ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ सुन कर कोई खास आश्चर्य नहीं होता, जितना शशि थरूर के मुंह से सुन कर होता है. छत्तीसगढ़ के डिप्टी सीएम टीएस सिंह देव तो मोदी की तारीफ कर माफी भी मांग लेते हैं, लेकिन थरूर ऐसा नहीं करते - शरद पवार के हाव भाव देखने के बाद तो मोदी को लेकर अजीत पवार और सुप्रिया सुले की बातें सुन कर भी शायद ही किसी को अचरज होता हो.
नवीन पटनायक की बातें तो नीतीश कुमार जैसी बिलकुल नहीं लगतीं. ये ठीक है कि दोनों पुराने दोस्त भी हैं, लेकिन बीते 10 साल में जितना नीतीश कुमार ने 'खेला' किया है उसका कोई मुकाबला नहीं है. क्योंकि नवीन पटनायक जिस छोर पर खड़े दिखे, करीब दस साल बाद भी वहीं बने हुए हैं.
ओडिशा के मुख्यमंत्री ने मोदी सरकार को 80 फीसदी अंक यानी विशेष योग्यता के साथ पास कर दिया है. मोदी सरकार के लिए नवीन पटनायक शुरू से ही संकटमोचक की भूमिका में देखे गये हैं. चाहे वो राज्य सभा के सभापति का चुनाव हो, या फिर उच्च सदन में पेश की जाने वाले विधेयक - नवीन पटनायक ने बीजेपी को ये कभी महसूस ही नहीं होने दिया कि राज्य सभा में लोक सभा की तरह उसे बहुमत नहीं हासिल है.
ऐसे में जबकि नीतीश कुमार एनडीए में लौटने की चर्चाओं को हवा दे रहे हैं, शरद पवार भी गुगली फेंकते आ रहे हैं और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा एनडीए की पाठशाला में दाखिला ले चुके हैं - नवीन पटनायक ने भी मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ कर 2024 के आम चुनाव में साथ जाने को लेकर अटकलों को हवा तो दे ही दी है.
क्या नवीन पटनायक को एनडीए की जरूरत है
भुवनेश्वर में हुए ओडिशा साहित्य समारोह में हिस्सा ले रहे मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने महिला आरक्षण बिल पास होने पर खुशी जताई. और दावा किया कि 2019 में बीजू जनता दल ने 33 फीसदी महिलाओं को लोकसभा चुनाव में टिकट दिया था.
महिला बिल को लेकर विपक्ष भले ही ओबीसी महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की मांग पर अड़ा है, लेकिन विरोध तो किसी ने किया नहीं. खास बात तो ये रही कि एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस महिला बिल पास होते ही एनडीए में शामिल हो गयी. असल में एचडी देवगौड़ा ने 10 अप्रैल 2023 को प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखा था, 'हम जल्दी ही नये संसद भवन में दाखिल होने वाले हैं... अगर इस मौके पर महिला आरक्षण बिल को फिर से संसद में पेश कर पास कराने की कोशिश हो तो अच्छा रहेगा.' ये पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा की ही सरकार थी जब संसद में पहली बार महिला बिल पेश हुआ था, लेकिन समाजवादी पार्टी और आरजेडी जैसे राजनीतिक दलों के विरोध के कारण अब तक लटका रहा.
असल में विपक्ष को लेकर नवीन पटनायक की भी वही पॉलिसी रही है, जो केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेता मोदी-शाह की है. ये है विपक्ष मुक्त सत्ता की राजनीति. शुरू से लेकर अभी तक नवीन पटनायक ओडिशा में किसी विपक्षी दल को मजबूत होने का मौका नहीं दिये.
एनडीए के साथ साथ विपक्षी गठबंधन INDIA से भी बराबर दूनी बनाये रखने का दिखाव करने वाले नवीन पटनायक का ये स्टैंड उनकी राजनीतिक मजबूरी भी है. अगर किसी के साथ भी गये तो चुनावों में सीटें शेयर करनी पड़ेंगी. और चुनावी गठबंधन के साथी को कुछ सीटें मिल गयीं तो सत्ता में साझीदार होने के फायदे के साथ सूबे में पांव जमाने का मौका भी मिल जाएगा. ऊपर से जो विरोध में खड़ा होगा उसे विपक्ष के रूप में उभरने का मौका मिल जाएगा.
