मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी अपनी सत्ता को बरकरार रखने की जंग लड़ रही है तो कांग्रेस वापसी के लिए बेताब है. इसके लिए कांग्रेस ने कमलनाथ के चेहरे को आगे कर रखा है तो दिग्विजय सिंह पर्दे के पीछे रहकर सियासी तानाबाना बुन रहे हैं. कांग्रेस की रणनीति का यह हिस्सा माना जा रहा है, क्योंकि एमपी का राजनीतिक मिजाज हिंदुत्व के रंग में चढ़ा हुआ है. यही वजह है कि कमलनाथ फ्रंटफुट पर तो दिग्विजय बैक डोर से बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने का खेल खेल रहे हैं?
पांच साल पहले मध्य प्रदेश में 2018 विधानसभा चुनाव को 2 महीने से भी कम समय बचा था, तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कैमरे पर एक बात कहते हुए नजर आए थे. उन्होंने कहा था कि वो चुनावों में प्रचार करना बंद कर चुके हैं, क्योंकि उनके भाषणों का असर कांग्रेस पार्टी को मिलने वाले वोटों पर पड़ता है.
दिग्विजय के इस बयान ने सत्ता पर काबिज बीजेपी के लिए चारे का काम किया. बीजेपी ने दिग्विजय का मजाक उड़ाते हुए दावा किया कि सबसे पुरानी पार्टी ने वोट डाले जाने से पहले ही अपने हाथ खड़े कर दिए. दिग्विजय ने पूरे चुनाव अभियान में खुद को लो प्रोफाइल रखा था. नतीजों में कांग्रेस को बहुमत से 2 सीटें कम मिली थीं और 15 साल के बाद मध्य प्रदेश की सत्ता में कांग्रेस वापसी करने में कामयाब रही थी.
पिछले हफ्ते कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व सीएम कमलनाथ ने भी एक बयान दिया. उन्होंने कहा कि 1 मई 2018 को उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले ज्यादातर लोग उन्हें नहीं जानते थे, लेकिन अब स्थिति बदल गई है.
मई 2018 तक कमलनाथ मध्य प्रदेश में करीब चार दशक बिता चुके थे. इन 40 सालों में ज्यादातर समय वह छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से सांसद रहे. 2018 का चुनाव जीतकर वह मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन उनका कार्यकाल सिर्फ 15 महीने ही चल पाया. कमलनाथ के बयान पर बीजेपी ने तंज कसा. पार्टी ने कहा कि मध्य प्रदेश में पहले उन्हें कोई नहीं जानता था, क्योंकि उन्होंने उनके (लोगों) लिए कुछ नहीं किया.
बता दें कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दोनों ही मध्य प्रदेश में कांग्रेस के धुरी बने हुए हैं, लेकिन दोनों ही उम्र में लगभग बराबर हैं. 76 साल के दोनों कांग्रेस नेता अपनी स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते हैं. दोनों ही राज्य के दूसरे नेताओं पर भारी पड़ते हैं. दोनों का गांधी परिवार के साथ अच्छा तालमेल है. पिछले साल जब कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होना था, तब मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम सामने आने से पहले तक दोनों नेताओं के नाम इस रेस में लिया जाता है, लेकिन पुराने सियासी योद्धाओं के बीच समानताएं यहीं खत्म नहीं होती हैं.
कमलनाथ का सियासी सफर
कमलनाथ का जन्म कानपुर के एक स्थापित व्यवसायी परिवार में हुआ. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1980 में सांसद के तौर पर की. तब वह संसद के निचले सदन में चुनाव जीतकर पहुंचे थे. इस समय वह मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य हैं. अपने पद पर बने रहने के लिए उन्हें 2019 में विधानसभा उपचुनाव लड़ना पड़ा, क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए विधायक नहीं थे. छिंदवाड़ा विधानसभा का उपचुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ हुआ था. छिंदवाड़ा का यह विधानसभा क्षेत्र उस लोकसभा क्षेत्र का भी हिस्सा है, जो मोदी लहर का सामना कर सकी.
