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भारत जोड़ो यात्रा की कामयाबी राहुल गांधी के ही बोझ से दब गई

राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा की एनिवर्सरी के आयोजनों में शामिल नहीं हो रहे हैं, क्योंकि वो विदेश दौरे पर निकल रहे हैं. जिस शिद्दत से राहुल गांधी ने भारी सर्दी में भी अपनी टीशर्ट को अपनाये रखा, उसी भावना के साथ भारत जोड़ो यात्रा की सफलता को क्यों नहीं बनाये रखा - फिलहाल बड़ा सवाल तो यही है?

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क्या भारत जोड़ो यात्रा की उपलब्धियों को राहुल गांधी ने सहेजने का प्रयास किया?
क्या भारत जोड़ो यात्रा की उपलब्धियों को राहुल गांधी ने सहेजने का प्रयास किया?

7 सितंबर, 2023 को भारत जोड़ो यात्रा की पहली सालगिरह है. कांग्रेस कार्यकर्ता इस मौके पर देश भर में पैदल मार्च करने जा रहे हैं. ये कार्यक्रम जिला स्तर पर होने जा रहा है.

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ध्यान देने वाली बात ये है कि भारत जोड़ो यात्रा के हीरो रहे राहुल गांधी ऐसे किसी भी आयोजन में शामिल नहीं हो रहे हैं. हो सकता है, वो ये सोच रहे हों कि उन्होंने तो अपना काम पूरा कर दिया, अब बाकी लोग भी तो कुछ करें.

असल में भारत जोड़ो यात्रा की एनिवर्सरी की पूर्वसंध्या पर ही राहुल गांधी विदेश यात्रा पर रवाना हो रहे हैं. राहुल गांधी के विदेश दौरे में कम से कम चार देशों की यात्रा शामिल है, और हर जगह कई तरह के कार्यक्रम बनाये गये हैं. शुरुआत वो बेल्जियम से करने जा रहे हैं.

30 जनवरी को जम्मू-कश्मीर यात्रा के समापन के बाद रायपुर में हुए कांग्रेस के सम्मेलन में बताया गया था कि आगे भी वैसी यात्राएं निकाली जाती रहेंगी. लेकिन ये नहीं बताया गया कि भविष्य की यात्राओं में राहुल गांधी शामिल होंगे या नहीं. अब तक तो यही बताया गया है कि अक्टूबर में यात्रा का दूसरा चरण शुरू हो सकता है.

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अभी तो विवाद सिर्फ एक नाम पर हो रहा है. पूछा जा रहा है कि भारत जोड़ो या इंडिया जोड़ो यात्रा? अब तो ये भी सुनने में आ रहा है कि INDIA की अगली बैठक में नाम बदल कर भारत रखे जाने पर भी विचार हो सकता है.

राहुल गांधी के साथ साथ भारत जोड़ो यात्रा को लेकर कांग्रेस नेताओं का आत्मविश्वास तो बढ़ा ही, विपक्षी खेमे के  नेताओं पर भी काफी असर देखा गया. सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद राहुल गांधी की सदस्यता बहाल हुई तब भी ये कुछ नई चीजें देखने को मिलीं. ऐसा पहले कब हुआ था जब कांग्रेस नेताओं के अलावा विपक्ष के नेता भी राहुल गांधी का संसद पहुंचने पर स्वागत करते हों.

सवाल है कि भारत जोड़ो यात्रा से अगर कुछ हासिल हुआ तो क्या उसे सहेजने की कोई कोशिश हुई? 
सवाल ये भी है कि अगर भारत जोड़ो यात्रा की उपलब्धियों को यूं ही जाने दिया गया, तो क्या उसके लिए सिर्फ राहुल गांधी ही जिम्मेदार माने जाएंगे?

राहुल गांधी और विपक्ष को क्या मिला?

