरी दिलचस्पी नारियों में है.
प्रकाश मनु- लेकिन हर बार वो परास्त होता है...
विष्णु खरे- (सहमत होते हुए) परास्त भी होता है.
प्रकाश मनु- और कम से कम प्रेम के मामले में वह बेहद अभागा है.
विष्णु खरे- (धीरे से मुसकराते हुए) इसमें वह हमारे ऋषियों की तरह है. जैसे हमारे ऋषि विश्वामित्र वगैरह हैं, जिन्होंने उर्वशी और मेनका वगैरह से प्रेम किया, लेकिन असफल रहे या उनको श्राप मिला या कुछ भी हुआ. कुछ...कुछ अघटित घटा, गोया. तो वैनामोयनिन जो है, उसमें मैं सिर्फ कृष्ण को ही नहीं देखता. मैं उसमें हमारे जो महान हारे हुए योद्धा हैं, जैसे कि अश्वत्थामा है, उनको भी देखता हूं, कर्ण को भी देखता हूं. और जैसा मैंने अभी निवेदन किया कि वैनामोयनिन तो दरअसल हमारे प्राचीन ऋषियों की तरह है और जो कमजोरियां हमारे ऋषियों की थीं, वे उसमें हैं और जो महानताएँ हमारे ऋषियों और अवतार पुरुषों में थीं, वे भी उसमें हैं.
प्रकाश मनु- (कालेवाला की कथा के कारुणिक अंत की ओर इशारा करते हुए) वैनामोयनिन का जो पराभव है यानी 'कालेवाला' से जब वह पलायन करता है, तो एक शिशु जो कि अभी जन्मा ही शिशु है, बहुत छोटा शिशु है, जिसका बपतिस्मा भी नहीं हुआ, वह उसे फटकारता है और वैनामोयनिन अपनी सारी गीत-संगीत की संपदा उसे सौंपकर, परास्त और हतवीर्य हुआ हुआ सा वहां से पलायन करता है. यह अश्वत्थामा से बहुत मिलती-जुलती हुई सी स्थिति है....लेकिन यह स्थिति क्या बहुत निराश करने वाली है या कहीं उसमें एक आस्था भी है कि वह जो शिशु है, वह एक नए युग का सत्य है, जिसके सामने पुराने युग का बड़े से बड़ा पराक्रमी टिक नहीं सकता...?
विष्णु खरे- (गंभीरता से सिर हिलाते हुए) यह तो सही है. देखिए न, ऐसा है कि यदि वाल्मीकि सिर्फ वाल्मीकि ही रहते और सिर्फ अकेले वाल्मीकि ही रहते, तब तो बहुत मुश्किल होती. वाल्मीकि के बाद भी महाकवि आए. आखिरकार आप भास, भारवि, कालिदास, तुलसीदास सबका नाम लेते हैं, है न! यह इसलिए होता है कि कोई अच्छी परंपरा भी इसका अधिकार नहीं रखती है कि वह अमर हो जाए.
प्रकाश मनु- बहुत अच्छी बात कह रहे हैं आप!
विष्णु खरे- (चेहरे की एक अलग भंगिमा के साथ) क्योंकि अमरता जो है, एक तरह की तानाशाही है और किसी भी व्यक्ति को अमर होने का हक नहीं है, वरना यह परंपरा आगे नहीं बढ़ेगी.
प्रकाश मनु- बल्कि अमरता एक तरह की हार भी है...
विष्णु खरे- हार भी है, इसमें...इसमें वैविध्य नहीं आएगा...!
प्रकाश मनु- हां.
विष्णु खरे- (थोड़े आविष्ट स्वर में) यदि आज हम लोग इतने विविध लोग हैं-सब अरबों लोग इस संसार के-तो इसीलिए कि चीजें बदली हैं. इसलिए कि जब वैनामोयनिन, आपने बिल्कुल ठीक कहा, जब वह परास्त होता है, जब उसको बच्चा फटकारता है तो ठीक यही बातें जिस तरह कि हर युवा पीढ़ी अपने से पिछली वृद्ध होती पीढ़ी को फटकारती है कि अब आप अपना काम कर चुके, कृपया चले जाएँ! जो नागार्जुन की कविता है कि 'दादा खरे, आप कृपया रिटायर हों!'...यह बड़ी प्रसिद्ध कविता है उनकी. तो आप देखिए, ठीक वही भाव, नागार्जुन जिसको कह रहे हैं, इसको वैनामोयनिन को कहा गया था, आज से नौ सौ साल पहले कि दादा खरे, आप रिटायर हों...! (एक विचित्र रहस्यपूर्ण भंगिमा के साथ हँसते हैं.)
