प्रियंका बार-बार कहती रही हैं, 'मैं अपने भाई की मदद के लिए कुछ भी करूंगी...मैं वह सब कुछ करूंगी जो वह मुझसे करने को कहेंगे'. उनकी पूरी राजनीति राहुल गांधी को सफल बनाने के इर्द-गिर्द घूमती है. प्रियंका हमेशा राहुल को अपनी 'राजनीतिक ताकत' और कांग्रेस के 87वें अध्यक्ष होने के कारण अपने 'नेता' के रूप में संबोधित करती हैं. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नई दिल्ली आवास पर 17 जून, 2024 को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की बैठक हुई. इस बैठक में चर्चा इस बात को लेकर हुई कि राहुल को वायनाड और रायबरेली में से किसे चुनना चाहिए. बता दें कि उन्होंने 2024 के आम चुनावों में इन दोनों ही सीटों से जीत दर्ज की.
राहुल 2019 में उन्हें चुनकर संसद में भेजने वाली वायनाड लोकसभा सीट छोड़ने को लेकर असहज महसूस कर रहे थे, तब प्रियंका ने पार्टी प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए वायनाड से उपचुनाव लड़ने की हामी भरी. और अपने बड़े भाई की दुविधा को खत्म करने में मदद की. अगर प्रियंका वायनाड जीत जाती हैं, तो वह लोकसभा में भाई-बहन की जोड़ी के तौर पर माधवराव सिंधिया और वसुंधरा राजे सिंधिया की श्रेणी में शामिल हो जाएंगी. हालांकि, एक उल्लेखनीय अंतर यह है कि माधवराव (कांग्रेस) और वसुंधरा (भाजपा) अलग-अलग दलों के प्रतिनिधि थे, जबकि राहुल और प्रियंका कांग्रेस पार्टी से हैं.
सत्ता में बने रहने के मामले में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य सिंधिया परिवार से बहुत पीछे हैं. सिंधिया परिवार पहले राजा के रूप में और स्वतंत्रता के बाद जन प्रतिनिधि या विनम्र जनसेवक के रूप में सत्ता में लंबे समय तक बना रहा है. राणोजी सिंधिया ने 1731 में सिंधिया राजवंश की स्थापना की. लगभग 300 वर्षों से सिंधिया परिवार को लोगों का स्नेह प्राप्त हो रहा है. विशुद्ध रूप से चुनावी संदर्भ में बात करें तो संसद या राज्य विधानसभा में निर्बाध कार्यकाल के मामले में सिंधिया परिवार, नेहरू-गांधी परिवार से बहुत आगे है. जब ग्वालियर रियासत का भारत संघ में विलय हुआ तो जीवाजीराव जॉर्ज सिंधिया को 'राज्यप्रमुख' (राज्यपाल) बनाया गया.
राजमाता विजयाराजे सिंधिया 1957 में कांग्रेस सांसद बनीं और बाद में भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में विभिन्न चुनाव जीतती रहीं. उनके बेटे माधवराव ने भी चुनावी राजनीति में कदम रखा. वह 1971, 1977 व उसके बाद 2001 तक सभी लोकसभा चुनाव जीते. उनकी बहनें वसुंधरा राजे सिंधिया और यशोधराराजे सिंधिया भी राजनीति में उतरीं. माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योदिरादित्य सिंधिया ने आगे चलकर सिंधिया परिवार की राजनीतिक विरासत संभाली.
जबकि इसके विपरीत 1991 से 1996 के बीच गांधी परिवार का कोई भी सदस्य सांसद नहीं था.
मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई थी और मेनका गांधी उस साल आम चुनाव में पीलीभीत से जनता दल की उम्मीदवार के रूप में हार गई थीं. प्रियंका गांधी ने अप्रैल 2009 में एक इंटरव्यू में कहा था, 'सच कहूं तो, मुझे यकीन नहीं है कि मैं खुद इसका कारण समझ पाई हूं. लेकिन मैं बहुत स्पष्ट हूं कि मैं राजनीति में नहीं रहना चाहती हूं. मैं जैसी हूं, वैसी जिंदगी जीकर बहुत खुश हूं. मुझे लगता है कि राजनीति के कुछ ऐसे पहलू हैं जिनके लिए मैं बिल्कुल उपयुक्त नहीं हूं'.
अतीत की गूंज
कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के एक 'राजनीतिक जोड़ी' के रूप में काम करने का समृद्ध इतिहास रहा है. जब प्रियंका 2019 में औपचारिक रूप से राजनीति में शामिल हुईं, तो यह पहली बार नहीं था कि नेहरू-गांधी परिवार के दो सदस्य एक साथ उच्च पदों पर थे. 1959 में इंदिरा कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं, जिससे पार्टी में कई लोगों को आश्चर्य हुआ. तब उनके पिता जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे. नेहरू के आलोचकों ने इस घटनाक्रम को तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा अपनी बेटी को प्रतिष्ठित पद पर बिठाने की कोशिश के रूप में देखा था.
