बिहार में जातिगत सर्वे रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि अति पिछड़ों की राजनीति अब ओबीसी पर भारी पड़ने वाली है. बिहार सरकार ने यह मान लिया है कि करीब 36 फीसदी आबादी आबादी अति पिछड़ी है. यानी कि उनकी आर्थिक-सामाजिक दशा पिछड़ी जातियों से भी बुरी है. जाहिर है कि न्याय यही कहता है कि इन्हें सबसे अधिक लाभ मिलना चाहिए.
अगर ऐसा होता है तो वर्तमान में दी जा रही सारी सहूलियतों में अति पिछड़ों और महदलितों को, जो अब तक हाशिये पर रहे हैं उन्हें प्राथमिकता मिलेगी. निश्चित है कि ऐसा होता है तो यूपी-बिहार ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी आरक्षण की मलाई खा रही दबंग जातियों को धक्का लगेगा. समाजिक न्याय के मसीहा लालू यादव और नीतीश कुमार के लिए ये किसी दुःस्वप्न से कम नहीं होगा.
लालू -नीतीश-अखिलेश के समर्थकों को नुकसान
बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति का आधार शुरू से ओबीसी कैटेगरी के सबसे संपन्न और दबंग माने जाने वाले यादव और कुर्मी रहे हैं. यादवों की जनसंख्या केवल 14 परसेंट है पर ओबीसी आरक्षण की सारी मलाई ये लोग ही काट रहे थे. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट बता रही है कि रोहिणी आयोग के अनुसार जिसकी रिपोर्ट अभी राष्ट्रपति के पास है, देश की 25 प्रतिशत ओबीसी जातियां 95 परसेंट आरक्षण का लाभ उठा रही हैं. अब जातिगत सर्वे में यह बात खुलकर आ गई है कि कुल 63 परसेंट ओबीसी आबादी में 36 परसेंट अति पिछड़े हैं. न्याय यही होगा कि बिहार सरकार सबसे पहले अति पिछड़ों के कल्याण के लिए काम करें. जो जितना गरीब जितना पिछड़ा उसे सबसे अधिक संसाधन खर्च होने चाहिए. मान लीजीए कि बेरोजगारी , आवास या स्वास्थ्य के लिए सरकार को खर्च करना है तो सबसे अधिक फंड उसे अति पिछड़ों के लिए खर्च करना होगा.नैतिक रूप से जेडीयू-आरजेडी गठबंधन की सरकार को ऐसा ही करना होगा.तय है कि ऐसा करने से इनके कोर वोटरों को नुकसान होगा जिसका परिणाम चुनावों में इनके लिए उल्टा होगा.
बीजेपी की लॉटरी लगी
बीजेपी शुरू से अति पिछड़ों की राजनीति करती रही है. यूपी और बिहार में पार्टी को अति पिछड़ों का वोट मिलता रहा है. एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनावों में अन्य पिछड़ा वर्ग के यादव-कोइरी-कुर्मी को छोड़ दिया जाए तो ओबीसी की अन्य जातियों में से 72 फीसदी ने बीजेपी, 18 फीसदी ने सपा-बसपा, 5 फीसदी ने कांग्रेस और 5 फीसदी ने अन्य दलों को वोट दिया था. बिहार में अति पिछड़ों की लिस्ट में लोहार, कुम्हार, बढ़ई, कहार, सोनार समेत 114 जातियों को रखा गया है. 114 जातियों को एक वर्ग के तले ले आना नीतीश कुमार का दूरदर्शी कदम था.दरअसल नीतीश कुमार के लिए आरजेडी हमेशा से प्रतिस्पर्धी पार्टी रही है. अति पिछड़ों का वोट नीतीश को मिलता रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण रहा कि आरजेडी पर यादवों की पार्टी का ठप्पा लगना. चूंकि यादवों का वोट आरजेडी को जाता रहा है इसलिए अति पिछड़े का हिस्सा नीतीश को या बीजेपी को मिलता रहा है. अब चूंकि नीतीश कुमार आरजेडी के साथ गठबंधन में हैं तो अतिपिछड़ों का वोट बीजेपी को जाना तय माना जा रहा है.