प्रकाश मनु- बहुत अच्छा कहा आपने....हां, और बल्कि यहीं मुझे याद आता है कि वैनामोयनिन में कहीं न कहीं नागार्जुन भी...
विष्णु खरे- हैं.
प्रकाश मनु- मुक्तिबोध हैं, त्रिलोचन हैं, देवेंद्र सत्यार्थी हैं.
विष्णु खरे- निराला हैं.
प्रकाश मनु- मतलब निराला भी हैं....तो इस तरह के जिन व्यक्तित्वों से हम परिचित हैं, कहीं न कहीं उनके अक्स हमें वैनामोयनिन में दिखाई पड़ जाते हैं. यह मुझे लगता है, यह उसकी सार्वकालिकता और शायद उसकी खरेत भी है.
विष्णु खरे- बिल्कुल यह है. और उसमें यह भी है...कि आप देखेंगे 'कालेवाला' में कि लगता है, ऐसे जैसे लगभग महाभारत काल या कि वैदिक काल सरीखा समाज है, लोग भटक रहे हैं, घूम रहे हैं, लड़ रहे हैं, हार रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, मिन्नतें कर रहे हैं, लोहा ईजाद कर रहे हैं, दुश्मनों को हरा रहे हैं, कभी दुश्मनों से भाग भी रहे हैं...(जैसे समूचा 'कालेवाला' एक साथ उनकी स्मृतियों में उमड़ पड़ा हो!)
प्रकाश मनु- या युद्ध हो रहे हैं और स्त्रियों के लिए युद्ध हो रहे हैं...
विष्णु खरे- युद्ध हो रहे हैं.
प्रकाश मनु- जिसमें बहुत सारा आदिम किस्म का साहस है...
विष्णु खरे- अच्छा, फिर एक बात और है कि हमारे यहां विवाह पद्धति है...
प्रकाश मनु- हां.
विष्णु खरे- ठीक वही विवाह पद्धति आपको 'कालेवाला' में मिलती है.
प्रकाश मनु- हां, उसका बहुत विस्तार से वर्णन...
विष्णु खरे- लगभग वैसा ही बारात का जाना, लगभग वैसे ही बारातियों का हँसी-ठिठोली करना...
प्रकाश मनु- उनका स्वागत होना.
विष्णु खरे- वैसे ही स्वागत, वैसे ही गीत, वही सलाह वधू को कि तू जब अपने पति के घर जाए तो ऐसा करना, ऐसा न करना. ऐसे बैठना, ऐसे उठना...!
प्रकाश मनु- बहुत अच्छे से है वह 'कालेवाला' में.
विष्णु खरे- तो मुझे लगता है कि आप देखिए कि इन्हें, जो-जो हमारी मूल, जो मानव की वैल्यूज हैं...
प्रकाश मनु- हां.
विष्णु खरे- यानी एक विवाहित औरत कैसे व्यवहार करे, एक कुँवारी कैसे व्यवहार करे. एक बहादुर व्यक्ति कैसे व्यवहार करे, एक महान चिंतक कैसे व्यवहार करे-यह सब कुछ उसमें हैं. और यह सब कुछ महाभारत में भी है. यह सब कुछ रामायण में भी है. (हाथ उठाए हुए, एक विचित्र दैहिक भंगिमा).
प्रकाश मनु- बहुत अच्छा उदाहरण आपने दिया विष्णु खरे....लेकिन यहीं मैं एक बात और, अपना एक पाठकीय अनुभव है जो, आपसे साझा करना चाहूंगा. वह यह कि मैंने जब-जब 'कालेवाला' को पढ़ा, तब-तब एक तरह की अव्यक्त पीड़ा भी मैंने महसूस की है. ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि 'कालेवाला' को मैंने उठाया हो और मेरे सामने 'आल्हा-ऊदल' वगैरह के वे पन्ने मेरी आँखों के आगे न तैर गए हों, जिन्हें कभी मैंने बचपन में पढ़ा था. वे बहुत छोटी-छोटी किताबें थीं और जो कभी चवन्नी या अठन्नी में मिला करती थीं. पीले कागजों पर वे छपी होती थीं और उनमें प्रूफ की बेशुमार गलतियां होती थीं.
