जीत हर सवाल का जवाब होती है. जीत के साथ ही सवाल भी खत्म हो जाते हैं. विधानसभा चुनावों में हार के बाद कांग्रेस के विपक्षी खेमे के नेताओं के निशाने पर आ जाने की सबसे बड़ी वजह तो यही है - लेकिन क्या बात बस इतनी ही है?
चुनावों में हार जीत लगी रहती है. जिस बीजेपी ने तीन राज्यों में चुनाव जीते हैं, 2018 में सत्ता में होते हुए भी चुनाव हार गयी थी. देखा जाये तो पिछली बार बीजेपी पांचो राज्यों में चुनाव हार गयी थी, कांग्रेस के पास तो ये कहने का मौका भी है कि एक राज्य तेलंगाना का चुनाव तो वो जीती ही है.
विपक्षी गठबंधन INDIA को लेकर सहयोगी दलों के नेताओं के निशाने पर कांग्रेस नेतृत्व के आ जाने की असली वजह सिर्फ ये नहीं है. बल्कि, ये तो बहाना भर है. असली बात तो ये है कि कांग्रेस अपनी ही चाल में फंस गयी है - और अब कांग्रेस के साथ विपक्षी खेमे के नेता बिलकुल वैसी ही राजनीति कर रहे हैं, जैसा कांग्रेस उनके साथ कर रही थी.
विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस नेतृत्व नीतीश कुमार के निशाने पर रहा. अब नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अखिलेश यादव तीनों एक साथ कांग्रेस नेतृत्व को आंख दिखाने लगे हैं, जैसे कांग्रेस ही विपक्ष के बिखराव के लिए जिम्मेदार है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने INDIA गठबंधन के 28 दलों की बैठक 6 दिसंबर को बुलाई थी. लेकिन ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव और हेमंत सोरेन जैसे नेताओं के न पहुंच पाने के कारण मीटिंग को रद्द करना पड़ा है. अब लालू यादव की तरफ से अपडेट किया गया है कि 17 दिसंबर को गठबंधन की मीटिंग होने जा रही है. लालू यादव ने ये भी कहा है कि मीटिंग में ममता बनर्जी सहित सारे नेता हिस्सा लेंगे.
सवाल ये है कि विपक्षी गठबंधन INDIA के सहयोगी दलों के नेताओं के निशाने पर कांग्रेस ही क्यों है?
क्या कांग्रेस अपनी ही चाल में फंस गयी है?
पटना से बेंगलुरू होते हुए मुंबई तक विपक्षी गठबंधन INDIA की बैठकें तय समय पर होती रहीं, लेकिन उसके बाद चुनावी ब्रेक लग गया. ब्रेक के बाद बैठक की तारीख 6 दिसंबर तय हुई, लेकिन रद्द करनी पड़ी क्योंकि सहयोगी दलों ने आने से मना कर दिया - एक बार फिर ये बैठक 17 दिसंबर को होने जा रही है.
गठबंधन नेताओं की मुंबई बैठक में आगे की रणनीति और एक्शन प्लान तैयार करने के लिए कुछ कमेटियों के गठन पर आम राय बनी थी, और सीटों के बंटवारे पर दिल्ली में बैठक होनी थी. बैठक तो हुई लेकिन मामला किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सका.
उसी दौरान मध्य प्रदेश में गठबंधन के नेताओं की रैली भी तय की गयी थी. ये तभी की बात है जब डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन ने सनातन पर बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया था. माना गया कि कांग्रेस नेता कमलनाथ हिंदुत्व को लेकर अपनी छवि खराब नहीं होने देना चाहते थे, इसलिए गठबंधन की रैली मध्य प्रदेश में नहीं होने दी.
लेकिन कमलनाथ वहीं नहीं रुके. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन होना तो दूर, कमलनाथ ने 'अखिलेश वखिलेश' बोल कर सियासी रिश्तों में और भी जहर घोल दिया.
नतीजा ये हुआ कि सीटों के बंटवारे को लेकर विपक्षी गठबंधन INDIA की बैठक टलती रही. सीटों के बंटवारे का मामला भी ऐसा रहा जिसे कांग्रेस भी टालना चाह रही होगी, क्योंकि सही समय आने पर अच्छे से मोलभाव हो सके. विपक्षी सहयोगी भी कांग्रेस की मंशा समझने लगे थे. नीतीश कुमार ने कांग्रेस को सीधे सीधे तो इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया, लेकिन चुनावी व्यस्तता पर सवाल उठाने की वजह यही रही.
