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...तो जातीय जनगणना पर बीजेपी का रुख बदलने लगा है!

बीजेपी कभी जातीय जनगणना के विरोध में खड़ी नहीं दिखी, अब लगता है विपक्ष का दबाव महूसस करने लगी है. बिहार की जातिगत गणना के आंकड़ों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिएक्शन और अमित शाह के ताजा बयान में जो फर्क है, वो यही बता रहा है - फिर ये विपक्ष की जातीय राजनीति का दबाव नहीं तो क्या है?

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बीजेपी अब जातीय जनगणना के विरोध में नहीं, वक्त आने पर कुछ भी फैसला हो सकता है
बीजेपी अब जातीय जनगणना के विरोध में नहीं, वक्त आने पर कुछ भी फैसला हो सकता है

बीजेपी ने कभी खुल कर जातीय जनगणना का विरोध नहीं किया है, लेकिन बिहार की जातिगत गणना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया से लेकर अब केंद्रीय मंत्री अमित शाह के ताजा बयान तक बीजेपी के स्टैंड में बड़ा बदलाव महसूस किया जा सकता है. अब तक सिर्फ संसद में ही सरकार की तरफ से जातिगत जनगणना से साफ तौर पर इनकार की बात सुनी गयी है. एक सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि सरकार का जातिगत जनगणना का कोई इरादा नहीं है. 

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बीजेपी का पहले का रुख देखें तो पाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों पर आरोप लगाया था कि वे राजनीति के लिए जाति के आधार पर समाज को बांट रहे हैं. अब केंद्रीय मंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी जातिगत गणना के विरोध में कभी नहीं रही है. कुछ हद तक ये बात सही भी है, क्योंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार के जिस प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे, बीजेपी ने भी अपना एक विधायक प्रतिनिधि के तौर पर भेजा था. लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि बीजेपी ने ऐसा शौक से नहीं किया था, बल्कि नीतीश कुमार के दबाव में करना पड़ा था. 

जिस तरह से अमित शाह ने छत्तीसगढ़ में जातीय जनगणना का जिक्र छेड़ा है, और बिहार पहुंच कर उस पर बीजेपी का पक्ष रखा है. बीजेपी का रुख साफ तौर पर तो पहली बार ही सामने आया है. छत्तीसगढ़ में अमित शाह ने जो कहा, वो तो विधानसभा चुनाव के लिए था, लेकिन बिहार पहुंच कर जो बताया वो तो निश्चित तौर पर लोक सभा चुनावों को ध्यान में रख कर ही कहा गया है. बीजेपी की फिक्र समझी जा सकती है. वैसे भी जातीय राजनीति का खेल बीजेपी को यूपी और बिहार में ही परेशान कर सकता है. 

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कांग्रेस ने तो CWC में प्रस्ताव पारित कर ऐलान कर दिया है कि केंद्र की सत्ता में आने पर वो देश भर में जातिगत जनगणना कराएगी. चुनावी राज्यों में भी कांग्रेस की तरफ से ये वादा किया जा रहा है कि सरकार बनी तो बिहार की ही तरह जातिगत गणना करायी जाएगी. कराने को तो 'हेड-काउंट' छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल भी करा चुके हैं, लेकिन लगता है जैसे आंकड़ों को डाउनप्ले करने की कोशिश हो रही हो - आंकड़ों के नतीजे कहीं कांग्रेस के खिलाफ तो नहीं जा रहे हैं?

ये ओबीसी वोटर का डर नहीं तो क्या है?

जातीय राजनीति के संभावित नफे नुकसान की समीक्षा के लिए बीजेपी ने अभी 2 नवंबर, 2023 को ही एक उच्चस्तरीय मीटिंग बुलायी थी. दिल्ली में हुई इस मीटिंग में बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, डिप्टी सीएम, राज्य बीजेपी अध्यक्ष, विधानमंडल दल के नेता जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी बुलाया गया था. 

मीटिंग में शामिल नेताओं के नाम देख कर भी आयोजन की अहमियत समझी जा सकती है. अमित शाह और जेपी नड्डा दोनों तो थे ही, बीजेपी के संगठन महामंत्री बीएल संतोष भी मौजूद थे. साथ ही, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस भी शामिल थे. योगी आदित्यनाथ के अलावा यूपी से दोनों डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक, यूपी बीजेपी अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी, केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति और सांसद संगम लाल गुप्ता भी पहुंचे थे. 

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जाहिर है जातीय जनगणना पर अमित शाह के छत्तीसगढ़ और बिहार में बयान देने से पहले पूरी तैयारी कर ली गयी है. निश्चित तौर पर मीटिंग में जातीय राजनीति को लेकर कांग्रेस और तेजस्वी यादव जैसे क्षेत्रीय नेताओं के तेवर को काउंटर करने के उपायों पर भी चर्चा हुई होगी. राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अपनी चुनावी रैलियों में ये सवाल तो पूछने ही लगे थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर ओबीसी वेलफेयर के पक्षधर हैं तो केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी जातीय जनगणना से डरती क्यों है?

बिहार से जातिगत गणना के आंकड़े आने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे देश को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश का विपक्ष पर आरोप लगाया था. लेकिन अमित शाह का ताजा बयान भूल सुधार की कवायद जैसा लगता है. 

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के जातीय गणना कराने के मुद्दे पर अमित शाह का कहना था, 'हम राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं... वोटों की राजनीति नहीं करते हैं... सभी से चर्चा करके... जो उचित निर्णय होगा उसे हम जरूर करेंगे.'

लगे हाथ अमित शाह ने अपनी तरफ से सफाई भी पेश की, 'भारतीय जनता पार्टी ने कभी इसका विरोध नहीं किया... लेकिन ऐसे मुद्दों पर सोच-समझकर निर्णय करना पड़ता है... उचित समय आने पर हम बताएंगे.' 

