लेखक पंकज दुबे और पेंगुइन बुक्स ने भी 2013 में इसी तर्ज पर एक प्रयोग किया. उनकी किताब लूजर कहीं का हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ छपी और काफी चर्चित रही. सिर्फ हिंदी संस्करण ही अब तक 4,000 से ज्यादा बिक चुका है. पंकज कहते हैं, ''यह धारणा गलत है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. पाठक ढूंढ रहे हैं, लेकिन किताबें उन तक पहुंच नहीं रहीं.” अनिल यादव भी किताबों के भविष्य को बहुत उम्मीद से देखते हुए कहते हैं, ''हिंदी में पाठक बढ़ रहे हैं और उन्हें अच्छी किताबों की तलाश है. एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि हिंदी समाज की खरीद क्षमता भी बढ़ी है.”
अगर पाठक बढ़ रहे हैं और किताब खरीदने की क्षमता भी तो फिर किताबें क्यों नहीं बिक रहीं? इतनी कि लेखक सिर्फ लेखन को अपनी आजीविका का साधन बना ले. पंकज की राय में, ''ऐसा मुमकिन है. लेकिन इसके लिए हिंदी को त्याग, गरीबी और दयनीयता वाली अपनी पुरानी छवि से बाहर आना होगा, जिसे इतना महिमामंडित किया जाता है.” उनके मुताबिक, हिंदी साहित्य की सुई अतीत में कहीं अटक गई है. दुनिया तेजी से बदल रही है और डिजिटल हो रही है. मोबाइल और इंटरनेट के युग में हमें 'पुष्प गुच्छ डॉट कॉम’ वाली पुरानी भाषा और मुहावरों से बाहर आना होगा.
प्रकाशक वाणी प्रकाशन की डायरेक्टर अदिति माहेश्वरी का अपना तर्क है, ''हम पुरानी चीजों को नकार नहीं रहे. लेकिन यह तो सोचना होगा कि नई पीढ़ी की पाठकीय आकांक्षाओं को कैसे संबोधित किया जाए. उनकी भाषा क्या है? वे क्या पढऩा चाहते हैं? हमने इसी पाठक समूह के लिए नाइन बुक्स की शुरुआत की है.” सोशल मीडिया के दौर में इस नए उभरते पाठक वर्ग को दरकिनार नहीं किया जा सकता. शायद यही कारण है कि हिंदी का सबसे बड़ा प्रकाशन समूह राजकमल भी इसमें हाथ आजमाने जा रहा है. निरुपम कहते हैं, ''विश्व पुस्तक मेले में हम एक नई प्रिंट सीरीज लेकर आ रहे हैं, जिसके तहत हम पॉपुलर अभिरुचि की किताबें प्रकाशित करेंगे.”
हार्पर कॉलिंस की एडिटर मीनाक्षी ठाकुर हिंदी किताबों को मिल रही प्रतिक्रिया से बहुत संतुष्ट नहीं हैं. वे कहती हैं, ''हमने हिंदी किताबें यह सोचकर छापी थीं कि अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी के पाठक ज्यादा होंगे. हिंदी में अंग्रेजी से भी ज्यादा किताबें बिकेंगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.” मीनाक्षी के मुताबिक, हिंदी में सबसे बड़ी समस्या डिस्ट्रिब्यूशन की है. हिंदी पाठकों को भी यह नहीं मालूम होता कि उनके शहर में ये किताबें मिलेंगी कहां.
मीनाक्षी कहती हैं, ''हार्पर से पिछले साल आया रवि बुले का उपन्यास दलाल की बीवी 1,500 कॉपी बिका है. गर्व करने के लिए हमारे पास भी एक ही नाम है- सुरेंद्र मोहन पाठक.”
मीनाक्षी डिस्ट्रिब्यूशन की जिस समस्या की बात कर रही हैं, वह हिंदी के सभी प्रकाशकों की समस्या नहीं है. डायमंड बुक्स के मालिक नरेंद्र वर्मा कहते हैं, ''हमारी किताबें रेलवे स्टेशन और बस स्टॉप पर उपलब्ध हैं और खूब बिकती भी हैं.” राजपाल प्रकाशन के मार्केङ्क्षटग डायरेक्टर प्रणव जौहरी कहते हैं, ''हिंदी में खूब किताबें बिकती हैं. किताबों का न बिकना उन्हीं की समस्या है, जो सिर्फ सरकारी खरीद पर निर्भर हैं.” राजपाल से दो माह पहले छपकर आई अब्दुल कलाम की किताब आपका भविष्य आपके हाथ में की अब तक 3,600 प्रतियां बिक चुकी हैं. प्रणव के मुताबिक, रस्किन बॉन्ड को हिंदी में भी खूब पढ़ा जा रहा है. इस साल मार्च में हिंदी में प्रकाशित उनकी किताब रूम ऑन द रूफ की 2,600 प्रतियां बिक चुकी हैं. प्रणव कहते हैं, ''हिंदी किताबों की बिक्री का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है. किताबों की ऑनलाइन बिक्री ने इस बाजार को और विस्तार दिया है. पिछले साल के मुकाबले इस साल हमारी ऑनलाइन किताबों की बिक्री दोगुनी हुई है.”
