बिहार में विधानसभा चुनावों से करीब 8 महीने पहले मंत्रिमंडल का विस्तार कोई अचरज वाली बात नहीं है. सभी पार्टियां और उनकी सरकारें ऐसा करती रहीं हैं. पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह केवल बीजेपी के ही 7 विधायकों को मंत्री बनाया है वह जरूर अचरज वाली बात लग रही है. हालांकि, दोनों पार्टियों के गठबंधन की सरकार बनने के पहले जो फॉर्मूला तैयार हुआ था वो यही था कि प्रति 3 से 4 विधायक एक मंत्री दोनों दलों से बनेगा. चूंकि बिहार में जेडीयू के 45 विधायक हैं और बीजेपी के अभी 80 विधायक हैं. इस फॉर्मूले के तहत ही जेडीयू के 13 मंत्री पहले से हैं, लेकिन बीजेपी के कोटे से 15 मंत्री ही थे. इसलिए बीजेपी छह मंत्री और बना सकती थी. दिलीप जायसवाल जो बिहार बीजेपी के अध्यक्ष के साथ राजस्व मंत्री भी थे, उनके इस्तीफा देने के साथ बीजेपी के पास सात मंत्री का कोटा था. कायदे से देखा जाए तो इसमें कोई रार वाली बात नहीं है. पर सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में बीजेपी और जेडीयू के बीच इस तरह का समझौता हुआ था. अगर ऐसा था तो अब तक मंत्रिमंडल का विस्तार क्यों नहीं हुआ.
क्या पीएम नरेंद्र मोदी की बिहार यात्रा के दौरान सीएम नीतीश कुमार को पीएम से जो प्यार मिला उसका परिणाम था ये? मतलब साफ है कि नीतीश कुमार के लिए कोई मजबूरी नहीं थी कि उन्हें सात नए मंत्री केवल बीजेपी के ही बनाने थे. क्योंकि जैसे अब तक नीतीश कुमार बीजेपी के विधायकों को मंत्री नहीं बना रहे थे वैसे चाहते तो अब भी नहीं बनाते या बनाते तो कुछ जेडीयू के लोगों को भी कैबिनेट बर्थ देते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. शायद यही कारण है कि कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी के आगे सरेंडर कर दिया है.
1-क्या बीजेपी धीरे-धीरे बड़े भाई की भूमिका में आ रही है?
नीतीश के कैबिनेट में केवल बीजेपी विधायकों को मंत्री बनाये जाने के बाद दोनो तरफ से सफाई आ रही है.दोनो तरफ के लोग यही कह रहे हैं कि जिस समय पूरा मंत्रिपरिषद बना था, उस समय कुछ स्थान खाली रह गए थे जिसमें भाजपा कोटा नहीं भरा गया था. उसी आधार पर हालिया विस्तार हुआ है. कहा जा रहा है कि इसमें कुछ नया नहीं है.पर बीजेपी की अपने सहयोगी दलों पर हावी होने की रणनीति कोई छुपी हुई बात नहीं है. सबको पता है कि बीजेपी ऐसा महाराष्ट्र में कर चुकी है. बिहार में भी मौके की तलाश में है. आंकडे बताते हैं कि 20 साल पहले जिस जेडीयू के बीजेपी से दोगुना से ज्यादा मंत्री सरकार में होते थे. वो गणित अब पूरी तरह पलट चुका है.
2020 में जेडीयू के 19 मंत्री थे और बीजेपी के सात. साल दर साल जेडीयू के मंत्री घटते गए, बीजेपी के बढ़ते गए.अगर जेडीयू और बीजेपी में किसी तरह की शर्त थी तो आज तक उसे लागू करने का इंतजार क्यों किया गया. जाहिर है, अब तक नीतीश कुमार भारी पड़ रहे थे. आज स्थिति ये है कि नीतीश कुमार की कुर्सी समेत 13 मंत्री उनकी अपनी सरकार में जेडीयू के हैं, और बीजेपी के 21 मंत्री हो चुके हैं, क्या नीतीश कुमार इस बात को नहीं समझ रहे होंगे कि इस तरह मंत्रिमंडल में उनकी पार्टी का महत्व कम होगा तो कल उनका भी महत्व कम हो जाएगा. जब बिहार में बीजेपी के मंत्री अधिक होंगे तो टिकट बंटवारे में भी उनको एज मिलेगा. इसके साथ ही जब मंत्री अधिक होंगे तो जीतने की गारंटी भी बीजेपी की ज्यादा होगी. मतलब साफ है कि कहीं न कही नीतीश कुमार ने मान लिया है कि अब बीजेपी को बड़े भाई की भूमिका देनी ही होगी.
2-क्या हुआ महाराष्ट्र में?