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और मुजफ्फरपुर पहुंचते ही जातिगत गणना अमित शाह का नजरिया थोड़ा अलग लगता है. मोदी की ही तरह वो बिहार की जातिगत गणना पर हमला बोलते हैं, और एक कदम आगे बढ़ जाते हैं. 

बिहार के पताही की पब्लिक मीटिंग में अमित शाह जो कुछ कहते हैं, वो स्क्रिप्ट दिल्ली की मीटिंग में ही तैयार की गयी लगती है. अमित शाह समझाते हैं कि बिहार सर्वे की पीछे मुस्लिम तुष्टिकरण और यादव वोट बैंक पर ही जोर है. कहते हैं, 'बिहार के पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज के लोगों से कहने आया हूं... जातीय सर्वे केवल छलावा है.... भाजपा ने जातीय सर्वेक्षण का समर्थन किया था, लेकिन हमें नहीं मालूम था कि लालू प्रसाद के दबाव में सर्वेक्षण में मुसलमान और यादवों की आबादी बढ़ा दी जाएगी - और पिछड़ों के साथ अन्याय होगा.'

बीजेपी नेता नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को जातीय सर्वे का श्रेय लेने से भी रोकने की कोशिश करते हैं, राज्य में जाति सर्वे कराने का निर्णय तब लिया गया था, जब नीतीश कुमार की की पार्टी जेडीयू भी एनडीए का हिस्सा हुआ करती थी. बाद में नीतीश सरकार ने जो कुछ किया है, वो अति पिछड़ा समाज के साथ नाइंसाफी है. 

बीजेपी के बदले रुख का घोसी कनेक्शन 

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जिस तरह से दिल्ली की मीटिंग में उत्तर प्रदेश बीजेपी के नेताओं की शिरकत हुई है, ये भी सुनने को मिल रहा है कि जल्दी ही इसकी झलक योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में भी दिखायी पड़ सकती  है. बताते हैं कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मंत्रिमंडल विस्तार के लिए दिल्ली से ग्रीन सिग्नल भी मिल चुका है. 

अब सवाल ये है कि मंत्रिमंडल विस्तार में क्या खास होगा? मंत्री बनने के इंतजार में बैठे नेताओं की मुंह मांगी मुराद पूरी होगी? या फिर मंत्रिमंडल विस्तार में कुछ और ही मकसद नजर आएगा? ऐसे सारे सवालों के जवाब जल्दी ही मिल सकते हैं. 

फिलहाल तो ऐसा लगता है जैसे आगामी लोक सभा चुनाव को देखते हुए मंत्रिमंडल में नेताओं को ऐसे समायोजित करने की कोशिश होगी, ताकि हर तबके के वोटर तक बीजेपी अपना संदेश पहुंचा सके - खास तौर पर ओबीसी वोटर को मैसेज मिल सके. 

दिल्ली की मीटिंग का एक घोसी कनेक्शन भी है. घोसी उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार दारा सिंह चौहान समाजवादी प्रत्याशी सुधाकर सिंह से हार गये थे. घोसी के नतीजों को विपक्ष की तरफ से INDIA गठबंधन की जीत के तौर पर पेश किया गया था. निश्चित तौर पर ये बीजेपी के लिए सबक रहा. 

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बीजेपी ने ओबीसी नेता दारा सिंह चौहान को चुनाव मैदान में उतारा तो ओबीसी के नाम पर यादवों की राजनीति करने वाले अखिलेश यादव ने गैर-ओबीसी को टिकट दे दिया. उपचुनाव का नतीजा विपक्षी गठबंधन की एकजुटता की मिसाल तो बना ही, समाजवादी पार्टी के मुकाबसे ओबीसी वोटर के बीजेपी से दूर चले जाने का भी संकेत दिया. 

कुछ दिनों से दारा सिंह चौहान और ओम प्रकाश राजभर को योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री बनाये जाने की चर्चा है. दिल्ली की मीटिंग में कैबिनेट विस्तार के लिए जो हरी झंडी दिखायी गयी है, ऐसा लगता है संभावित लाभार्थियों में दारा सिंह चौहान भी हो सकते हैं. योगी सरकार में फिलहाल 20 से ज्यादा ओबीसी कोटे के मंत्री हैं - अगर ये संख्या बढ़ती है, तो यही माना जाएगा कि क्षेत्रीय दलों की जातीय राजनीति के आगे बीजेपी नेतृत्व झुकने लगा है. 

बहुत सारे क्षेत्रीय दल तो जाति की ही राजनीति करते हैं. संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल पेश किये जाने के वक्त कांग्रेस ने भी पलटी मार ली थी. ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस समाजवादी पार्टी और आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों के साथ खड़ी हो गयी - और बाद में तो कांग्रेस कार्यसमिति में जातिगत जनगणना को लेकर प्रस्ताव भी पारित कर दिया गया - अब तो चुनावी रैलियों में राहुल गांधी और तमाम कांग्रेस नेता घूम घूम कर कह रहे हैं कि सत्ता में आने पर कांग्रेस जातीय जनगणना कराएगी. 

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महिला बिल पेश किये जाने के दौरान राहुल गांधी ने केंद्र सरकार में ओबीसी सचिवों की संख्या पर भी सवाल उठाया था, और ऐसा असर हुआ कि बीजेपी की तरफ से सफाई दी जाने लगी. गिनाया जाने लगा कि सिर्फ मोदी ही बीजेपी के ओबीसी फेस नहीं हैं, हर जगह ओबीसी नेताओं को तवज्जो मिलती है - लोक सभा चुनाव से पहले यूपी की योगी सरकार में भी ऐसा ही नजारा दिखाने की कोशिश लग रही है.

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