लेकिन उस दौर के कांग्रेसियों के एक बड़े वर्ग को लगता था कि इंदिरा ने अपनी योग्यता के दम पर पार्टी अध्यक्ष का पद अर्जित किया है. उनके ऐसा कहने के पीछे कारण भी थे. कांग्रेस प्रमुख के रूप में, इंदिरा न केवल केरल संकट से अच्छे से निपटीं, बल्कि महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों के निर्माण की सिफारिश कर वहां की भाषाई समस्या को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जब 1960 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त हुआ, तो कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने इंदिरा से फिर से चुनाव लड़ने का बहुत अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने दृढ़ता से इनकार कर दिया.
संजय गांधी ने 1974-80 तक कांग्रेस में कोई औपचारिक पद नहीं ग्रहण किया (एआईसीसी महासचिव के रूप में एक संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़कर), लेकिन कई संगठनात्मक और प्रशासनिक मामलों में उन्हें इंदिरा के बराबर माना जाता था. जून 1980 में एक प्लेन क्रैश में संजय गांधी की दुखद मृत्यु के एक सप्ताह पहले तक, उनके सहयोगी राम चंद्र रथ उन्हें कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में देख रहे थे. रथ कहते थे, 'सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू बहुत कम उम्र में एआईसीसी के अध्यक्ष बने थे. इसलिए अगर पार्टी ने संजय को अध्यक्ष चुना, तो यह पूरी तरह से लोकतांत्रिक है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है.'
संजय के भाई राजीव गांधी 1983 में कांग्रेस महासचिव बने, तब इंदिरा प्रधानमंत्री पद पर थीं. उन्हें इंदिरा गांधी के आवास के बगल में 24 अकबर रोड पर एक कमरा दिया गया था. राजीव की बातें सबसे ज्यादा मायने रखती थीं और इंदिरा कैबिनेट के ज्यादातर मंत्री अक्सर उनके दफ्तर के बाहर इंतजार करते नजर आते थे. हालांकि 2006 से 2014 के बीच यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गांधी ने बेटे राहुल के साथ अपने कार्यात्मक संबंधों में एक स्पष्ट सीमारेखा रखा. देखा टीम राहुल से जुड़े यूपीए मंत्रियों (अजय माकन, आर.पी.एन. सिंह, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट जैसे युवा लोगों) के अलावा अन्य मंत्रियों को उनसे मिलने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया गया.
प्रियंका गांधी के लिए आगे की राह
यूपीए के 10 वर्षों (2004-14) के शासन के दौरान राहुल का राजनीतिक कद नहीं बढ़ सका. बल्कि, इस दौरान वह एक होनहार राजनेता की जगह भ्रमित, अनिच्छुक और गैर-गंभीर चरित्र के रूप में नजर आए. इस तरह राहुल को अपनी एक विश्वसनीय और 24X7 उपलब्ध रहने वाले नेता की छवि बनाने, पार्टी में अपने साथियों से सम्मान अर्जित करने और भाजपा को हराने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने के लिए काफी काम करना पड़ा. जून 2024 ने उन्हें वह अवसर प्रदान किया है. राहुल के पास लोकसभा में विपक्ष के नेता बनने का बेहतरीन मौका है. इस तरह वह विपक्ष का चेहरा भी होंगे.
राहुल को संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने में हर बार प्रियंका का समर्थन मिलेगा. प्रियंका की मौजूदगी से कांग्रेस सांसदों का उत्साह बढ़ने वाला है. संयुक्त विपक्ष के पास लगभग 260 सांसद हैं, जो राहुल को सत्ता पक्ष पर चौतरफा हमले का नेतृत्व करने के लिए पर्याप्त सहारा देंगे. संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह प्रियंका अहमद पटेल की तरह एक प्रमुख रणनीतिकार, क्राइसिस मैनेजर, आम सहमति बनाने वाली और हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए प्रभावी प्रचारक की भूमिका निभाएंगी. कांग्रेस के भीतर, उन्होंने एक टीम लीडर की अपनी छवि बनाई है.
भारत की आजादी के बाद के 77 वर्षों के इतिहास में, गांधी परिवार ने 59 वर्षों तक कांग्रेस का नेतृत्व किया है. सभी रंग-रूप के कांग्रेसी गांधी परिवार के सदस्यों को निर्विवाद रूप से अपने नेता के रूप में देखते हैं और बदले में चुनावी सफलता, सत्ता आदि की उम्मीद करते हैं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा, राजीव और सोनिया तक, गांधी परिवार का कोई भी सदस्य कभी राजनीतिक रूप से विफल नहीं हुआ या अचानक राजनीति से बाहर नहीं हुआ. नतीजतन, कांग्रेस के नेता आंख मूंदकर उनका अनुसरण करते हैं और गांधी परिवार से आगे देखना नहीं चाहते. राहुल और प्रियंका को भी कांग्रेसियों के इस विश्वास पर खरा उतरना होगा.