क्या नीतीश कुमार को, महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के साथ क्या हुआ, नहीं पता होगा. महाराष्ट्र में जहां शिंदे पहले कम सीटों के बावजूद सीएम रहे बिल्कुल वैसे ही जैसे 2020 में जेडीयू के पास 43 विधायक थे और बीजेपी के पास 70 विधायक , फिर भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बने थे. इसी तरह महाराष्ट्र में बीजेपी के पास शिवसेना शिंदे गुट से करीब डबल विधायक थे फिर सीएम एकनाथ शिंदे को बीजेपी ने बनाया. पर विधान सभा चुनावों में बीजेपी को चुनाव लड़ने के लिए अधिक सीटें मिलीं और अधिक सीटें जीतने में भी सफल हुईं. जाहिर है कि दुबारा सीएम बनने के लिए एकनाथ शिंदे दबाव बनाते रहे पर कोई तरकीब या दबाव काम नहीं आया. इसी तरह बिहार में अब तक इस बात की गारंटी फिलहाल किसी ने नहीं दी है कि 2025 में गठबंधन जीता तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे.
3- क्या नीतीश और एकनाथ शिंदे को एक तराजू पर तौला जा सकता है?
ये कहना बहुत आसान है कि बिहार में बीजेपी नीतीश कुमार के साथ एकनाथ शिंदे वाला बर्ताव कर सकती है. जो लोग ऐसा कहते हैं उन्हें एक बार नीतीश कुमार और एकनाथ शिंदे की तुलना करनी चाहिए. नीतीश कुमार देश के उन कद्दावर नेताओं में से हैं जो कभी पीएम पद के दावेदार रहे हैं. आज की तारीख में भी अगर वो इंडिया गुट में होते तो उन्हें पीएम पद के एक दावेदार के रूप में देखा जाता. इंडिया गठबंधन का जो रूप आज सामने दिख रहा है उसके पीछे नीतीश कुमार का ही दिमाग था. देश भर के विपक्षी नेताओं को एकजुट करना नीतीश कुमार के ही के वश का था. जब से नीतीश ने साथ छोड़ा इंडिया गुट कमजोर होता गया. नीतीश कुमार एकनाथ शिंदे की तरह किसी की कृपा पर सीएम नहीं बने हैं. अतिपिछड़ों के रूप में उन्होंने राज्य में एक नया वोट बैंक तैयार किया है, जिसके बल पर करीब ढाई दशक से वो बिहार पर राज कर रहे हैं. बिहार में बीजेपी नहीं नीतीश कुमार के नीचे काम करने के लिए बीजेपी ही नहीं आरजेडी भी मौके के इंतजार में तैयार बैठी रहती है.
4-बिहार बीजेपी में कोई फडणवीस नहीं है
बिहार में आज की तारीख में भी भारतीय जनता पार्टी के पास एक भी नेता ऐसा नहीं है जिसे बिहार के बाहर भी लोग जानते हों. नीतीश कुमार के आभामंडल की बराबरी करने वाला नेता न होने के चलते ही बीजेपी ने पहले भी नीतीश कुमार को सीएम बनाया था. महाराष्ट्र में देवेद्र फडणवीस काफी दिनों से सक्रिय रहे हैं और उन्होंने लगातार मेहनत करके बीजेपी और आरएसएस दोनों में अपनी खास जगह बनाई है. दूसरी बात यह भी थी कि फडणवीस लगातार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके थे. विधानसभा चुनावों में उन्होंने राज्य भर में अकेले कैंपेन किया था. महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा रैलियां और सभाएं भी उनके द्वारा ही की गईं थीं. बिहार में आज भी दोनो डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा की चमक इतनी नहीं है कि नीतीश कुमार के सामने टिक भी सकें.
5-महाराष्ट्र में आरजेडी जैसी एकल मजबूत पार्टी नहीं थी
महाराष्ट्र की राजनीति में कई पार्टियों का वर्चस्व है. सबसे बड़ी बात किसी को भी कम नहीं आंका जा सकता. महाराष्ट्र में बीजेपी के अलावा कांग्रेस, शिवसेना यूबीटी, शिवसेना शिंदे, एनसीपी, एनसीपी (एसपी) सभी की अपनी अपनी फैन फॉलोइंग है. पर बिहार में बीजेपी और जेडीयू मिलकर भी आरजेडी से मुकाबला करने में जूझना पड़ता है. 2020 के चुनावों में ही एनडीए मुश्किल से महागठबंधन से ऊपर हो पाया था.
बिहार में नीतीश कुमार के नीचे रहने के लिए बीजेपी की मजबूरी यह है कि आरजेडी वहां एक सशक्त विपक्ष के रूप में मौजूद है. बिहार में आरजेडी और बीजेपी के पास विधायकों की संख्या करीब करीब बराबर ही हैं. जेडीयू के आने के बाद भी बिहार में एनडीए के पास मात्र 6 विधायक ही बहुमत से ज्यादा हैं. मतलब साफ है कि बीजेपी को आरजेडी से मुकाबले में खड़ा होने के लिए नीतीश कुमार को आगे रखना ही होगा.