ऑनलाइन सेल के दम पर हिंदी में एक नए उभर रहे प्रकाशक हिंद युग्म के शैलेश भारतवासी ने भी हिंदी को कुछ बेहतरीन किताबें दी हैं. 2014 में हिंद युग्म से छपी किताब दिव्य प्रकाश की मसाला चाय की 2,000 प्रतियां बिकी हैं और अनु सिंह चौधरी का कहानी संग्रह नीला स्कार्फ की 1,800 प्रतियां. शैलेश कहते हैं, ''पांच-दस हजार कॉपियों के बारे में तो अभी हम सोच भी नहीं रहे. हमने अपने लिए एक पैमाना बनाया है. जो किताबें 2,000 से ज्यादा बिकती हैं हैं, उन्हें हम बेस्ट सेलर की लिस्ट में डालते हैं.” हिंद युग्म की किताबें अधिकांशत: फ्लिपकार्ट, अमेजॉन और इनफीबीम डॉट कॉम जैसी वेबसाइट्स के जरिए ही बिक रही हैं. शैलेश कहते हैं कि हमारे प्रकाशन को खड़ा रखने में ऑनलाइन सेल की बड़ी भूमिका है. अंतिका प्रकाशन के गौरीनाथ का भी मानना है कि ''मोबाइल और इंटरनेट के युग में ऑनलाइन बिक्री के महत्व को नकारा नहीं जा सकता.”
{mospagebreak}कुल मिलाकर आंकड़े तो कह रहे हैं कि हिंदी में किताबें बिक रही हैं. लेकिन एक सवाल फिर भी मुंह बाए खड़ा है. मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ पूछते हैं, ''जो बिक रहा है, वह क्या सचमुच अपने समय को रेखांकित कर रहा है? जीवन के विद्रूप, संघर्ष, चुनौतियों और अंधेरे को पढऩे में किसी की रुचि है या नई पीढ़ी के सपनों और उनकी चिंताओं का भूगोल सेक्स, एंबिशन और महानगरों की चमकदार दुनिया तक ही सीमित है?” जवाब शायद कहीं बीच में है. जैसा कि पंकज दुबे कहते हैं, ''हिंदी के युवा पाठक को हनी सिंह की भाषा में जीवन दर्शन दीजिए. रामचंद्र शुक्ल की भाषा में बात करेंगे तो वह सुनेगा ही नहीं.” अनिल यादव के मुताबिक, हिंदी का बहुत बड़ा संकट यह भी है कि किताबों के नाम पर यहां हर साल बहुत सारा कूड़ा छप रहा है. उस लेखन में जीवन के वृहत्तर सवालों का हल ढूंढने की कोई कोशिश और बेचैनी नहीं है.
हालांकि हिंदी में पिछले दिनों आई कई किताबें ऐसी कोशिश करती दिखती हैं क्योंकि इन किताबों का लेखक पारंपरिक स्कूलों से आया हुआ नहीं है. वह न हिंदी का प्रोफेसर है, न पत्रकार और न ही हिंदी अधिकारी. इंजीनियरिंग और आइआइटी जैसे क्षेत्रों से जुड़े लोग हिंदी लेखन की ओर मुड़ रहे हैं. फिल्मकार दिबाकर बनर्जी कहते हैं, ''जिस तेजी के साथ सिनेमा में क्लास और मास के बीच की विभाजन रेखा कम हुई है, वैसा साहित्य में होता नहीं दिख रहा. यहां पीढिय़ों के बीच संघर्ष ज्यादा तीखा है. पुरानी पीढ़ी को नए लेखकों का साहित्य पल्प लगता है और नए लेखक भी काफी हद तक अपने समय की राजनैतिक सचाई से कटे हुए हैं.” दिबाकर कहते हैं, ''अगर आप वह पीढ़ी हैं, जो ग्लोबलाइजेशन के फायदे गिना रही है तो आपकी किताब आज भले बहुत चर्चित हो, लेकिन वह इतिहास में कहीं दर्ज नहीं होगी.”