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कभी नए नाम, कभी विवादित नक्शा, कभी स्टेपल्ड वीजा... बॉर्डर पर चीन की हरकतों के ये हैं 5 कारण

1962 के बाद से ही चीन के साथ भारत के संबंध स्थिर नहीं रहे हैं. पर इधर कुछ सालों से चीन लगातार किसी न किसी बहाने भारत के साथ विवाद को जन्म देता रहा है.

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अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन पहले भी कई बार विवाद कर चुका है.
अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन पहले भी कई बार विवाद कर चुका है.

चीन अपने  प्राचीन युद्धनीति विशेषज्ञ शुन त्जू की छाया से कभी मुक्त नहीं हुआ.शुन त्जू के युद्ध कौशल का मूल बिंदु था कि भ्रम बनाए रखो. आपको ऐसा करना है कि अगर आपकी सेना दूर है तो लगे कि वह बहुत नजदीक है.ठीक इसके उलट आपकी सेना नजदीक है तो इसे ऐसे दिखाएं कि हम तो शांति की बात कर रहे हैं और इस बीच अचानक हमला कर दीजिए. इसी तरह जो आपकी कमजोरी है उसे अपनी ताकत बताइये और जो आपकी ताकत है उसे बिल्कुल जाहिर ना होने दें. शायद चीनी नेता आज भी इसी नीति पर चलते हैं.

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भारत के अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चीन को चीन अपने नक्शे में दिखाकर, कभी भारतीय इलाकों का नामकरण करके तो कभी स्टेपल वीजा लगाकर भारत के खिलाफ युद्ध का माहौल बनाए रखता है तो ऐसा समझिए कुछ होने वाला नहीं है. चीन ने भारत पर जब भी अटैक किया है तो दोस्ती के माहौल में किया है जब हम यकीन नहीं कर रहे थे कि वो ऐसा कर सकता है. 1962 का युद्ध हो या 2020 चीन ने पहले दोस्ती का दम भरा है फिर अचानक एक दिन घात कर बैठा है. पर आज स्थितियां बदल चुकी हैं. चीन जो धौंस दिखा रहा है उसके पीछे उसकी आंतरिक स्थित और दुनिया भर में कम हो रहा उसका वर्चस्व है.

दूसरी ओर भारत लगातार आर्थिक-सामरिक और जिओ पॉलिटिक्स में चीन पर भारी पड़ रहा है.भारत में जी 20 देशों के सम्मेलन में दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों के शरीक होने की उम्मीद से चीन का जलना स्वभाविक है. ब्रिक्स देशों में भारत का दबदबा कम नहीं है. जबकि चीन को उम्मीद थी कि ब्रिक्स देशों में उसी की चौधराहट चलेगी. भारत एक तरफ पश्चिमी देशों के संगठन में भी अपना तालमेल बिठाए हुए है दूसरी ओर ब्रिक्स देश भी उसे काफी महत्व दे रहे हैं. चीन जानता है कि भारत से सीधे युद्ध करके वह कहीं का नहीं बचेगा.

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1-चीन की आंतरिक हालत खराब

दुनिया भर को सामान सप्लाई करने वाले चीन की हालत अब खराब है. आर्थिक मंदी की चपेट में घिरते चीन के विकास की रफ्तार थम चुकी है. कंपनियां दिवालिया हो रही हैं, बेरोजगारी चरम पर है, विदेशी निवेशक मुंह मोड़ रहे हैं. हालत ये है कि पूरी दुनिया इन्फ्लेशन से परेशान है तो चीन डिफ्लेशन का सामना कर रहा है. कीमतें गिर रही हैं पर लोगों के पास खरीदने के लिए पैसा नहीं है.

दुनिया भर के केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं तो चीन दरों में कटौती कर रहा है. चीन के राज्यों पर कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 44% हो गया है. चीन के करीब 31 राज्यों पर 782 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है. कोढ़ में खाज ये है कि दुनिया के जो देश उसकी स्थिति उबारने में योगदान कर सकते थे वो उसकी करतूतों से पहले ही खफा हैं.

यही कारण है कि बारी-बारी सभी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियां देश छोड़ रही हैं.नई कंपनियां आ नहीं रही हैं. इसलिए चीन चाहकर भी अपनी अर्थव्यवस्था को सुधार नहीं पा रहा है.ऐसी स्थिति में जिनपिंग के पास अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए लद्दाख-अरुणाचल-अक्साई चीन और ताइवान को हड़पने का भ्रम बनाए रखना है. 