नीतीश कुमार की ही तरह पूरे विपक्षी खेमे में माना जाने लगा कि कांग्रेस सीटों के बंटवारे का मुद्दा टालने के लिए ही चुनावी व्यस्ता का बहाना बना रही है. कांग्रेस की रणनीति यही रही होगी कि चुनावों में जीत के बाद वो ढंग से बारगेन कर पाएगी. उसी बीच, अखिलेश यादव की तरफ से भी एक चेतावनी भरा बयान भी आ गया था. अखिलेश यादव ने साफ साफ बोल दिया था कि यूपी की लोक सभा की 80 सीटों में 65 तो वो अपने पास रखेंगे, बाकी 15 सीटों में ही गठबंधन सहयोगियों को शेयर करना होगा - और ध्यान देने वाली बात ये भी थी कि जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी उनकी स्थायी सहयोगी होती है.
चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस को यूपी, बिहार और बंगाल के साथ साथ जम्मू-कश्मीर से भी नेताओं ने तेवर दिखाने शुरू कर दिये. यूपी से अखिलेश यादव, बिहार से नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी और जम्मू-कश्मीर से उमर अब्दुल्ला.
वैसे नीतीश कुमार ने गठबंधन की मीटिंग में शामिल न होने की वजह अपनी तबीयत ठीक न होना बताया है, लेकिन उमर अब्दुल्ला तो कह रहे हैं कि गठबंधन का मतलब सिर्फ कांग्रेस नहीं होता. सही बात है, गठबंधन में सभी बराबर के हकदार हैं. नीतीश कुमार को बीमार होने की बात कर सफाई इसलिए देनी पड़ी है, क्योंकि सवाल ये उठ रहे थे कि अगर बीमार थे तो मीटिंग से ठीक एक दिन पहले 5 दिसंबर वो कैबिनेट की मीटिंग में कैसे शामिल हुए थे.
उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कहा कि बैठक तब तक न हो, जब तक सीटों का बंटावार न हो जाए. और ममता बनर्जी ने अखिलेश यादव जैसी ही राय जाहिर की है.
क्या कांग्रेस वास्तव में विपक्ष के बिखराव के लिए जिम्मेदार है?
अब ये समझने की जरूरत है कि सीटों के बंटवारे का मसला कितना गंभीर है. सीटों के बंटवारे का मसला का विपक्षी गठबंधन INDIA के बिखराव की वजह बनने जा रहा है, या सिर्फ टकराव का मुद्दा भर है?
क्या विपक्षी दलों के नेता आपस में मिल जुल कर टकराव खत्म कर पाएंगे? 2018 में देखा जा चुका है कि पांचों राज्यों में हार के बावजूद बीजेपी 2019 में बेहतरीन प्रदर्शन के साथ सत्ता में शानदार वापसी करने में सफल रही - इस बार तो जोश पहले से ही हाई है.
ऐसे में अपना अपना अस्तित्व बचाने की जितनी फिक्र क्षेत्रीय दलों को है, कांग्रेस नेतृत्व को भी निश्चित रूप से होगी. सिर्फ इसलिए नहीं कि सीटें कम हो जाने से विपक्षी खेमे की राजनीति करना भी मुश्किल हो जाएगा. अरविंद केजरीवाल जैसे नेता तो राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को अभी से बताने लगे हैं कि उत्तर भारत में तो अब आम आदमी पार्टी ही सबसे बड़ा विपक्षी दल है. देखा जाये तो उत्तर और दक्षिण भारत में फर्क करने वाली राजनीति को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ही बढ़ावा दिया है. पहले तो दक्षिण भारत के नेताओं का हिंदी विरोध से ही काम चल जाता था. फिर सनातन धर्म को लेकर विवाद खड़ा करने की कोशिश होने लगी - अब तो उत्तर भारत के लोगों को 'अनपढ़' बताकर बयानबाजी होने लगी है.
अब विपक्षी गठबंधन INDIA में मुख्य तौर पर टकराव के दो ही मुद्दे हैं. एक प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी, और दूसरा, सीटों का बंटवारा. प्रधानमंत्री पद को लेकर भी नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने दावेदारी अपनी तरफ से छोड़ ही दी है. लेकिन जेडीयू नेताओं की तरह अब तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की तरफ से भी ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने की कोशिश होने लगी है.
कांग्रेस जब तक सीटों के बंटवारे पर समझौते को राजी नहीं होगी, क्षेत्रीय दलों के नेता नहीं मानने वाले. चाहे राहुल गांधी उनकी विचारधारा को लेकर कितने भी बयान क्यों न देते रहें - जब तक एक सीट पर बीजेपी के खिलाफ एक उम्मीदवार की रणनीति अपनायी नहीं जाती, बीजेपी का बाल भी बांका नहीं होने वाला है.