तो जब-जब 'कालेवाला' को मैंने पढ़ा, तब-तब मन में यह जरूर आया कि हम अपनी इस विरासत का क्या कर रहे हैं...? मतलब, वह विरासत कमतर नहीं है, लेकिन उस विरासत का सम्मान करने की भावना हममें कम है. इस हिसाब से कहीं न कहीं हम एक कृतघ्न समाज हैं, यह हर बार मेरे भीतर आया. क्या आपको भी कोई इस तरह की चीज महसूस हुई?
विष्णु खरे- (एकाएक बहुत गंभीर होकर) देखिए, यदि हम कृतघ्न समाज न भी हों, तो हम कम से कम एक आलसी समाज तो हैं ही. जैसे आप देखिए, इस शताब्दी की शुरुआत में राहुल सांकृत्यायन ने कितना काम किया, कामतापसाद गुरु ने काम किया, हरिऔध ने काम किया, देवेंद सत्यार्थी हमारे बीच में 91 वर्ष के होने के बावजूद खरेवित हैं, वे अपने आप में एक प्रतिभा हैं. रवींद्रनाथ ठाकुर ने यह काम किया. आप सोचिए, कितने लोकगीत उन्होंने इठट्ठे किए....यह कबीर को स्थापित करने वाले दरअसल रवींद्रनाथ ठाकुर हैं, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर. अब दिक्कत यह हो रही है कि उतनी मेहनत कौन करे और उतनी दिलचस्पी कौन ले? उस तरह का दिमाग आप कहां से लाएँ कि आप जाएँ और ये...ये चीजें आपको लेनी हैं, यह समझ...?
इसमें कोई शक नहीं कि हमारे बेशकीमती इस तरह के लोककाव्य, महाकाव्य और यहां तक कि मैं कहता हूं कि हमारे जो मध्ययुगीन काव्य हैं, उन तक को कौन पढ़ता है आजकल? आप बतलाइए, कुतुबन कृत 'मृगावती' को कौन पढ़ता है? जायसी को कौन पढ़ता है या 'पृथ्वीराज रासो' कौन पढ़ता है? 'आल्हा-ऊदल' तो चलिए, खुदा का शुक्र है कि वह एक लोककाव्य इतना सशक्त है...
प्रकाश मनु- जिसे अशिक्षित लोगों ने खरेवित रखा हुआ है.
विष्णु खरे- हां, कि करोड़ों लोग उसको पढ़ रहे हैं आज भी...
प्रकाश मनु- मतलब पढ़े-लिखों के बजाय अनपढ़ों ने उसे ज्यादा खरेवित रखा हुआ है.
विष्णु खरे- लेकिन बाकी जो हमारे महाकाव्य हैं, वे बहुत बुरी दशा में हैं और वे हमारे कई जो इस तरह के अचीन्हे महाकाव्य हैं, वे तो शायद बिला ही गए होंगे. तो बेशक अब यह चाहिए संस्थाओं को और सरकार को और मैं यह बार-बार माँग करता रहा हूं कि इस देश में लोक संस्कृति की एक अपनी स्वतंत्र अकादमी होनी चाहिए.
प्रकाश मनु- विष्णु खरे, एक आखिरी सवाल!...और वह आपकी ही इस बात से जुड़ा हुआ है. अभी सत्यार्थी खरे से मेरी बातचीत हुई, आपने उनका जिक्र किया तो उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा यह जो सभ्य या शहराती कहा जाने वाला साहित्य है, इसको बार-बार अपनी थकावट मिटाने के लिए लोकगंगा में स्नान करना होगा और स्नान करके फिर वह पुष्ट होगा, फिर वह नया होगा और नई ताकत और ऊर्जा से भरेगा. क्या 'कालेवाला' इस तरह की एक चुनौती देता हुआ भी आपको लगता है, इस समय जबकि एक सदी के अंत में यह महाकाव्य हिंदी में आया है? क्या इस तरह की चुनौती लेकर भी यह आया है, ऐसा आपको लगता है...?
विष्णु खरे- (कुछ सोचते हुए) भाई देखिए, मैं यह तो नहीं कहता कि हिंदी का कवि या भारतीय कवि 'कालेवाला' से कोई प्रेरणा पाप्त कर सकता है सीधे. लेकिन हां, वह यह प्रेरणा जरूर प्राप्त कर सकता है कि 'कालेवाला' के समतुल्य हमारे लोककाव्यों को पढ़े, उन्हें खोजे, हमारे लोकगीतों में जाए. देखिए, रेणु ने क्या किया? रेणु ने एक बिल्कुल समसामयिक लोककाव्य का आविष्कार किया. हमें ऐसा करना चाहिए, जैसा एक स्तर पर विनोदकुमार शुक्ल कर रहे हैं.