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2-अमेरिका और यूरोप से रिश्ते हद से ज्यादा खराब

अमेरिका से तो चीन के रिश्ते पहले से ही खराब हो रहे थे पर यूक्रेन यु्द्ध शुरू होने के बाद से यूरोप और चीन का संबंध गटर में पहुंच चुका है.चीन जबसे रूस के साथ दोस्ती का खुला इजहार करने लगा तब से यूरोप की नजरो में जिनपिंग चढ़े हुए हैं. उसके बाद से यूरोपियन संघ गाहे बगाहे चीन को घेरने की कोशिश करता है.

चीन ने कभी यूक्रेन पर रूसी हमले की निंदा नहीं की बल्कि रूस के साथ कदमताल भी करता रहा है. इसके साथ ही चीन लगातार रूस से गैस और तेल खरीद रहा है जो यूरोपियन यूनियन को नागवार लगता रहा है.भारत भी रूस से तेल खरीद रहा है पर चीन के अधिकारियों और मीडिया की तरह युद्ध के कसीदे नहीं पढ़ रहा है. 

अमेरिका भी लगातार यही चाहता है कि यूरोपीय संघ और उसके सदस्यों की चीन से दूरियां बढ़ें.यूएस की कोशिशें काफी हद तक सफल भी हुई हैं.इसी साल मार्च में नीदरलैंड्स का चीन को एडवांस्ड माइक्रोचिप तकनीक बेचने पर रोक और जर्मनी का अपने मोबाइल नेटवर्कों के क्रिटिकल ढांचे में चीनी कंपनियों हुआवेई और जेडटीई की समीक्षा का एलान कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं.

 अमेरिका और चीन के रिश्ते तो इस हद तक खराब हो चुके हैं कि चीन की बड़ी कंपनियां अपने आपको यह बताना नहीं चाहतीं कि वो किस देश से हैं.इसलिए वो अपने नाम और वेबसाइट को बदल रही हैं जिससे उनकी चीनी पहचान मिट सके.इतना ही नहीं ये कंपनियां अपने मुख्यालय सिंगापुर, अमेरिका जैसे देशों में स्थापित कर रही हैं.कई कंपनियों ने तो चीनी रजिस्ट्रेशन भी खत्म कर दिया और दूसरे देशों में रजिस्टर्ड हो रही हैं. चीनी कंपनियों के मालिक चीन छोड़कर दूसरे देशों में बसने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं. चीनी फैशन कंपनी शैन चीन ने सिंगापुर में ,टिकटॉक ने लॉस एंजिल्स, टेमू ने बॉस्टर और उसकी पेरेंट कंपनी पीडीडी होल्डिंग्स ने आयरलैंड में अपना मुख्यालय बना लिया है. 

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3-रूस से भी दोस्ती ज्यादा दिन की नहीं

कहा जाता है कि मतलब की दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चलती.इसलिए रूस और चीन की दोस्ती पर भी बहुत जल्दी ग्रहण लगने वाला है.अगस्त के पहले हफ्ते में सऊदी अरब में एक मीटिंग इस मकसद हुई थी कि यूक्रेन युद्ध खत्म कराने के तरीके ढूंढें जाएं. लगभग 40 देश जुटे जिसमें चीन भी शामिल था.

 चीन ने जेद्दा में हुई इस मीटिंग की तारीफ भी की. रूस ने चीन से इसके लिए नाराजगी जताई थी. इसी तरह पिछले दिनों रूस-कजाकिस्तान बॉर्डर पर पांच चीनी नागरिकों को रूस में घुसने से रोक दिया गया. रूसी अधिकारियों ने उन चीनी नागरिकों का वीजा भी रद्द कर दिया.इस पर चीन की नाराजगी स्वभाविक थी.हालांकि रूसी अधिकारियों ने इस घटना की सफाई भी दी पर चीनी दूतावास ने सार्वजनिक रूप से नाराजगी जताई.इन दोनों घटनाओं से लग रहा है कि रूस और चीन के बीच तनाव बढ़ रहा है. 

