“औरत अपना आप बचाए तब भी मुजरिम होती है,
औरत अपना आप गँवाए तब भी मुजरिम होती है.”
उर्दू शायरा नीलमा नाहीद दुर्रानी, अपने इन मिसरों के ज़रिए समाज में महिलाओं की स्थिति बयान करती हैं. ये तो हुई समाज में महिलाओं की स्थिति, लेकिन मौजूदा वक़्त में मंचों पर महिलाओं की दुनिया के क्या हालात हैं? मुशायरों, कवि सम्मेलनों और इस तरह के साहित्यिक मंचों पर महिलाओं को किस हद तक जूझना पड़ता है? इन तमाम पहलुओं पर महिला दिवस के मौक़े पर कुछ शायरात और कवयित्रियों ने अपने अनुभव साझा किए.
शायरा और कवयित्री लता हया, aajtak.in के साथ बातचीत में कहती हैं, “एक महिला के तौर पर साहित्यिक गतिविधियों में हिस्सा लेना हमारे लिए फ़ख़्र की बात होती है लेकिन मैंने इस बात को महसूस किया है कि महिलाओं को लेकर लोगों की मानसिकता रहती है कि ये क्या कवियित्री/शायरा होंगी, ये लोग तो किसी से कहलवाकर लाई होंगी. कवि और शायर ख़ुद को बहुत सुपर समझते हैं. उनको लगता है कि हम जो करते हैं, वही पोएट्री है,”
लता हया ख़ुद का तजुर्बा साझा करते हुए कहती हैं, “ज़्यादातर कवियों और शायरों की मानसिकता होती है कि अगर औरत को स्टेज पर बुलाएंगे, तो उसके हुस्न, ज़ुल्फ़ और चेहरे की तारीफ़ करते हुए बुलाएंगे. जब मैंने साहित्यिक दुनिया में क़दम रखा और मेरा पहला इंट्रोडक्शन इसी तरह से दिया गया, तो मैंने वहीं पर बग़ावत कर दी और मैंने ए’तिराज करते हुए कहा कि मुझे इस तरह से न बुलाया जाए क्योंकि इतिहास गवाह है कि औरतें पहले भी विदुषी हुई हैं.”
कवयित्री और कथाकार सुजाता कहती हैं, “कवि सम्मेलन में महिला होना अक्सर पुरुष ही याद दिलाते हैं. जब मंच का संचालन करने वाले या आयोजक पुरुष को किसी स्त्री द्वेषी टिप्पणी के लिए टोकना पड़ता है या अध्यक्षता करने वाले सीनियर कवि के चाशनी में भीगे मिसोजिनिस्ट वक्तव्य को सुनना पड़ता है, तो ख़राब लगता है.”
लता हया बताती हैं, “मैं कई बार ऑर्गनाइजर्स को बोल चुकी हूं कि अगर बेहूदा क़िस्म के लोगों बुलाया जाएगा, तो मैं प्रोग्राम में नहीं आऊंगी. अब कितने भी बड़े मंच संचालक हों, मुझे स्टेज पर संभलकर बुलाते हैं. मेरे साथ ऐसा भी हुआ है कि मैं विरोध करते हुए मंच छोड़कर उतरी हूं. लेकिन अगर ऑडियंस आपको प्यार करने लगे, तो उन्हें बुलाना ही पड़ता है.”
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नई पीढ़ी की उर्दू शायरा शारिक़ा मलिक कहती हैं, “मंच पर पोएट्री करने जाना मेरे लिए सबसे ख़ूबसूरत लम्हा होता है क्योंकि लोग मुझे सुनने आते हैं. मैं एक ऐसे समाज से आती हूं, जहां पर लड़कियों का मंच पर जाना सराहा नहीं जाता है लेकिन हम बहुत सारी सामाजिक बेड़ियों को तोड़ते हुए मंच पर पहुंच गए हैं.
वे आगे कहती हैं, “मौजूदा वक़्त में मंच पर जाकर अपनी बात कहने में बहुत मुश्किलों का सामना तो नहीं करना पड़ता है लेकिन एक डर ज़रूर बना रहता है कि आप कोई ऐसी बात न कह दें, जिससे आपके और परिवार के लिए मुश्किल न खड़ी हो जाए. हमें इस बात को देखना पड़ता है कि जब हम किसी प्रोग्राम में जा रहे हैं, तो उसके ऑर्गनाइजर्स कौन हैं और स्टे के लिए किस तरह के इंतजाम किए गए हैं.”
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित कवयित्री और गद्यकार बाबुषा कोहली कहती हैं, “साहित्यिक दुनिया में कई बार लोगों को लगता है कि कवयित्रियों को स्त्री होने का लाभ मिलता है, लेकिन ये सही नहीं है. ऐसा बोलकर स्त्रियों के संघर्ष पर सवाल खड़ा किया जाता है और सिरे से ख़ारिज कर दिया जाता है. वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो स्त्रियों की यात्रा का सम्मान करते हैं, तो ख़ुशी मिलती है. तब लगता है कि हम स्त्री होने के नाते कई आवाज़ों का प्रतिनिधित्व कर पा रहे हैं.”
