सुभासपा के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश सरकार में दुबारा मंत्री बने ओमप्रकाश राजभर भारतीय राजनीति की एक ऐसी बानगी हैं जो एक तरफ तो लोकतंत्र को परिपक्व बनाती हैं तो दूसरी तरफ उसे गर्त में भी ले जाती है. राजभर की राजनीतिक यात्रा अपने आप में एक थीसिस है. वह जब मंत्री थे तो सड़क निर्माण के लिए अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठ गए. अभी कुछ दिन पहले जब वे मंत्री नहीं थे तो बड़े ही दंभी अंदाज में उन्होंने कहा जब तक वे मंत्री बन नहीं जाते चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव की अधिसूचना नहीं जारी कर सकती. उनकी दंभ भरी आवाज रुकने का नाम नहीं ले रही है. कभी वो प्रदेश के डीजीपी को चैलेंज करते हैं तो कभी अपने को प्रदेश सरकार से भी ऊपर मानने लगते हैं. इन सब बातों से ये समझने की कभी भूल न करिएगा कि ओमप्रकाश राजभर बहक जाते हैं या उनका चरित्र ही अस्थिर है. ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. वो एक समझदार नेता हैं और अपनी बात जनता और मीडिया तक पहुंचाना जानते हैं. अपनी छोटी सी पार्टी में तमाम तरह के असंतोष के बीच उन्होंने अपने बेटे अरविंद राजभर को घोसी लोकसभा सीट से प्रत्याशी घोषित कर दिया है. वो भी उस पार्टी के सहयोग से जो खुद को परिवारवाद की सबसे बड़ी विरोधी कहती है. शायद उनकी दंभ भरी आवाज के पीछे परिवारवाद के आगे भाजपा का सरेंडर ही है.
राजभर के बड़बोले बयान
ओम प्रकाश राजभर के विवादित बयान हमेशा चर्चा का विषय बने रहते हैं. इन बयानों के जरिए वे पिछड़ी जातियों समेत अपने वर्ग में अपनी पैठ को मजबूत करने का काम करते हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने कहा था कि अहीर को 12 बजे बुद्धि आती है. 2022 से पहले वे कह चुके हैं कि योगी आदित्यनाथ मेरी हत्या कराना चाहते हैं, इसलिए नामांकन के दौरान काले कोट में गुण्डे भेजे. वे ये भी कह चुके हैं कि स्वतंत्रदेव सिंह अगर पिछड़ों के अपमान पर बोले होते तो योगी उनकी जीभ काट लेते.
अभी हाल ही में मंत्री बनने के बाद ओम प्रकाश राजभर ने एक कार्यक्रम के दौरान लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि'मैं कहता हूं किसी थाने पर जाओ, लेकिन सफेद गमछा मत लगाओ. हमारा पीला गमछा लगाओ. पीला गमछा लगाकर जब थाने पर जाओगे तब तुम्हारी शक्ल में दरोगा को राजभर (ओम प्रकाश) दिखेगा. जाकर बता देना कि मंत्री जी ने भेजा है. उन्होंने आगे कहा, दरोगा, DM, SP में पावर नहीं है कि फोन लगाकर पूछे कि मंत्री ने लोगों को भेजा है या नहीं.
शोले में एक गब्बर सिंह था, तो मुझे भी गब्बर समझ लो.' राजभर ने कहा, 'गरीबों की सेवा के लिए उनके मन में उत्साह है. सदियों से गुंडागर्दी के दम पर समाजवादी पार्टी की सरकार में गरीबों के मनोबल को दबाया गया था, उनका मनोबल बढ़ाने के लिए हम पूर्वांचल की भाषा मे उनको बोलते हैं, उसको आप दूसरी भाषा में समझते हैं जबकि हमारी भाषा दूसरी होती है, वो खलनायक की भूमिका नहीं था वो हीरो की भूमिका थी. शोले फ़िल्म में हीरो कौन था, खलनायक उसको बोलेंगे ?'