रूस और चीन के बीच तनाव का एक और कारण है. चीन पिछले कुछ दशकों से रूस के सुदूर पूर्वी इलाके में काफी सक्रिय है. चीनी नागरिक सीमावर्ती रूसी इलाके में लीज पर ली गई जमीन पर बड़े पैमाने पर खेती ही नहीं कर रहे हैं बल्कि धीरे-धीरे बस भी रहे हैं. पूर्व सोवियत संघ के कई देशों में भी चीन अपनी ताकत बढा रहा है. कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान के साथ रूस के मुकाबले चीन का व्यापार तेजी से बढ़ा है.

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चीन इन देशों में भी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव शुरू किया है. जाहिर है रूस ने इस इलाके में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का विरोध तो नहीं किया है पर उसे अच्छा तो नहीं लग रहा है यह क्लियर है.रूस जैसी महाशक्ति जो छोटी सी बात के लिए यूक्रेन जैसा युद्ध कर सकता है उसका दबदबा पड़ोसियों में घटे वो कैसे बर्दाश्त करेगा.

4-भारत में दलाई लामा से अमेरिकी राजदूत के मिलने से चिढ़ा 

जुलाई के पहले सप्ताह में भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी की तिब्बतियों के सर्वोच्च धर्मगुरु दलाई लामा से मुलाकात पर चीन बौखला गया था. दरअसल ताइवान और तिब्बत चीन की दुखती रग है. जब भी कोई दूसरा देश इन दोनों के बारे में किसी भी तरह की चर्चा कर देता है चीन भड़क जाता है.

1962 में भी भारत और चीन के बीच युद्ध की असली वजह दलाईलामा और तिब्बत ही था.चीन इस तरह की मुलाकात को हमेशा अपने आंतरिक मामलों में दखल बताता रहा है. दरअसल चीन को मिर्ची लगने का कारण नई दिल्ली में हुई इस मुलाकात में  तिब्बत के मुद्दों पर अमेरिका की विशेष समन्वयक उज़रा जिया हैं. अमेरिकी सरकार ने तिब्बती मामलों के लिए एक अलग विभाग बना रखा है. ये विभाग 2021 से काम कर रहा है.

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चीन तिब्बत को अपना एक प्रांत मानता है. चीन को लगता है उसके एक राज्य के नाम पर कोई देश एक विभाग कैसे बना सकता है? हालांकि दलाई लामा स्पष्ट कर चुके हैं कि वे हमेशा से चीन से बातचीत करने के पक्षधर हैं और कभी तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग नहीं की है.

दलाईलामा का कहना है कि उन्होंने हमेशा केवल स्वायत्तता की मांग की है. जब कि चीन उन्हें शुरू से ही अलगाववादी बताता रहा है. दलाईलामा से किसी भी देश का नेता अगर मिलता है तो उस देश के साथ चीन भारत भी भडकता है. हालांकि भारत उन देशों में है जिसने चीन की वन चाइना पॉलिसी को सबसे पहले अधिकारिक रूप से मान्यता दी थी. जबकि अमेरिका  1971 में वन चाइना पॉलिसी को स्वीकार किया. 

5-चीन प्लस वन पॉलिसी

पिछले 30 सालों से पश्चिमी कंपनियों का चीन को कहां से कहां पहुंचा दिया. जिन देशों की कंपनियों ने चीन को आज महाशक्ति बनाया आज चीन उन्हीं देशों को धौंस देता फिरता है. इसके साथ ही अब चीन पर निर्भरता पश्चिमी देशों के लिए परेशानी का सबब बन चुकी है. जिस सस्ते लेबर, कम लागत, कच्चे माल की उपलब्धता के चलते इन कंपनियों ने चीन को गले लगाया था वही सुविधाएं दुनिया के दूसरे देशों में उन्हें मिल रही हैं.

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चीन की जिन पॉलिसीज के चलते पश्चिमी देशों ने यहां बेतहाशा निवेश किया था वही सुविधाएं आज भारत जैसे देशों में उन्हें मिल रहा है. पश्चिमी देश कई सालों से चीन के अलावा ऐसे देश की तलाश में थे पर निकलने का मौका नहीं मिल रहा था.जिनपिंग की विस्तारवादी जिद ने ये मौका पश्चिमी देशों को दे दिया है. मैन्यूफैक्चरिंग के मामले में चीन का विकल्प बनकर खड़ा होने वाले देशों में भारत सबसे आगे है. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे ही चीन प्लस वन पॉलिसी कहा जा रहा है. एपल का सारा प्रोडक्शन भारत में शिफ्ट होने की कगार पर है. एलन मस्क भी टेस्ला को भारत में लाने के लिए गंभीर हैं.

 

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