2018 से पहले तक विधानसभा में नहीं रखा था कदम
2018 से पहले उन्हें ना जानने वाला बयान उनकी स्वीकारोक्ति में सच्चाई का अंश है. तब तक वह शायद ही कभी राज्य में रहे. पांच साल पहले जब उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी का प्रमुख बनाया गया, तब वह पीसीसी के अपने पिछले दौरे को याद नहीं कर सके. विधायक बनने से पहले उन्होंने कभी मध्य प्रदेश के विधानसभा परिसर में पैर तक नहीं रखा था. एक विजिटर के तौर पर भी नहीं.
हालांकि, कमलनाथ राष्ट्रीय राजनीति में अधिक सहज रहे और खुद को प्रदेश की सियासत से दूर रखे हुए थे. वह हमेशा कॉर्पोरेट और इंडस्ट्री सेक्टर के दिग्गजों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे. कमलनाथ खुद एक बिजनेस टाइकून हैं. एक समय पर वह देश के सबसे अमीर सांसदों में से एक थे.
कमलनाथ का अतीत देखा जाए तो पहले उनके चुनाव प्रचार भी हाई क्लास ही रहे हैं. वह अक्सर हेलीकॉप्टर से यात्रा करते थे. वे शाम से पहले घर लौटते आते थे. वहीं, दूसरे नेता इसके विपरीत अपने दिन की शुरुआत काफी पहले कर देते थे और देर रात तक प्रचार में लगे रहते थे.
दिग्विजय की 'स्टेट्स मैन'
दिग्विजय सिंह की बात की जाए तो उन्होंने 1960 के दशक के अंत में राघौगढ़ नगरपालिका के अध्यक्ष के तौर पर अपना करियर शुरू किया. 1977 में उन्होंने पहली बार विधानसभा चुनाव जीता. वर्तमान में वह राज्यसभा सांसद हैं. उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई थी, लेकिन बीजेपी की विवादास्पद सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर से हार गए थे.
दिग्विजय 1993 से लेकर 2003 तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. उन्हें अपने जमीनी काम पर गर्व है. उन्होंने कई बार पूरे मध्य प्रदेश की यात्रा की है. दिग्विजय सिंह गुना जिले में स्थित राघौगढ़ (पूर्व रियासत) के शासक बलभद्र सिंह के बेटे हैं. वह अक्सर राज्य के सभी 230 निर्वाचन क्षेत्रों को जानने का दावा करते हैं और दूसरों को प्रभावित करने के लिए दर्जनों के नाम भी लेते हैं.
दिग्विजय के नेतृत्व में 2003 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था. इसके बाद उन्होंने 10 साल तक कोई चुनाव नहीं लड़ने या किसी भी पद पर न रहने का संकल्प लिया था. इस वादे को उन्होंने बखूबी तरीके से निभाया. दिग्विजय के बेटे जयवर्धन सिंह मौजूदा समय में विधायक हैं. वह कमलनाथ सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. दिग्विजय सिंह मौजूदा समय में राज्यसभा के सदस्य हैं.
कमलनाथ और दिग्विजय में अंतर
कमलनाथ पांच साल बाद भी पीसीसी प्रमुख बने हुए हैं और पहले की तुलना में मध्य प्रदेश और मुद्दों से कहीं ज्यादा परिचित हैं. लेकिन वह सड़क यात्रा से अभी भी बचते हैं. कांग्रेस विधायकों और नेताओं ने पहले कुछ सालों में अक्सर शिकायत की थी कि उन तक पहुंचना आसान नहीं था. माना जाता है कि उन्होंने उन्हें (नेताओं को) केवल मिनटों का समय दिया.
वहीं, दिग्विजय पहले से ज्यादा फिट हैं और आज भी सड़क मार्ग से लंबी दूरी तय करते हैं. उन्हें उन 66 विधानसभा सीटों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा गया है, जिस पर पार्टी बार-बार हारती रही है. इस तरह दिग्विजय उन्हीं 66 सीटों पर अपना फोकस कर रखा है और साथ ही वो असहमति के स्वरों को शांत करना और कैडर्स को फिर से सक्रिय करना शामिल है.