प्रकाश मनु- हां.
विष्णु खरे- (प्रसन्न भंगिमा) वह एक निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई लोककाव्य की खोज कर रहे हैं. 'कालेवाला' सरीखे काव्यों का, भारतीय काव्यों का और भारतीय लोक सामग्री का अध्ययन शायद हम सरीखे बाद के कवियों को बहुत कुछ दे सकता है, इसमें तो मुझे कोई शक नहीं है. (एक दृढ़ निश्चयात्मक स्वर के साथ बात पूरी करते हैं.)
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बातचीत काफी लंबी खिंच गई थी. जितनी लंबी उससे ज्यादा व्यापक भी, और मैं अब भी उसी में डूब और इतरा रहा था. जितनी उम्मीद थी, उससे कहीं ज्यादा मेरी झोली में आ पड़ा था, और यह आनंद मेरे भीतर किसी महा सिंधु की तरह उमड़ रहा था.
लिहाजा अपनी कापी के पन्ने समेटते हुए मेरी विचित्र हालत थी. किसी लंबी समाधि सरीखी. बहुत गहरी-गहरी सी, और बेहद आह्लादपूर्ण भी.
मुझे अपने सवालों के जवाब मिल चुके थे, और इतने खुलेपन और भावात्मक विस्तार के साथ कि मैंने पहले शायद इसकी कल्पना न की थी. हां, बातचीत में विष्णु खरे का एक अलग ही रूप नजर आता है, जिसमें एक बड़ा, बहुत बडा दार्शनिक विजन नजर आता है-बड़ी सोच और एक विराट दृष्टिफलक भी, और उनके साथ विचारों की रौ में बहना मुझे मुग्ध करने के साथ ही बहुत चमत्कारपूर्ण लगता है. विष्णु खरे का कुछ-कुछ गुस्से से भरा उत्तेजक रूप उनसे लिए गए पिछले कई इंटरव्यूज में मैंने देखा है, पर उनका ऐसा डूबा-डूबा सा विचारमग्न और भावनात्मक रूप पहली बार इस इंटरव्यू में ही उभरा, जो एक मायने में बहुत अलग-अलग सा और दुर्लभ साक्षात्कार था.
अलबत्ता विष्णु खरे से इस लंबी बातचीत के बाद सीढ़ियां उतरते हुए मैं पाता हूं कि 'कालेवाला' के अद्भुत नायक वैनामोयनिन के साथ ही, मानो स्वयं विष्णु खरे भी मेरे साथ-साथ आ रहे हैं.
दिल्ली से फरीदाबाद की लंबी थकाऊ यात्रा और एक के बाद एक, भीड़ से ठसी बसों का सफर. पर इसकी परवाह क्या, जब विष्णु खरे आपके साथ हैं-खयालों और तसव्वुरात में, और 'कालेवाला' पर उनके साथ-साथ बहते हुए सम-लय, सम-गति में जो असाधारण बात हुई है, वह फिर-फिर रिवाइंड होकर मेरे मस्तिष्क में किसी शास्त्रीय गायन की तरह एक द्रुत-विलंबित राग में बदल गई है, और मैं महसूस करता हूं कि इस महाकाव्य के आदिम नायक वैनामोयनिन की तरह मैं भी हृदय के समूचे उल्लास और भावावेग के साथ गा रहा हूं- और बस गाता ही जा रहा हूं, क्योंकि इसी तरह हम पूर्ण होते हैं!
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उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद में 12 मई, 1950 को जन्मे वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु का मूल नाम चंद्रप्रकाश विग है. आपने आगरा कॉलेज से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. की डिग्री हासिल की, पर साहित्यिक रुझान ने उनके जीवन का ताना-बाना बदल दिया. 1975 में आपने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया और 1980 में यूजीसी की फेलोशिप के तहत कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से 'छायावाद एवं परवर्ती काव्य में सौंदर्यानुभूति' विषय पर शोध किया. मनु अब तक शताधिक रचनाओं का सृजन कर चुके हैं. कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे और फिर लगभग ढाई दशक तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका 'नंदन' के संपादन से जुड़े रहे. फिलहाल प्रसिद्ध साहित्यकारों के संस्मरण, आत्मकथा तथा बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं. संपर्कः प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो- 09810602327, ईमेल- prakashmanu333@gmail.com