राजभर जानते हैं कि परिवारवादी सहयोगियों के आगे बीजेपी मजबूर है
राजभर जानते हैं कि परिवारीवादी पार्टियों का समर्थन लेने की मजबूरी है बीजेपी के सामने. यही कारण है कि उन्होंने अपने बेटे अरविंद राजभार को घोसी से लोकसभा का प्रत्याशी घोषित कर दिया. यूपी में एनडीए का एक और सहयोगी दल है निषाद पार्टी, जिसके अध्यक्ष संजय निषाद उत्तर प्रदेश में मंत्री हैं . उनका एक बेटा विधायक है और तो दूसरा बेटा सांसद. इसी तरह अपना दल (एस) की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल केंद्र सरकार में मंत्री हैं तो उनके पति आशीष पटेल यूपी सरकार में मंत्री हैं. ये सब जानते समझते हुए राजभर क्यों पीछे रहें.
ओम प्रकाश राजभर के पुत्र अरविंद राजभर पार्टी के प्रमुख महासचिव हैं, तो दूसरे पुत्र अरुण राजभर पार्टी के महासचिव और प्रवक्ता. वह बीजेपी से चाहते थे कि उनके बेटों को विधान परिषद व किसी आयोग का अध्यक्ष बनाकर समायोजित कर लिया जाए, पर भाजपा ने बात नहीं मानी. 2022 में विधानसभा चुनाव उन्होंने सपा के साथ गठबंधन कर लड़ा. छह सीट जीते भी. चुनाव बाद वह अखिलेश यादव पर फिर विधान परिषद सीट के लिए दबाव बनाने लगे. बात नहीं बनी तो गठबंधन फिर टूट गया.
एनडीए परिवार की 'परिवारवादी' पार्टियां:
1. आरएलडी: चौधरी चरण सिंह परिवार
2. निषाद पार्टी: संजय निषाद परिवार
3. अपना दल (एस): सोनेलाल परिवार
4. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी: राजभर परिवार
5. राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपति पारस): पासवान परिवार
6. लोक जन शक्ति पार्टी (रामविलास): पासवान परिवार
7. हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा: मांझी परिवार
8. जनता दल (सेक्युलर): देवगौड़ा परिवार
9. नेशनल पीपुल्स पार्टी: संगमा परिवार
10. एनसीपी (अजित पवार): पवार परिवार
राजभर और परिवारवादी पार्टियों की ताकत
सुभासपा प्रमुख ने कहा, 'हमारे पास क्या है. बीजेपी अपने को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहती है. आज भी 46 पार्टियों का गठबंधन है अगर 45 पार्टियों को हटा दीजिए तो बीजेपी कहां खड़ी होगी. यूपी में संजय निषादी की निषाद पार्टी, अपना दल और ओम प्रकाश राजभर को हटा दीजिए. इसी वजह से हम कर रहे हैं कि छोटी पार्टियां जीत नहीं सकती हैं पर किसी को हरा तो जरूर सकती हैं.'
राजभर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि 'उसका प्रमाण आपको दिखा दूं. हम 2017 में बीजेपी के पास थे. बीजेपी 325 सीट जीती थी. हम हट गए तो 264 पर आ गई. हम समाजवादी पार्टी के साथ गए तो उसके पास 47 सीटें थीं. 47 से हमने सपा को 125 पर पहुंचा दिया है. अबंडेकर नगर, गाजीपुर, बलिया, मऊ और बस्ती जैसे जिलों में मिलाकर केवल तीन सीटें बीजेपी जीत पाई है. कई जिलों में बीजेपी के खाते ही नहीं खुले हैं.'
यही कहानी निषाद पार्टी के संजय निषाद की है. गोरखपुर में हुए लोकसभा के उपचुनाव में योगी के मुख्यमंत्री रहते बीजेपी को यह सीट गवानी पड़ी थी. कारण कि संजय निषाद साथ नहीं थे. गोरखपुर और आसपास के जिलों में निषाद वोटों को साधने के लिए ही संजय निषाद का महत्व बना हुआ है.
कुलमिलाकर छोटी-छोटी जातियों के वोटर कई जगह चुनावों में बड़ी भूमिका में आ जाते हैं. दिलचस्प ये है कि इन सभी जातियों को प्रतिनिधित्व देने के नाम पर जिन नेताओं ने पार्टियां बनाईं, उसकी फ्रेंचाइजी परिवार से बाहर नहीं जाने दी. भाजपा खूब ठीक से समझती है कि यही पार्टियां लोकसभा चुनाव में उसकी नाव को भवसागर पार करवाएंगी. ऐसे में कुछ परिवारवादी पार्टियों की तरफ से आंखें मूंद लेने में ही भलाई है. राजभर जैसे नेताओं की तल्ख बयानी भी सिर आंखों पर.