बाबुषा कोहली कहती हैं, “जब हम किसी मंच पर होते हैं, तो हम किसी का प्रतिनिधित्व करते हैं, कुछ लोगों की आवाज़ बनते हैं. तो, बिना मूल्यांकन के दबाव के तले आए, स्त्रियों को तमाम माध्यमों से खुद को अभिव्यक्त करना चाहिए.”
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समकालीन प्रमुख महिला शायरात में शामिल आइशा अय्यूब कहती हैं, "मंच पर अक्सर हमें माइनॉरिटी फील होता है क्योंकि हम किसी बड़े प्रोग्राम्स में भी जाते हैं, तो वहां एक या दो शायरा होती हैं.”
IIT गांधी नगर के मुशायरे का ज़िक्र करते हुए आइशा अय्यूब बताती हैं, “मैं उस प्रोग्राम में अकेली शायरा थी. हम वहां पर रात के वक़्त पहुंचे. सुबह चार बजे की रिटर्न फ़्लाइट थी. ऐसे वक़्त में हमें ऐसा महसूस होता है कि हमारे साथ कोई और भी होना चाहिए. ऐसे में होता है ये कि शायरात इस तरह के प्रोग्राम्स में जाने से बचने लगती हैं. और वहीं, दूसरी तरफ़ अगर आपके घर वाले भी ऐसे प्रोग्राम में जाने के कम ही तैयार होते हैं, जहां पर महिलाओं का तादाद ना के बराबर हो.”
नई पीढ़ी की कवयित्री अनुपम सिंह कहती हैं, “पॉप्युलर मंच उन्हीं पॉप्युलर चीज़ों का उत्पादन करते हैं, जो पहले से समाज में कॉमन सेंस का हिस्सा होती हैं. कई बार उन मंचों पर कविता में महिला विरोधी चीज़ें देखने को मिलती हैं और पॉप्युलर इसीलिए हैं क्योंकि वो पहले से ही समाज का हिस्सा हैं. कई बार ऐसा होता है कि मंच पर कविता पढ़ने के लिए कवयित्री के तौर पर एक अकेली महिला बैठी है.”
सुजाता कहती हैं कि श्रोता अक्सर मंच पर चल रहे पॉवर प्ले को नहीं समझ पाते. किसे कम और किसे ज़्यादा महत्व देना है, यह सारा खेल संचालक और आयोजक मिलकर खेलते हैं, या संचालक अकेले. मैंने महसूस किया कि कविता पढ़ना हो या किसी और विषय पर बोलना, साथी पुरुष वक्ता स्त्री रचनाकार के बौद्धिक तेवर बर्दाश्त नहीं करते हैं.
शायरा आइशा अय्यूब कहती हैं कि साहित्यिक प्रोग्राम्स मेल-डॉमिनेटेड होते हैं. ऐसे में हमारे साथी शायरों में बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो आपके सामने तो बहुत अच्छा बनने की कोशिश करते हैं लेकिन कि वे पीठ पीछे शायरात के बारे में कई तरह की बातें करते हैं. कई-कई बार यह भी कहा जाता है कि महिलाएं पता नहीं किससे शायरी लिखवाकर लाती हैं, ख़ुद से लिख रही हैं या फिर कोई और लिखकर दे रहा है. मंच पर एक महिला और उसके शायरी की दिल से इज़्ज़त करने वाले लोग बहुत कम हैं.
बाबुषा कोहली कहती हैं कि कवि सम्मेलनों की दुनिया में पितृसत्ता होने का का सबसे बड़ा सुबूत यही है कि वहां पर पुरुषों की तादाद ज़्यादा होती है. दुनिया भर के अलग-अलग हिस्सों में जो पितृसत्ता का प्रभाव रहा है, उससे जूझने के लिए ज़रूरी है कि साहित्य की दुनिया में और ज़्यादा महिलाएं आएं. मैं चाहती हूं कि हर स्त्री अपनी कहानी, पीड़ाएं, सुख लिखे और जिन बातों से उसे आनंद मिलता है, उससे ख़ुद को अभिव्यक्त करे.
हाल ही में मंच पर हुई एक घटना का ज़िक्र करते हुए आइशा अय्यूब ने बताया, “मुशायरे के नाज़िम (मंच संचालक) ने मुझे टारगेट किया. वो मुशायरे के वक़्त क़रीब हर शायरा के साथ बदतमीज़ी, छेड़खानी, टांग खींचना और ऑडियंस को मज़े दिलाने के लिए कमेंट्स करते रहते हैं. वो कभी डायरेक्टली तो कभी दबे-छुपे लफ़्ज़ों में ऐसा करते हैं. पिछले साल अगस्त में उन्होंने स्टेज पर मेरे शायरी सुनाते वक़्त कमेंट किया. मैंने इसका ज़िक्र करते हुए सोशल मीडिया पोस्ट किया और इसके बाद उन्होंने मेरे ख़िलाफ़ कई साहित्यिक लोगों को भड़काया और सोशल मीडिया पर मेरा मोरल डाउन करने की कोशिश की गई. इसके बाद मैंने इस मामले पर क़ानूनी लड़ाई शुरू की और हमने 16 लोगों पर FIR की. मौजूदा वक़्त में ये मामला कोर्ट में चल रहा है.”