दिग्विजय सिंह ने 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले नर्मदा परिक्रमा पूरी की. महीनों तक पवित्र नर्मदा नदी की पैदल यात्रा की. राज्य में कांग्रेस समन्वय समिति के अध्यक्ष नामित किए जाने के बाद उन्होंने एक और यात्रा की, लेकिन ये बहुत अधिक आकर्षण हासिल नहीं कर पाई.
कांग्रेस को लंबे समय तक देखने वालों का कहना है कि दिग्विजय सिंह ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों के स्थानीय नेताओं को नाम से जानते हैं, जबकि कमलनाथ के साथ ऐसा नहीं है. दिग्विजय की याददाश्त बहुत तेज है. वह मध्य प्रदेश को अपने हाथ के पिछले भाग की तरह जानते हैं. कमलनाथ स्ट्रेटेजी बनाने और नंबर गेम में माहिर हैं.
दिग्विजय सिंह एक बेहतर वक्ता भी हैं और कमलनाथ की तुलना में लंबे भाषण दे सकते हैं. वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह बताते हैं कि कमलनाथ एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे. जबकि दिग्विजय कई बार बहुत आक्रामक हो जाते हैं और प्रतिद्वंद्वियों को भड़काने के लिए काफी आगे तक बढ़ जाते हैं. कमलनाथ अपने शब्दों को मापते हैं. कमलनाथ के पूरे करियर में कोई विवादित बयान नहीं मिलेंगे.
हालांकि, एक पुराने कांग्रेसी नेता, जो अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं. वह कहते हैं कि कमलनाथ तुनकमिजाज नेता हैं. उनके साथ विश्वास वाली परेशानी भी है. दिग्विजय सिंह के पास संबंध बनाए रखने की कला है. वह छोटी सभाओं में भी चले जाते हैं, लेकिन कमलनाथ को बड़ा दर्शक वर्ग चाहिए होता है. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच यही अंतर है.
राजनीतिक हिंदू बनाम व्यक्तिगत
वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह बताते हैं कि दोनों धार्मिक हैं, लेकिन दिग्विजय खुद को कमलनाथ के विपरीत सार्वजनिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष दिखाते हैं. कमलनाथ खुद को सार्वजनिक रूप से हनुमान भक्त कहते हैं. एनके सिंह याद करते हुए कहते हैं कि कमलनाथ ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भड़के हुए माहौल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धार्मिक शख्सियतों की सेना का मुकाबला करने के लिए साधुओं के समूह को काम पर रखा था. साधु अलग-अलग गांवों में जाते थे और जब गांव वाले देखते थे तो नाथ को आशीर्वाद देते थे.
वहीं, दिग्विजय सिंह अपने व्यक्तिगत मामलों में कहीं ज्यादा धर्मनिष्ठ हिंदू हैं. वह नियमित रूप से पंढरपुर और तिरुपति जैसे स्थानों का दौरा करते रहे हैं और साल भर कई उपवास रखते हैं. हालांकि वह आरएसएस, बीजेपी और इसके द्वारा चलाए जा रहे हिंदुत्व के खुले तौर पर आलोचक भी हैं. सार्वजनिक मंच और मीडिया से बात करके हुए दिग्विजय अक्सर बीजेपी के हिंदुत्व की अलोचना करते हैं.
भगवा आतंकवाद, पुलवामा हमले और बाटला हाउस मुठभेड़ के बारे में दिग्विजय के आरोपों और आक्षेपों ने कई बार कांग्रेस को एक अजीब स्थिति में डाल दिया. पार्टी को कभी-कभी उनकी टिप्पणियों से खुद को दूर करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इसके विपरीत कमलनाथ भगवा आतंकवाद जैसे विवाद संभावित मुद्दों पर टिप्पणी करने से बचते हैं. वह सार्वजनिक रूप से अपनी हिंदू साख का दिखावा करते हैं और अक्सर अपने निर्वाचन क्षेत्र में खुद के द्वारा बनाई गई 101 फुट ऊंची हनुमान प्रतिमा के बारे में बात करते हैं.
(मिलिंद घटवई)