भारत जोड़ो यात्रा, मौजूदा सरकार के खिलाफ निकाली गयी थी - और सत्ताधारी बीजेपी ने जिस तरह शुरू से ही नोटिस लिया, पहला मकसद तो पूरा हो ही गया था. पैंतालीस हजार वाला टीशर्ट विवाद ऐसा ही एक उदाहरण है, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि कैसे राहुल गांधी ने अपनी सफेद टीशर्ट को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया था. जब दिल्ली की भारी सर्दी में उनके टीशर्ट में घूमने की चर्चा होने लगी तो ऐसे समझाने लगे जैसे ठंड सिर्फ उसे ही लगती है, जो डरता है. अब तो कांग्रेस का नारा भी बना हुआ है - डरो मत.

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जिस शिद्दत से राहुल गांधी ने अपनी टीशर्ट को अपनाये रखा, आखिर उसी भावना के साथ भारत जोड़ो यात्रा की सफलता को क्यों नहीं बनाये रखा - फिलहाल बड़ा सवाल तो यही है?

अगर आज विपक्षी दलों का INDIA गठबंधन बना है, तो ये भारत जोड़ो यात्रा की ही तो देन है. जिस अरविंद केजरीवाल को यात्रा के समापन का न्योता तक नहीं भेजा गया, उनकी आम आदमी पार्टी अब INDIA गठबंधन की मजबूत हिस्सेदार है. देखा जाये तो ये यात्रा ही तो है, जिसने विपक्षी खेमे के अधूरेपन को काफी हद तक कम कर दिया है. 

राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान तो ममता बनर्जी ने भी अलग राह अख्तियार कर ही ली थी, लेकिन अब तो वो भी लौट आयी हैं - और एकजुट होकर विपक्ष मजबूत भी नजर आने लगा है. विपक्ष की ये ताकत INDIA को लेकर बीजेपी की तरफ से आ रहे रिएक्शन में भी देखा जा सकता है.

जिस कांग्रेस और राहुल गांधी को विपक्ष के कई नेताओं ने भाव देना कम कर दिया था, एक बार फिर वो विपक्षी दलों का नेतृत्व करती नजर आ रही है. ये ठीक है कि हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनाव नतीजों की भी बड़ी भूमिका है, लेकिन ये दोनों चुनाव भी यात्रा शुरू होने के बाद ही हुए हैं.

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2024 का आम चुनाव आने तक जो भी हाल हो, लेकिन अभी तो आलम ये है कि पूरे देश में एक मजबूत विपक्ष दिखाई पड़ रहा है. ये ठीक है कि कई मुद्दों पर अलग अलग आवाजें सुनाई दे रही हैं. ये भी ठीक है कि शरद पवार जैसे नेता का झुकाव दोनों ही तरफ महसूस किया जा रहा है. ये भी ठीक है कि अरविंद केजरीवाल गठबंधन में कब तक बने रहेंगे, किसी को नहीं मालूम - लेकिन लगातार तीन बैठकों के बाद आगे विपक्ष की रैलियों की तैयारी चल रही हो, भला ऐसा कब हुआ है? 

लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि ऐसी चीजों को लेकर राहुल गांधी का जो रवैया है, फिसलते देर नहीं लगती. सब कुछ एक झटके में चला जाता है. 

राहुल गांधी न सही, मल्लिकार्जुन खड़गे तो समझना चाहिये. और यही बातें सोनिया गांधी और प्रियंंका गांधी वाड्रा को भी समझानी चाहिये. 

मेहनत की कमाई, मिट्टी में क्यों मिला देते हैं?

INDIA के अस्तित्व में आ जाने के बाद कहीं राहुल गांधी और कांग्रेस ये तो नहीं सोचने लगे हैं कि अब भारत जोड़ो यात्रा की जरूरत ही क्या है - लड़ाई तो यूं ही आगे बढ़ चुकी है. 

