अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में कैंपेन के दौरान बार-बार एक सवाल जरूर पूछ रहे हैं, 'दूल्हा कौन है?' अक्सर ये सवाल उनका बीजेपी से ही होता है, लेकिन कांग्रेस पर भी ये सवाल पूरी तरह फिट बैठता है.
दिल्ली चुनाव में बीजेपी या कांग्रेस की तरफ से अरविंद केजरीवाल के मुकाबले मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित न किये जाने को कैसे समझा जाये. विधानसभा चुनावों में चेहरा घोषित किया जाना अपनेआप में बड़ा चैलेंज होता है, खासकर तब जब कोई निर्विवाद नेतृत्व न हो. निर्विवाद से आशय ऐसे नेता से है, जिसका कद इतना बड़ा हो कि बाकी सारे नेता मुकाबले में आस-पास खड़े न हो पाते हों.
हालत ये है कि आम आदमी पार्टी को इस बार बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस से भी जोरदार टक्कर मिल रही है. नई दिल्ली सीट पर भी मुकाबला कुछ कुछ ऐसा ही लगता है. नई दिल्ली विधानसभा सीट पर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी ने प्रवेश वर्मा और कांग्रेस ने संदीप दीक्षित को टिकट दिया है. प्रवेश वर्मा और संदीप दीक्षित दोनो ही दिल्ली से सांसद रह चुके हैं, और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों के बेटे हैं.
ऐसी सारी चुनौतियों के बावजूद अरविंद केजरीवाल का एक बड़ा मजबूत पक्ष है, दिल्ली में उनकी बराबरी का कोई नेता न होना - जिसे राजनीति में टीना (TINA) फैक्टर कहा जाता है.
दिल्ली में केजरीवाल का विकल्प कौन?
राजनीति में मोटे तौर पर टीना फैक्टर को सवालिया लहजे में समझा जा सकता है - कोई विकल्प है क्या? TINA यानी There is no alternative.
मतलब, सीधे सीधे सवाल ये हुआ कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का कोई विकल्प है क्या?
2013 के बाद से दिल्ली का तकरीबन यही हाल है, अरविंद केजरीवाल के मुकाबले का कोई नेता अब तक न तो बीजेपी को मिल सका है, न ही कांग्रेस को. शोर मचाने वाले, भड़काऊ और विवादित बयान देने वाले दोनो दलों के नेता अक्सर ही चर्चा में होते हैं, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस में कोई एक चेहरा नहीं नजर आता जो केजरीवाल के मुकाबले खड़े होकर चैलेंज करने की स्थिति में लगता हो.
ये तो नहीं कहा जा सकता कि कोई नेता है ही नहीं. निश्चित तौर पर कुछ तो होंगे ही, लेकिन किसी भी नेता को हाल फिलहाल उस तरीके से प्रोजेक्ट नहीं किया गया है - ये काम न तो बीजेपी करती है, न ही कांग्रेस नेतृत्व कर रहा है.
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का करीब करीब वैसा ही प्रभाव हो गया है, जैसा बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का, पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का या देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का - ये तो है ही कि सभी के सामने या तो कोई चेहरा नहीं है, या फिर आस-पास कोई नजर नहीं आता.
राष्ट्रीय राजनीति में तो मोदी के सामने राहुल गांधी भी चैलेंजर लगते हैं, और चुनौती देने के मामले में अरविंद केजरीवाल भी पीछे नहीं रहते, लेकिन दिल्ली में न तो मोदी और न ही राहुल गांधी, किसी ने भी अरविंद केजरीवाल के मुकाबले कोई नेता अब तक खड़ा नहीं कर सका है.
टीना फैक्टर क्या रंग लाएगा?
2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने चर्चित आईपीएस अफसर किरण बेदी को अरविंद केजरीवाल के मुकाबले खड़ा किया था, लेकिन वो नहीं चलीं. वो अपनी सीट भी हार गईं, और बीजेपी महज 3 सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस तो खाता भी नहीं खोल सकी, और वो सिलसिला 2020 में भी जारी रहा.
बल्कि, 2013 के चुनाव में कांग्रेस को 8 विधानसभा सीटें मिली थीं, और उसी के सपोर्ट से पहली बार अरविंद केजरीवाल सरकार बनाने में सफल हुए थे - तब बीजेपी डॉक्टर हर्षवर्धन के नेतृत्व में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन बीते दो चुनावों में बीजेपी 3 सीट 8 सीटों तक ही पहुंच सकी है.
2020 के चुनाव में भोजपुरी स्टार मनोज तिवारी दिल्ली में बीजेपी का नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन चुनाव में कभी लगा नहीं कि वो कोई चेहरा भी हैं. बल्कि, अक्सर अमित शाह के खास तौर पर जिक्र करने के कारण प्रवेश वर्मा थोड़े खास लगते थे. तब वो सांसद हुआ करते थे, लेकिन इस बार विधानसभा के लिए अरविंद केजरीवाल को चुनौती दे रहे हैं.
दिल्ली में इस बार भी बीजेपी 2020 की तरह मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है. पिछले चुनाव में हार के बाद संघ की तरफ से मुखपत्र के जरिये सलाह दी गई थी कि बीजेपी दिल्ली में स्थानीय नेतृत्व तैयार करे, मोदी-शाह के भरोसे न रहे. ये सवाल भी पूछा गया था, मोदी-शाह हर चुनाव में जीत पक्की नहीं कर सकते. सही भी है. कई बार देखने को भी मिला है - लेकिन 2025 में भी इस मामले में कोई तब्दीली नहीं हुई है.
कांग्रेस भी अभी तक शीला दीक्षित के शासन की दुहाई दे रही है. जैसे केंद्र में यूपीए सरकार का जब तब ढोल पीट लिया जाता है - लेकिन लोगों के लिए मायने क्या रखता है, महत्वपूर्ण ये है.
दिल्ली की मुफ्त की सुविधाओं को बीजेपी रेवड़ी कहती रही है, और अब अरविंद केजरीवाल भी उसी लहजे में समझाते हैं, अगर बीजेपी आई तो रेवड़ी बंद हो जाएगी - और हर परिवार पर करीब 25 हजार रुपये का एक्स्ट्रा बोझ पड़ेगा.
लेकिन बीजेपी और कांग्रेस की तरफ से नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को छोड़ दें तो मैदान में खड़े होकर कोई ये नहीं समझा पा रहा है कि अरविंद केजरीवाल नहीं तो कौन?
चुनाव में अपनी डगमगाती पोजीशन अरविंद केजरीवाल भी अच्छी तरह महसूस कर रहे हैं, तभी तो कुछ सीटें कम आने की बात भी उनके मुंह से सुनने को मिल रही है. बेशक मुकाबला कड़ा है, लेकिन एक सवाल का जवाब नहीं मिल पा रहा है - दिल्ली में अरविंद केजरीवाल नहीं तो कौन?
हालांकि, ऐसा ही सवाल 2004 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के सामने भी था कि अटल नहीं तो कौन? लेकिन, जनता ने किसी को चुना तो नहीं, बस भाजपा को नकार दिया. इसलिए दिल्ली चुनाव हर लिहाज से इस बार दिलचस्प है.