सवर्णों के वोट एक जुट हो सकते हैं
जातिगत सर्वे के हिसाब से जिसकी जितनी संख्या उतनी उसकी हिस्सेदारी का नारा लालू यादव ने बुलंद कर दिया है. ये नारा जितना जोर पकड़ेगा सवर्ण अपने आपको असुरक्षित पाएंगे. अब तक भूमिहारों और राजपूतों का अच्छा खासा वोड आरजेडी और जेडूयू को मिल रहा था. अब सरकार पर ये दबाव होगा कि वो संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी तय करें. निश्चित है कि जातिगत सर्वों में अपनी अल्पसंख्या को देखते हुए सवर्ण एकजुट होंगे. जाहिर है कि जातिगत जनगणना को लेकर मुखर जातियों के पास वो जाएंगे नहीं . उनके सामने एक ही विकल्प बीजेपी का बचेगा. नीतीश कुमार और लालू यादव हों या कांग्रेस सवर्ण वोटरों के लुभाने के लिए उनके पास शब्द नहीं होंगे.
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट के लिए आधार तैयार है
बीजेपी बहुत पहले से अति पिछड़ों के न्याय दिलाने की तैयारी में थी. ओबीसी आरक्षण का लाभ समुचित रूप से सबको मिल सके इसके लिए मोदी सरकार ने 2017 में ही रोहिणी कमीशन का गठन किया था. इस आयोग ने अभी हाल ही में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपा है. अभी बीजेपी इस आयोग की रिपोर्ट को संसद में रखने की सोच ही रही थी पर शायद राजनीतिक परिणामों के लेकर आशंकित थी.अब उसे इसका आधार मिल गया. अगर बीजेपी रोहिणी आयोग के रिपोर्ट को लागू करना चाहेगी तो उसे सपोर्ट करना विपक्ष का नैतिक कर्तव्य हो जाएगा. इंडिया टुडे की एक खबर के अनुसार करीब 983 ओबीसी समुदायों को सरकारी नौकरियों और कॉलेजों में सीट के रूप में हिस्सेदारी बिल्कुल भी नहीं मिली है. रोहिणी कमीशन ने इस तरह के अन्याय को खत्म करने के लिए कुछ सुझाव दिए हैं. मीडिया में जो जानकारियां सामने आ रही हैं उसके तहत ओबीसी आरक्षण को तीन से चार श्रेणी में बांटने की सिफारिश की गई है.
बीजेपी ने पहले भी कोशिश की थी
रोहिणी आयोग की सिफारिशों के पहले ही देश के कई राज्यों में ओबीसी के कोटे में कोटा दिए जाने की कोशिश हुई है. उत्तर प्रदेश में.अति पिछड़ों के नेता ओम प्रकाश राजभर से लेकर संजय निषाद तक ओबीसी आरक्षण को वर्गीकृत करने के मुद्दे को लेकर आंदोलन करते रहे हैं. राजनाथ सिंह के यूपी के मुख्यमंत्रित्व काल में भी अतिपिछड़ों को बांटने की कोशिश हुई थी. कोर्ट में रोक लगाने के चलते ये संभव नहीं हो सका.जून 2001 में राजनाथ सिंह द्वारा गठित सामाजिक न्याय समिति की सिफारिश पर 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण में, यादवों का हिस्सा 5 प्रतिशत और नौ प्रतिशत में आठ जातियों को हिस्सा दिए जाने की सिफारिश हुई थी. बाकी 70 अन्य जातियों को दिए जाने की सिफारिश थी. हालांकि जनता का सपोर्ट नहीं मिला. 2002 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा 403 में से 88 सीटों पर सिमट गई. जो 1996 में मिली उसकी सीटों का लगभग आधा था. चुनावों में बीजेपी को मिली बुरी हार के चलते बीजेपी की फिर हिम्मत नहीं हुई कि वो दुबारा इसे लागू कर सके.