नवीन पटनायक अभी तक ऐसा ही करते आये हैं. और यही वो लाइन है जो उनके एनडीए के साथ आगे बढ़ने की पुष्टि नहीं करती, लेकिन लंबी पारी खेल चुके बीजेडी नेता के सामने भी तो सत्ता विरोधी लहर जैसी समस्याएं खड़ी हो रही हैं. ओडिशा में भी 2024 में लोक सभा के साथ ही चुनाव होने हैं - हो सकता है वो भी जेडीएस की तरह किसी खास रणनीति पर काम कर रहे हों.
जहां तक नवीन पटनायक के दिल्ली में पॉलिटिकल पोजीशन की बात है, लगता तो नहीं कि वो एनडीए से बाहर हैं. बस बताते नहीं हैं. विपक्षी खेमे की तरफ से भी उनको INDIA गठबंधन में साथ लेने की काफी कोशिशें हुईं, लेकिन जब भी जरूरत पड़ी मोदी के साथ ही खड़े मिले.
महिला आरक्षण बिल पर असदुद्दीन ओवैसी को छोड़ कर सारे ही राजनीतिक दल सरकार के साथ खड़े थे, लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम, तीन तलाक, धारा 370 और दिल्ली सेवा बिल जैसे मामलों में नवीन पटनायक ने आंख मूंद कर मोदी सरकार का साथ दिया है. मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का तो नवीन पटनायक ने सीधे सीधे विरोध ही कर डाला था - और वैसे ही 'एक देश एक चुनाव' पर खुल कर मोदी सरकार का सपोर्ट भी किये थे.
केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने के पीछे उनकी अपनी दलील भी है, 'केंद्र के साथ हमारे सौहार्द्रपूर्ण संबंध हैं... स्वाभाविक रूप से हम राज्य का विकास चाहते हैं - और विकास में केंद्र सरकार की भागीदारी महत्वपूर्ण है.'
एनडीए को चुनावों से पहले साथियों की जरूरत जरूर होती है
1998 में जब एनडीए बना था तो इसमें 24 पार्टियां शामिल थीं. जुलाई, 2023 में एनडीए की एक मीटिंग बुलाई गयी तो उसमें 38 राजनीतिक दल शामिल हुए थे. चिराग पासवान की एंट्री तो बैठक से एक दिन पहले ही हुई थी.
गुजरते वक्त के साथ ताकतवर होते एनडीए में काफी बदलाव देखने को मिलता है. उद्धव ठाकरे की शिवसेना, बादल परिवार का अकाली दल और नीतीश कुमार का जेडीयू एनडीए बहुत पहले छोड़ चुके हैं.
चाहत तो अकाली दल की भी घर वापसी की होगी, लेकिन चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी का तो एनडीए में आना पक्का माना जा रहा था. नायडू और बीजेपी नेता अमित शाह की मुलाकात भी हो चुकी थी, लेकिन ऐन मौके पर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की पुलिस ने भ्रष्टाचार के आरोप में चंद्रबाबू नायडू को जेल भेज दिया.
जगहमोहन रेड्डी भी नवीन पटनायक की ही तरह एनडीए सरकार को अघोषित तौर पर बाहर से सपोर्ट करते हैं, भला चंद्रबाबू नायडू को बीजेपी के पास वो अंदर क्यों जाने देते. कनाडा के मुद्दे पर ही सही, मुलाकात तो अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल ने भी अमित शाह से कर ही ली है, लेकिन अभी तक तो ऐसा नहीं लगा है कि बीजेपी नेतृत्व उन्हें भाव दे रहा है. कृषि कानूनों के मसले पर शिरोमणि अकाली दल ने एनडीए छोड़ दिया था, बीजेपी को भी वो लम्हा भुलाने में वक्त तो लगेगा ही.
हाल फिलहाल मोदी-शाह छोटे दलों को एनडीए में लाने को तत्पर देखे जा सकते हैं. हो सकता है ये INDIA गठबंधन के दलों के मुकाबले एनडीए सहयोगियों के ज्यादा नंबर दिखाने की कोशिश भी हो. 2019 के चुनाव से पहले तो बीजेपी नेता अमित शाह को घर घर घूमते देखा गया था. प्रकाश सिंह बादल, उद्धव ठाकरे से लेकर अनुप्रिया पटेल के घर होते हुए नीतीश कुमार के आवास तक गये थे. चिराग पासवान तो सेटल हो गये, नीतीश कुमार भी सिग्नल दे रहे हैं - नवीन पटनायक भी कहीं मन ही मन एचडी देवगौड़ा की तरफ बीजेपी के साथ जाने का मन तो नहीं बना रहे हैं.