ऐसे खास मौकों पर विदेश दौरे पर निकल जाना राहुल गांधी के लिए रूटीन एक्टिविटी जैसा ही मामला है. जब कांग्रेस देश भर में तिरंगा यात्रा की तैयारी कर रही होती है, तो भी वो निकल जाते हैं. जब प्रशांत किशोर कांग्रेस के उत्थान के लिए डेमो दे रहे होते हैं तो भी वो निकल जाते हैं. अगर किसी राज्य में चुनाव प्रचार कर रहे होते हैं, तो भी छोड़ कर चल देते हैं. झारखंड में पिछली बार उनकी जगह प्रियंका गांधी को रैली करनी पड़ी थी. तिरंगा यात्रा में भी प्रियंका गांधी को ही मोर्चा संभालना पड़ा था.

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राहुल गांधी बता चुके हैं कि कैसे यात्रा के शुरुआती दौर में ही उनके पैरों में जख्म हो गये थे. आखिर इतनी मुश्किलें झेलने के बाद कुछ हासिल किया, उसे कैसे कोई जाया होने दे सकता है? 

'एकला चलो...' - और बाकी सब फॉलो करो!

एकला चलो की राह पर पहला हक तो ममता बनर्जी का ही बनता है, लेकिन ऐसा लगता है जैसे राहुल गांधी इस पर ज्यादा अमल करते हैं. ममता बनर्जी की पार्टी का भारत विरोध यात्रा निकालना तो अलग मामला है ही, राहुल गांधी सिर्फ अकेले चलने में ही यकीन नहीं रखते, बल्कि वो चाहते हैं कि कांग्रेस तो अपनी मनमर्जी करे, लेकिन बाकी सब खुशी खुशी उसे फॉलो करें. 

यात्रा में ब्रेक के दौरान अखिलेश यादव जैसे नेताओं को तो राहुल गांधी ऐसे ही समझा रहे थे. सब कुछ तो नहीं, लेकिन हाल फिलहाल कुछ कुछ तो वैसा ही हो रहा है.

यात्रा के तहत महाराष्ट्र पहुंचे राहुल गांधी ने सावरकर पर बयान देकर उद्धव ठाकरे और शरद पवार जैसे नेताओं और उनके कार्यकर्ताओं के लिए फजीहत खड़ी कर दी थी. गौतम अदाणी के मुद्दे पर भी ऐसे ही नजारे देखने को मिले हैं. 

सावरकर के मुद्दे पर उद्धव ठाकरे को भी आपत्ति थी, और एनसीपी को भी. अभी अभी मुंबई की बैठक में ममता बनर्जी ने अदाणी के मुद्दे पर आपत्ति जतायी थी, ऐसी खबरें आयी हैं.

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वैसे तो राहुल गांधी बारह महीने अदाणी अदाणी करते रहते हैं, लेकिन जब अशोक गहलोत उनको हाथोंहाथ लेते हैं, तो कहते हैं भला कोई भी मुख्यमंत्री ऐसे ऑफर ठुकराने की हिम्मत कर पाएगा क्या?
लेकिन राहुल गांधी ये नहीं समझा पाते कि कैसे गहलोत सरकार के साथ अदाणी का मुद्दा बदल जता है, और मोदी सरकार के साथ बना रहता है. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र और अमित शाह तो कह ही चुके हैं कि विपक्ष में एक प्रोजेक्ट 17 बार लॉन्च करने की कोशिश हुई, कोशिश नाकाम रही. अभी अभी राजनाथ सिंह का भी बयान आया है, चंद्रयान और सूर्ययान लॉन्च हो जा रहे हैं, लेकिन 20 साल में राहुलयान लॉन्च नहीं हो सका. 

ऐसी चर्चाओं की नौबत ही क्यों आती है? बीजेपी का जोश भी तो तभी बढ़ता है, जब राहुल गांधी खुद आगे बढ़ कर मौका देते हैं.

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