आइशा अय्यूब आगे कहती हैं, “अगर ऑडियंस के मज़े दिलाने के लिए आप महिला के साथ इशारों-इशारों में छेड़खानी करेंगे, तो स्टैंड-अप कॉमेडी और साहित्यिक प्रोग्राम में क्या फ़र्क़ रह जाएगा. मेरा ये सवाल है कि औरत को सीरियसली क्यों नहीं लिया जाता है. क्या संजीदा शायरी करने का ठेका सिर्फ़ मर्दों ने ले रखा है? एक शायरा भी तो हस्सास मुद्दों पर शायरी कर सकती है.”
कवयित्री अनुपम सिंह कहती हैं, “दर्शक की भी मानसिक संरचना कई बार चुनौती पैदा करती है. महिलाएं मंच पर भी कम होती हैं और महिलाएं श्रोता भी कम होती हैं. ऐसे श्रोताओं के बीच में कोई राष्ट्रवाद, राजनीति और अन्य संदर्भों की कविताएं पढ़ रहा है. एक कवयित्री महिलाओं के अनुभव और उनके अस्तित्व का सवाल लेकर कविता में जूझ रही हैं, तो सामने बैठे श्रोताओं की आंखों में देखने पर ये महसूस होता है कि हम उन तक अपनी बात पहुंचा नहीं पा रहे हैं. वहीं, दूसरी तरफ़ जागरूक श्रोताओं के सामने पढ़ने में किसी तरह की परेशानी नहीं होती है.”
श्रोताओं के बारे में बात करते हुए लता हया कहती हैं, “ऑडियंस बहुत अच्छे से सुनती है, कॉलेज के बच्चे बहुत समझदारी से सुनते हैं लेकिन अगर संचालन करने वाले और कवयित्री के बीच में छेड़छाड़ और छींटाकशी शुरू हो गई या फिर कोई कवयित्री अपनी तरफ़ के ऊट-पटांग शेर सुना दी, तो ऑडियंस बिगड़ जाती है.”
वहीं, शायरा शारिक़ा मलिक अपना एक्सपीरिएंस साझा करते हुए कहती हैं कि साहित्यिक प्रोग्राम्स में अब अच्छे लोग मिलने लगे हैं, जो बेहतर महसूस करवाने की कोशिश करते हैं. श्रोताओं और साथियों में कुछ लोग ज़रूर होते हैं, जो आपको असहज महसूस करवा देते हैं और ऐसे लोग हर जगह पाए जाते हैं. ऐसे वक़्त में टेक्नोलॉजी बहुत ही कारगर साबित हो रही है, जिसके ज़रिए आप अपने घर वालों से कनेक्टेड रह कर बेहतर महसूस करवा सकते हैं.
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लता हया कहती हैं, “मुशायरों में औरतों और मर्दों को रेशियो को ठीक करने की ज़रूरत है और ये ज़िम्मेदारी मुशायरे के ऑर्गनाइज़र्स की है. महिलाओं के साहित्य की दुनिया में और ज़्यादा आने की ज़रूरत है. जब दूसरे फ़ील्ड में लेडीज़ आ रही हैं, तो इस फ़ील्ड में क्यों नहीं आना चाहिए, औरत ज़ेहन नहीं है क्या? एक औरत मिस यूनिवर्स हो सकती है, बड़ी साइंटिस्ट हो सकती है, तो अच्छी शायरा और कवयित्री क्यों नहीं हो सकती?”
वे आगे कहती हैं कि इस बात अफ़सोस है कि मंच पर उन्हीं महिलाओं को ज़्यादा लाया जा रहा है जिनका गला अच्छा है या जो रिफ़रेंस के दायरे में आ जाती हैं. क्यों किसी शायरा को मकबूल नहीं किया जाता? एक बार मेरे सामने मंच पर शेर कोट किया गया लेकिन उनको ये नहीं पता था कि ये मेरा शेर है.
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लता हया, उर्दू और हिंदी दोनों तरह के मंचों पर जाती रहती हैं. वे आम अवाम के बीच, कॉलेज के मुशायरों और जेलों के कवि सम्मेलनों, हर तरह के कार्यक्रमों का हिस्सा रही हैं. वे मंचों का एक्सपीरियंस साझा करते हुए कहती हैं, “मुशायरे और कवि सम्मेलन में बहुत फ़र्क़ है. उर्दू मंचों पर आज भी तहज़ीब, अदब और सुनने का सलीक़ा बचा हुआ है. हिंदी मंचों पर आज भी लफ़्फ़ाज़ी ज़्यादा चलती है लेकिन उर्दू मंचों पर आज भी पोएट्री चलती है. वहीं, दूसरी तरफ़ उर्दू के सामईन ज़्यादा समझदार होते हैं, वे शायरी की गहराई को समझते हैं लेकिन हिंदी के श्रोताओं को कविता कहने के साथ समझाना भी पड़ता है.”